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सबको समय पर न्याय देने के लिए-- के सी त्यागी

विधि मंत्रालय ने जजों की संख्या के जो आंकड़े जारी किए हैं, वे चौंकाने वाले हैं। इसके अनुसार, देश में प्रति 10 लाख की आबादी पर न्यायाधीशों की संख्या मात्र 18 है, जबकि यह 50 होनी चाहिए। जजों की आनुपातिक संख्या में कमी कोई अचानक उत्पन्न हुई समस्या नहीं है। समय-समय पर सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश द्वारा सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया जाता रहा है, परंतु ठोस निर्णय के अभाव में मसला सिर्फ सुर्खियों के काम आया है।

प्रधान न्यायाधीश टी एस ठाकुर द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति पर अश्रुपूर्ण टिप्पणी के बाद हाल ही में सरकार ने इसमें सहयोग का आश्वासन दिया, तो कुछ उम्मीद बंधी है। सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो, जजों की रिक्तियां भरने से सभी कतराती आई हैं। प्रधान न्यायाधीश का कहना था कि नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार की गति काफी ढुलमुल रही है और इस वजह से नागरिकों को न्याय मिलने में वर्षों का इंतजार करना पड़ रहा है। नियुक्ति प्रक्रिया में देरी के मसले पर सरकार और न्यायालय के बीच आरोप-प्रत्यारोप की खबरें भी सामने आई हैं। विधायिका-न्यायपालिका के बीच मनभेद की खबरों से आम नागरिकों में भी भ्रम पैदा होता है।

कहावत है कि देर से मिला न्याय, न्याय न मिलने के बराबर है। देश की अदालतों में मुकदमे कछुए की गति से चलते हैं, जिसमें देरी लगभग तय होती है। लगभग सभी उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के पद की काफी रिक्तियां हैं, जिनकी वजह से मामलों का निपटारा सीधे तौर पर प्रभावित हो रहा है। वर्ष 1987 के विधि आयोग की रिपोर्ट प्रति 10 लाख व्यक्ति पर 50 न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करती है। लेकिन सिफारिश के बावजूद जजों की रिक्तियों पर समय रहते ध्यान नहीं दिया गया।

वर्तमान में जनसंख्या के अनुपात में जजों की संख्या मिजोरम में सर्वाधिक 57 है, जबकि दिल्ली में प्रति 10 लाख की जनसंख्या के अनुपात में 47 जज हैं। पश्चिम बंगाल व उत्तर प्रदेश की स्थिति ज्यादा चिंताजनक है। दोनों राज्यों में प्रति 10 लाख नागरिकों पर जजों का अनुपात मात्र 10 है। सर्वोच्च न्यायालय में कुल 31 जजों की नियुक्ति का प्रावधान है। हाल ही में चार नए जजों की नियुक्ति से देश की सर्वोच्च न्याय व्यवस्था को राहत जरूर मिली है, फिर भी तीन जजों के पद खाली हैं। देश के 24 उच्च न्यायालयों के लिए साल 2014 तक कुल 906 जजों की नियुक्ति की स्वीकृति थी, जिसे इसी साल जून में बढ़ाकर 1,079 कर दिया गया।

संख्या बढ़ाए जाने की स्वीकृति के बावजूद जुलाई 2016 तक देश भर के उच्च न्यायालयों में कुल 477 जजों की कमी आंकी गई है। जजों की कमी का दंश न सिर्फ सर्वोच्च व उच्च न्यायालय झेल रहे हैं, बल्कि निचली अदालतों के समक्ष समस्या और भी चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। जनसंख्या का बड़ा हिस्सा न्याय की आस में निचली अदालतों में गुहार लगाता है। एक रिपोर्ट के अनुसार, इन अदालतों में वर्ष 2015 तक लगभग 4,500 न्यायिक अधिकारियों की कमी थी। 20,502 जजों की स्वीकृत संख्या की तुलना में मौजूदा 16,070 अधिकारी निचली अदालतों में कार्यरत हैं। विधि आयोग की सिफारिश, सर्वोच्च न्यायालय के सहयोग और संसदीय स्थायी समिति की संस्तुति के बावजूद नियुक्ति प्रक्रिया में शिथिलता न्याय व्यवस्था के साथ अन्याय है।

न्यायाधीशों की संख्या में कमी की वजह से लंबित मामलों की संख्या पहाड़ का रूप लेती जा रही है। आंकड़े बताते हैं कि देश के सर्वोच्च न्यायालय में जून, 2016 तक कुल 62,657 मामले लंबित पड़े थे। दिसंबर 2015 तक के आंकड़ों के अनुसार, देश के उच्च न्यायालयों के समक्ष कुल 38 लाख, 70 हजार, 373 मामले लंबित थे।

दुखद है कि लंबित मामलों के लगभग 20 फीसदी मामले पिछले दस वर्षों से न्याय की बाट जोह रहे हैं। इस क्रम में निचली अदालतों की स्थिति भयावह है। देश के जिला न्यायालयों में लगभग दो करोड़, 18 लाख मामले लंबित पड़े हैं। पिछले दो वर्ष के दौरान सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या में हुई वृद्धि चिंता बढ़ाने वाली है। वर्ष 2013 में, जहां लंबित मामलों की कुल संख्या 40,189 थी, वहीं साल 2015 में बढ़कर यह 47,424 के आंकड़े पर पहुंच गई। हालांकि इसी अवधि के दौरान देश के उच्च न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों की संख्या में कमी दर्ज की गई है।

जनसंख्या के अनुपात में जजों की कम संख्या के अलावा न्यायालयों की आधारिक संरचना में कमी भी न्याय व्यवस्था को प्रभावित करने में बराबर की भूमिका अदा करती है। न्यायालय परिसरों में ‘कोर्ट रूम' की कमी भी हमारी न्यायिक व्यवस्था की एक बड़ी समस्या है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय से लेकर निचली अदालतों में कुल 21,598 न्यायाधीशों के पद स्वीकृत हैं। लेकिन निराशाजनक बात यह है कि सभी पदों पर बहाली की स्थिति में जजों के बैठने के लिए ‘कोर्ट रूम' की व्यवस्था नहीं है। 21,598 पदों की तुलना में देश भर में मात्र 16,513 कोर्ट रूम की ही व्यवस्था है। उच्च न्यायालयों की बेंच की संख्या में कमी भी न्याय को आम जन से दूर रखने के प्रयास जैसा है। 22 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में उच्च न्यायालय की एकमात्र बेंच लखनऊ में स्थापित है। वहीं इसकी आधी से भी कम आबादी वाले राज्यों महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश तथा कर्नाटक में दो-दो बेंच स्थापित हैं। इस स्थिति में, खासकर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों के लिए न्याय महंगा और कभी-कभी असंभव बन जाता है। विश्व के सबसे बडे़ उच्च न्यायालय इलाहाबाद में जजों की संख्या सबसे कम है। स्वीकृति के मुताबिक, 160 जजों की जगह मात्र 72 जज कार्यरत हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की आबादी लगभग छह करोड़ है, जो कि पूर्वोत्तर के कई राज्यों की कुल जनसंख्या के बराबर है, लेकिन वह उच्च न्यायालय की बेंच से अब तक वंचित है। यहां के लोग न्याय की आस में 720 किलोमीटर की दूरी तय करके इलाहाबाद जाने को मजबूर हैं। हास्यास्पद यह भी है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों से लाहौर उच्च न्यायालय की दूरी 450 किमी से कम है। लंबे समय से मांग के बावजूद बेंच की स्थापना में कोई दिलचस्पी नहीं ली गई।

समस्या सिर्फ यूपी या किसी राज्य विशेष की नहीं है, बल्कि कई राज्यों की है, जहां तत्काल प्रभाव से उच्च न्यायालय की बेंच स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। बिहार के मधेपुरा तथा सीमांचल क्षेत्र के निवासियों के लिए एकमात्र पटना उच्च न्यायालय का दरवाजा न सिर्फ दूर पड़ता है, वरन दुर्लभ व महंगा भी होता है। जरूरतमंदों को इंसाफ मिले, इसके लिए जरूरी है कि बिना क्षेत्रीय भेदभाव तथा विलंब के कोर्ट बेंचों की स्थापना की जाए। सबका साथ और सबका विकास सुनिश्चित करने के लिए सबको न्याय तथा शीघ्र न्याय की भी पहल आवश्यक है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)