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सत्तर जैसा हाल, इक्यानबे जैसी आफत

नई दिल्ली, [अंशुमान तिवारी]। वित्त मंत्री के धमकाने पर विकास दर का आंकड़ा भले ही बदल जाए, लेकिन हकीकत बदलने वाली नहीं है। भारत के आर्थिक विकास की गति व्यावहारिक रूप से अब साठ-सत्तर के दशक वाली स्थिति में पहुंच गई है। विकास दर में से अगर विदेश व्यापार और विदेशी पूंजी को हटा दिया जाए तो देशी अर्थव्यवस्था पांच फीसद भी नहीं, बल्कि केवल 3 से 3.5 फीसद की दर से बढ़ रही है। भारत की ग्रोथ अब 125 करोड़ की आबादी की सामान्य खपत के भरोसे है, नया निवेश बंद है। इससे नए रोजगार पैदा नहीं होते। दूसरी तरफ विदेशी देनदारियों के मोर्चे पर हालात 1991 से ज्यादा खराब हैं, जब सोना गिरवी रखने की नौबत आ गई थी। पांच फीसद की धराशायी आर्थिक विकास दर का एलान होने के बाद इस बजट का परिप्रेक्ष्य बदल गया है। सुधारों की उम्मीदों की जगह संकट की आशंकाएं आ बैठी हैं।

गिरती ग्रोथ, ऊंची महंगाई, महंगा कर्ज, टूटता रुपया, भारी घाटे, शून्य रोजगार मिलकर भारत के लिए उस पुराने दुष्चक्र की शुरुआत कर रहे हैं, जिससे बड़ी मुश्किल से निजात मिली थी। 1960 से 1970 के बीच भारत की विकास दर तीन से चार फीसद थी, जिसे अर्थशास्त्री राजकृष्ण ने हिंदू ग्रोथ रेट कहा था। तब भारत का बाजार बंद था। विदेशी पूंजी नहीं आती थी। निर्यात-आयात सीमित थे। वह ग्रोथ पूरी तरह तत्कालीन देसी खपत पर आधारित थी। इसमें विदेशी पूंजी का योगदान नहीं था। ताजा आर्थिक आंकड़ों की पड़ताल उस दौर की वापसी का संकेत दे रही है। एक रुपये के आर्थिक उत्पादन में विदेशी व्यापार यानी आयात और निर्यात का हिस्सा बढ़ते-बढ़ते 40 पैसे पर पहुंच गया है। 1987 में यह स्तर केवल रुपये में 11 पैसे का था। भारत में विदेश से पूंजी की आवाजाही का आंकड़ा भी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लगभग बराबर है। इसमें शेयर बाजार में विदेशी निवेश, कंपनियों के कर्ज, भारत से विदेश में निवेश शामिल हैं। इस विदेशी निर्भरता को घटाने पर देसी अर्थव्यवस्था की वास्तविक बढ़त दर केवल 3.5 फीसद रह जाती है।

आंकड़ों के आर-पार जाने पर साठ सत्तर के दशक जैसा हाल कई जगह दिखता है। महंगाई की दर विकास दर की ठीक दोगुनी है। कमाई एक रुपये बढ़ती है तो जिंदगी जीने की लागत दो रुपये हो जाती है। महंगाई एक रुपये है, बचत पर ब्याज पचास पैसे। यानी बचत भी किसी काम की नहीं रही। कर्ज लेकर कमाने खाने में भी नुकसान है, क्योंकि ब्याज दर आय बढ़ने की दर से दोगुनी है। भारत जितने डॉलर कमा रहा है, खर्च उससे कहीं ज्यादा है। मनमोहन सिंह 1991 में जब सुधार बजट पेश कर रहे थे, उस समय यह अंतर जीडीपी के मुकाबले 2.5 फीसद था। अब यह 4.2 फीसद है। हालात 1991 से ज्यादा खराब इसलिए दिखते हैं क्योंकि कमजोर रुपया निर्यात बढ़ाने का मौका होता है, लेकिन निर्यातक डॉलर के मुकाबले 20 फीसद तक गिर चुके रुपये का कोई फायदा नहीं ले पा रहे हैं। दूसरी तरफ खपत के कारण आयात घटना नामुमकिन है। 1991 की तरह भुगतान संतुलन की दरार चौड़ी होती जा रही है। केंद्र सरकार लगभग 1600 करोड़ रुपये प्रति दिन के हिसाब से कर्ज ले रही है। यह राशि 2009-10 की तुलना में दोगुनी है। इस साल अप्रैल से अक्टूबर के दौरान 180 दिन में सरकार ने 3,70,000 करोड़ रुपये का कर्ज उठाया। पिछले तीन चार माह में रिजर्व बैंक ने बाजार में जो पैसा छोड़ा उसे सरकार चाट गई। न ब्याज दरें घटीं और न निवेश बढ़ा। अलबत्ता सरकार का कर्ज जीडीपी के अनुपात में 50 फीसद पर पहुंच रहा है।

निगेटिव ग्रोथ यानी उत्पादन घटना अनोखी स्थिति है। पिछले एक साल में छह माह ऐसे थे, जब फैक्ट्रियों का उत्पादन बढ़ने के बजाय घट गया। खनिज क्षेत्र में नौ महीने और मशीनरी उत्पादन में 11 महीने यही हाल रहा। उत्पादन अब सिर्फ विशाल आबादी की सामान्य खपत के सहारे चल रहा है। नया निवेश नहीं है और न ही नए रोजगार। इस बजट में सुधारों का बटन दबाने से पहले संकट निवारण तंत्र को सक्रिय करना पड़ेगा।