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सफाई कर्मचारियों की भी सुनिए- सुभाषिनी अली सहगल

वर्ष 1958 से 31 जुलाई हमारे देश में 'अखिल भारतीय सफाई मजदूर दिवस' के रूप में मनाया जाता है। समाज के दूसरे हिस्से इन कार्यक्रमों से बहुत दूर और पूरी तरह अनभिज्ञ रहते हैं। 22 जुलाई, 1957 को दिल्ली के सफाई कर्मचारियों ने अपना मांग पत्र दिल्ली की नगरमहापालिका के सामने पेश किया था। उसके साथ एक हफ्ते बाद शुरू होने वाली हड़ताल का नोटिस भी संलग्न था। चूंकि मामला देश की राजधानी का था, इसलिए तत्कालीन केंद्र सरकार ने मामले को गंभीरता से लिया। 22 जुलाई को ही दो सफाई कर्मचारियों ने अपनी भूख हड़ताल महापालिका की कार्यशाला के फाटक के सामने शुरू कर दी। 30 जुलाई तक भूख हड़तालियों की संख्या 10 तक पहुंच गई। अधिकारियों ने कर्मचारियों से कह दिया कि उनकी मांगें नहीं मानी जा सकतीं, क्योंकि इसके लिए पर्याप्त वित्तीय साधन उपलब्ध नहीं।

नतीजतन हड़ताल शुरू हुई और सरकार ने उसे तोड़ने की पूरी कोशिश की। पुलिस ने बल प्रयोग से हड़ताल खत्म कराने का प्रयास किया। विवाद के दौरान पुलिस की गोली से एक आदमी मारा गया, जबकि कई लोग घायल हुए। मारा जाने वाला आदमी भूप सिंह था, जो कर्मचारी नहीं था और उस दिन अपनी बहन से मिलने कॉलोनी में आया था। हर साल शहीद भूप सिंह की याद में 31 जुलाई को सफाई मजदूर दिवस' के रूप में मनाया जाता है। उल्लेखनीय है कि इस घटना के दस साल पहले तक उस कॉलोनी में महात्मा गांधी कई बार आए और ठहरे भी थे। पर सरकार ने गांधी के सिद्धांतों को पूरी तरह से भुला दिया था।

संसद ने कानून पारित कर मैला ढोने के काम को प्रतिबंधित कर दिया है। लेकिन आज भी कम से कम दस लाख लोग इस काम में लगे हुए हैं, जिनमें बड़ी संख्या महिलाओं की है। कानून का उल्लंघन करते हुए मैला ढोने की यह प्रथा उन बस्तियों और गांवों में तो है ही, जहां न तो सीवर लाइन हैं, न शौचालय। कई सरकारी विभागों में भी, जिनमें रेलवे सबसे आगे है, मैला ढोने का काम बरकरार है। रेलवे विभाग बड़ी बेशर्मी से सर्वोच्च न्यायालय के सामने अपना बचाव यह कहकर कर रहा है कि इस स्थिति को बदलने के लिए उसके पास वित्तीय साधन नहीं हैं। जब रेलवे विभाग, जो देश की अर्थव्यवस्था का इंजन है, इस तरह की बात कर सकता है, तो राज्य सरकारों और नगरपालिकाओं की क्या बात की जाए! जो सफाई कर्मचारी आधुनिक शौचालयों की सफाई करते हैं, उनके अधिकारों को उनकी नौकरी को पक्की से कच्ची बनाकर छीन लिया गया है।

सफाई कर्मचारियों का सम्मान किए बिना, उनके अधिकारों को सुनिश्चित किए बगैर, उनके पेशे को और तमाम पेशों के बराबर समझे बगैर देश और समाज कभी साफ हो ही नहीं सकता। सफाई कर्मचारी जानते हैं कि यह समाज उनके कठोर परिश्रम को मान्यता देने के लिए तैयार नहीं है। इसीलिए वे आजादी के 68वें साल में भी वही गीत गा रहे हैं, जो उन्होंने 1947 में गाना शुरू किया था, सुन भई निहाला, क्या तुमने आजादी देखी है? नहीं दोस्त। उसे न देखी है, न चखी है। लेकिन मैने जग्गू से सुना है कि वह अंबाला तक पहुंच गई है। उसकी पीठ दीवार की ओर थी और उसका चेहरा बिड़ला की तरफ था। (गुरामदास आलम द्वारा पंजाबी में लिखे गीत का मेरे द्वारा किया गया हिंदी अनुवाद)

-वरिष्ठ माकपा नेत्री और पोलित ब्यूरो सदस्य