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सत्ता में दलित- श्योराज सिंह बेचैन

Dalits pain

मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में जब जातियों के आधार पर राजनीतिक गोलबंदी तेज हो गई है, सही मायने में कांशीराम ही अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने व्यवस्था बदलने के लिए जाति के समाप्त होने का इंतजार नहीं किया था। उन्होंने जातियों, उप-जातियों में सहअस्तित्व और आत्मसम्मान की भावना जगाकर उन्हें सत्ता में हिस्सेदारी की महत्वाकांक्षा के साथ संगठित किया। समकालीन राजनीति में उनके इस योगदान ने न केवल हाशिये पर खड़े लोगों को मुख्यधारा से जोड़ा, बल्कि भविष्य की राजनीति की दिशा भी तय कर दी। वह अकेले ऐसे नेता भी थे, जिसने अधिकार और अवसरों से वंचितों को अधिकारचेता और अवसरवादी बनने को कहा। महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्हें राजनीति विरासत में नहीं मिली थी, मायावती जैसी तेजस्वी नेत्री को साथ लेकर उन्होंने ग्रास रुट से शक्ति अर्जित की।

कांशीराम अगर आज जीवित होते तो सतहत्तर बरस के हो गए होते। भारतीय राजनीति में उनका सफर पुणे की एक छोटी-सी घटना से शुरू हुआ, जहां वह ईआरडीएल में अनुसंधान सहायक के पद पर काम कर रहे थे। यह बात 1965 के आसपास की है। उन्होंने दीना भाना नामक एक वाल्मिकी कर्मचारी के लिए 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती की छुट्टी के लिए मांग की। यह वजह बनी उनके सरकारी नौकरी छोड़ने और दलितों को जोड़ने वाली युगांतरकारी घटना की।
असल में देश की आजादी के बाद की योजनाओं का लाभ समाज के एक बहुत ही छोटे से वर्ग को हुआ और एक बड़ा तबका उससे अछूता ही रहा।

गरीबी, सामाजिक विभेद तथा दलित उत्पीड़न को कम करने में ये योजनाएं कारगर साबित नहीं हुईं। संविधान प्रदत्त आरक्षण की नीति को नेक-नियती से लागू नहीं किया गया। आजादी के बाद के तमाम नेताओं ने छुआछूत हटाने का दायित्व भी संविधान में ही बंद करके रख दिया। व्यवहार में कमोबेश पेशवाई ही चलती रही। जाहिर है, जिस जनता को अशिक्षित रखा गया, उनमें जागरूकता नहीं आई। परिवार नियोजन जैसे कारगर हथियार से भी यह तबका इसीलिए वंचित रहा। इन सब चीजों को लेकर दलित वर्ग में लगातार असंतोष बढ़ता गया। यही तीन पीढ़ी का व्यापक असंतोष भरा वोट बैंक कालांतर में बसपा का राजनीतिक आधार बन गया। कांशीराम ने इसका राजनीतिक उपयोग किया।

दूसरी ओर, हिंदी क्षेत्रों में आरक्षण का लाभ दलितों में जिस तबके ने सबसे पहले और सबसे अधिक लिया, उसमें जाति को लेकर गहरी हीन भावना आती गई, वह अपनी जाति छिपा कर रहने लगा। वह तबका अंबेडकर, फुले या रैदास का नाम लेने वालों से दूरी बनाने लगा। वह अंबेडकर जयंती तक में भाग लेने से कतराने लगा था। ऐसे लोगों को कांशीराम ने अपने साथ जोड़ा और उनमें आत्मविश्वास जगाया।

कांशीराम इसे अवसर मानते थे और कहते थे, कांग्रेस ने बड़ी संख्या में लोगों को अनपढ़ रखकर अच्छा ही किया। पढ़े-लिखे लोगों को समझाना कठिन होता है, हम इन्हें समझा-सिखा कर लाइन पर ला सकते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती के नेतृत्व में अपने अकेले के दम पर बनी बसपा की सरकार इसी बात की पुष्टि करती है कि वह न केवल अपने तरीके, बल्कि अपने मकसद में भी सफल रहे। वास्तव में इस सफर में सुश्री मायावती की कुरबानियां अधिक थीं, क्योंकि महिला होने के नाते सार्वजनिक मंचों पर आने और पुरुषों को नेतृत्व प्रदान करने के लिए उन्हें घर-बाहर के कई तरह के तीखे विरोध झेलने पड़े।

एक बार महाराष्ट्र आरपीआई के नेताओं ने कांशीराम से निवेदन किया, ‘आप डॉ. अंबेडकर को मानते हैं, तो हमारी तरह बौद्ध धर्म में दीक्षित हो जाइए।’ इस पर उन्होंने कहा, ‘मैं और मायावती मिलकर दो हैं और आप सैकड़ों नेता हैं। जब आप इतने सारे मिलकर वह सब कर दिखाओ, जितना हम दो ने मिलकर उत्तर प्रदेश में किया है, तब मैं आपकी बात से सहमत हो पाऊंगा।’ युवा चिंतक यशवंत वीरोदय का मूल्यांकन है कि कांशारीम शेर दृष्टि वाले नेता थे।

सच में शेर गरदन ही पकड़ता है। आज जातिभेदी राजनीति की गरदन उत्तर प्रदेश ही है। आज उनकी विरासत के तूफानी दौरों की भनक अंबेडकर गांवों से होते हुए देश के दूसरे कई हिस्सों तक सुनाई दे रही है। कांशारीम के बाद मायावती ने दूरदृष्टि और साहस के बल पर बहुजन समाज पार्टी और उनकी विरासत को संभाला। हाल के वर्षों में बने तमाम मुख्यमंत्रियों में वह अकेली ऐसी नेता हैं, जो समाज के सबसे निचले तबकों के ज्यादा करीब हैं। एक नेता का असंतोष निकम्मे और कामचोर अफसरों के लिए मुसीबत तो बनता ही है। भारत जैसे विकासशील देश के लिए यह बेहद जरूरी भी है।

कांशीराम जी से मिलने के मुझे कई अवसर मिले, जिनमें से एक का मैं जिक्र करना चाहूंगा। बात 14 अप्रैल, 2002 की है। बाबा साहब महू संस्थान, मध्य प्रदेश ने पत्रकारिता में शोध के लिए मुझे अंबेडकर सम्मान दिया था। इसी सिलसिले में मैं वहां गया था। लौटते समय कांशीराम जी से मेरी मुलाकात हुई। उन्होंने मुझसे कहा, ‘मैं जल्दी ही मायावती को उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनाने जा रहा हूं।’ कोई हफ्ते भर बाद भाजपा के समर्थन से बहुजन समाज पार्टी ने मायावती की अगुआई में उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार बनाई।

कबीर और बाबा साहब अंबेडकर की भांति कांशीराम भी आज समाज के हाशिये पर पड़े वंचितों के दिलों में अपनी रागात्मक जगह बना चुके हैं। ऐसे समर्पित नेता का सम्मान यदि होना है, तो उनके कामों और ख्वाबों की दिशा में यथा सामर्थ्य क्रियाशील होने से ही हो सकता है।