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सबसे बड़ी चाय दुकान की ताकत- एम जे अकबर

अगर इंटरनेट की सेंसरशिप तकनीकी पहलू से अधिक कुछ नहीं है, तोयह पहले ही हो गया होता. एक लोकतांत्रिक सरकार को गद्दाफ़ी या चीनी कम्युनिस्टपार्टी की तरह मनमानी करने का अधिकार नहीं होता है. ऐसे में इसके लिए अव्यावहारिक तर्को का प्रयोग करना पड़ता है. लेकिन भारत सरकार को यह जल्द ही पता लग जायेगा कि इंटरनेट की आवाज कोआसानी से नहीं दबायाजा सकता है.

प्रवक्ता अपनी नहीं आकाओं की भाषा बोलते हैं. इतना ही नहीं वे अपनी ही कही पर कायम भी नहीं रहते. मंत्री भी ऐसा ही करते हैं. किसी भी घटना पर उनका फ़ैसला दरअसल बॉस का ही फ़ैसला होता है. यह एक सामान्य प्रक्रिया है. मौजूदा समय में संचार के सबसे सशक्त माध्यम सोशल मीडिया पर प्रस्तावित सेंसरशिप के फ़ैसले के पीछे अकेले कपिल सिब्बल जिम्मेवार नहीं हैं.

सामान्यतया स्वयं की भ्रांतियों से घिरी सरकार इस सोच के आधार पर खुद को दिलासा देती है कि वह कुशासन नहीं बल्कि निंदा के चलते बदनाम हो रही है. यही सरकार सेंसरशिप को अंतिम लुभावना विकल्प मानती है. सेंसरशिप के बारे में हमेशा राष्ट्रीय हित की दुहाई दी जाती है. आपातकाल के दौरान सरकार ने खबरें फ़ैलायीं कि सीआइए ने ऐसे पत्रकारों को खरीद लिया है जो सरकार के इशारे पर काम नहीं करते. अब जब सोवियत संघ के विघटन के साथ केजीबी खत्म हो गयी, तो सीआइए अब सहयोगी की भूमिका निभा रही है, लेकिन अब ऐसे भेद का सहारा लेकर आप मुद्दे से भटका नहीं सकते.

आज सेंसरशिप का बहाना सांप्रदायिक भावना को बनाया गया है, लेकिन इसके पीछे असल मकसद उन कार्टूनों को हटाना है, जो पार्टी नेताओं की ‘पवित्र छवि’ को नुकसान पहुंचा रहे हैं. यह इस बात पर जोर देने का सही मौका है कि भारतीय मीडिया ने शायद ही कभी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाया होगा. जब यूरोपीय मीडिया स्वतंत्रता के नाम पर पैगंबर मोहम्मद की अपमानजनक तसवीरें छाप रहा था, तो भारतीय मीडिया इस बात से बखूबी वाकिफ़ था कि स्वतंत्रता के नाम पर आप गैर जिम्मेदारी से काम नहीं कर सकते. दिल्ली के अस्थायी शासक अगर बुद्धिमान नहीं हैं, तो पहले के मुकाबले अधिक चालाक हो गये हैं.

वे सोचते हैं कि एक समय मीडिया का एक हाथ मरोड़ कर नायाब सेंसरशिप से बच निकल सकते हैं. इसके लिए विधायिका का सीधा हस्तक्षेप या उससे अधिक स्वीकार्य तरीका अपनाने की कोशिश की जाती है. पत्रकारों पर जांच के तंत्रों के द्वारा दबाव डालकर आलोचना को शांत करने की कोशिश होती है. मीडिया मालिक सत्ता का सर्द हाथ अपने गले पर महसूस करते है. विश्वासी होने के लिए भौतिक लाभ से लेकर सस्ते ईनाम दिये जाते हैं.

मीडिया मैनेजर और लेखक इस बात से वाकिफ़ हैं. जो इस तपिश को बर्दाश्त नहीं कर सकते वे सीधे राजनेताओं के वातानुकूलित सुविधा से युक्त मेहमानगाह में चले जाते हैं. जो लोग पत्रकारिता धर्म का सम्मान करते हैं वे इन सुविधा और असुविधाओं से प्रभावित नहीं होते. शांतिपूर्ण समय में भी मंत्रीगण पत्रकारों पर दबाव बनाने के आदी हो जाते हैं. जब समय उनके प्रतिकूल होता है, तो उनकी सोच जंग लड़ रहे लोगों जैसी हो जाती है.

विदेशी धरती पर बुरी तरह लड़ाई हारने वाले एक मात्र अमेरिकी जनरल विलियम वेस्टमोरलैंड ने अपने को सांत्वना देते हुए तर्क दिया था कि आधुनिक दौर में वियतनाम युद्ध ऐसी पहली लड़ाई थी जो बिना सेंसरशिप के लड़ी गयी थी. वाशिंगटन पोस्ट को विलियम ने कहा कि बिना सेंसरशिप के लोगों के दिमाग में भ्रम फ़ैलता है. यही बात ताकतवरों को परेशान करती है कि लोग सच्चाई से भ्रमित हो सकते हैं. वे बहस, सवाल और जबावदेही को खत्म कर देना चाहते हैं क्योंकि उनमें पद का लालच अनंत होता है. वे दूरदर्शन और आकाशवाणी की साख पहले ही खत्म कर चुके हैं.

अगर इंटरनेट की सेंसरशिप तकनीकी पहलू से अधिक कुछ नहीं है, तो यह पहले ही हो गया होता. एक लोकतांत्रिक सरकार को गद्दाफ़ी या चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की तरह मनमानी करने का अधिकार नहीं होता है. ऐसे में इसके लिए अव्यवहारिक तर्को का प्रयोग करना पड़ता है. लेकिन भारत सरकार को यह जल्द पता लग जायेगा कि इंटरनेट को आसानी से नहीं झुकाया जा सकता. सोशल मीडिया का चमत्कार लोगों की आवाज के अनूठे मिश्रण में है.

1975 में इंदिरा गांधी विरोधियों को जेल भेज सकती थीं. अखबारों की आवाज को दबा सकती थी, लेकिन वे सभी चाय दुकानों पर ताला नहीं लगा सकती थी. इतिहास में सोशल मीडिया सबसे बड़ी चाय दुकान है. ऐसे में एक महत्वपूर्ण सवाल उभरता है. सिब्बल का मास्टर कौन है? मनमोहन सिंह का नाम इसका उत्तर नहीं हो सकता. कांग्रेस अपनी पूरी ताकत यूपी चुनावों पर केंद्रित कर रही है, जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के करीब ले जा सकता है.

कांग्रेस का भविष्य सुधारने के लिए गंभीर राजनीतिक फ़ैसले लिए जा रहे हैं. अजीत सिंह के लिए कैबिनेट मंत्री बनने की कभी कोई संभावना नहीं थी, अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनावी गंठजोड़ की संभावना नहीं होती. राहुल गांधी जानते हैं कि अन्ना हजारे आंदोलन द्वारा सरकार के खिलाफ़ माहौल बनाने में सोशल मीडिया का जबरदस्त योगदान था.

हजारे ने कमजोर लोकपाल के लिए राहुल गांधी को जिम्मेदार बताया. सरकार हजारे के खिलाफ़ कुछ नहीं कर सकती. क्या सरकार हजारे के संदेश को प्रसारित करने वाले इंटरनेट को सेंसर करना चाहती है? अगर कपिल सिब्बल के विचार के पीछे यही तर्क है तो यहां कुछ बड़ी खबर है. सच को समङों. इस चाय की दुकान में दीवारें नहीं हैं.

(लेखक : ऐडटोरियल डायरेक्टर, इंडिया टुडे-हेडलाइंस टुडे)