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समझना होगा सफाई का फलसफा - गोपालकृष्‍ण गांधी

मैं हमारे प्रधानमंत्री की 'स्वच्छ भारत" योजना का हृदयज समर्थक हूं, उसका स्वागत करता हूं। पिछले 15 अगस्त के लाल किले के भाषण में उन्होंने सफाई पर जो जोर दिया, वह मुझे बहुत अच्छा लगा। पहले कभी-कभार सफाई के बारे में उच्च नेता कुछ कहते थे, लेकिन सफाई का विषय? वह एनजीओ के लायक माना जाता था, नगरपालिकाओं के स्तर का। सड़कों पर, गलियों-कूचों पर, गांव और शहरों में सफाई की बात को महत्व नहीं मिलता था बड़े नेताओं के स्तर पर। इस बार प्रधानमंत्री ने स्वयं उसको प्राथमिकता दी। यह देखकर मैं वाकई बहुत खुश हुआ।

मैं चाहता हूं कि यह योजना सफल हो, और जल्द।

कुछ आसार अच्छे दिखते हैं, इस बाबत में। गंगा नदी को कौन-कौन सी उद्योगशालाएं दूषित कर रही हैं, इसके बारे में सरकार ने आम विज्ञप्ति निकाली है। उन सबके नाम अखबारों में छपे हैं जो कि यह करतूत कर रहे हैं। मैं मोदी सरकार को और गंगा मंत्री सुश्री उमा भारती को बधाई देता हूं।

लेकिन फिर भी, अफसोस, 'स्वच्छ भारत" का वो असर नहीं दिख रहा, जिसकी मुझे आशा थी। हमारी सड़कें उतनी ही गंदी हैं जैसी हमेशा रही हैं, नाले उतने ही बदबूदार, गलीज। इसमें गलती किन-किनकी है?

क्यों हमारे प्रधानमंत्री इस योजना में साफ तरक्की नहीं दिखा पाए हैं? वजह, मेरी समझ में ये है कि नेताओं को हमसे यह साफ-साफ कहने में झिझक होती है कि उस मैल को, उस गंदगी को आम जनता बना रही है, हम ही फैला रहे हैं। हमारी आदतें इतनी बदतर हैं कि यह समस्या बढ़ती जा रही है। कूड़ा-कचरा इधर-उधर फेंकना, पीक थूकना, कोने-कोने में पेशाब करना भारतीय पुरुष की निशानी है।

हम खुद स्वच्छ रहें, दिन में एक बार नहीं दो-दो बार नहाएं,अपने घर को बराबर साफ करवाएं, लेकिन घर के बाहर, हम अपना बनाया हुआ कचरा फेंकेंगे। बड़ी-बड़ी गाड़ियों में फिरते हुए रईस खिड़कियों को खोलकर कचरे को, प्लास्टिक रैपरों को, पानी की बोतलों को बाहर फेंकते दिखते हैं। बसों और ऑटो में जाने वाले मध्यवर्गीय लोग भी यही करते हैं। गंदगी फैलाने में हम एक हैं। हम में पूरी एकता है, कोई ऊंच-नीच नहीं, सब बराबर! सब एक से एक गुनहगार।

ऐसा नहीं है कि हमें मालूम नहीं कि हम जो कर रहे हैं सो गलत है। जानते हैं, लेकिन परवाह नहीं करते। सड़क हमारी थोड़े ही है? सबकी है। मैं क्यों उसे साफ रखने की कोशिश करूं? मैं बेवकूफ नहीं! सफाई करने वाला आज नहीं तो कल या कभी और, कूड़े को निकाल देगा। और ना भी निकाले तो फर्क क्या?

हमें रोकने-टोकने वाला कोई नहीं।

गंदगी का शिल्पी आज बिलकुल आजाद है। हम और आप, गंदगी के निर्माता, आजाद हैं, बिना किसी डर के, अपना प्रिय-निर्माण करते चल सकते हैं।

और इस आजादी के पीछे एक तत्व भी है। स्वच्छ भारत का आह्वान लोग उस गंभीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि वे-हम सोचते हैं कि यह 'बस, साहब एक और सरकारी तमाशा है...।" यह बहुत अफसोस की बात है। इस योजना को सफल बनाना है।

दिक्कतों में एक बड़ी, अहम दिक्कत यह है कि 'स्वच्छता" शब्द जो है, संस्कृत से लिया हुआ है। उसको कहते लगता है कि किसी श्लोक की शुरुआत हो रही है, किसी पूजा का आयोजन। उसमें मुहूर्त की, यज्ञ की झलक है मानो वह हम पर गंगाजल छिड़केगा, हमें 'पवित्र" बनाएगा, यज्ञादि करने-कराने के योग्य।

'स्वच्छ" में 'होम" का गांभीर्य है, उसमें 'ओम्" की गूंज है। संगमरमरी मंदिर का स्पर्श है उसमें, गंगाजली के ताम्र-कलश की शोभा, चंदन के लेप की सुगंध, धूप-बत्ती की सुरभि। 'स्वच्छ" मात्र शब्द नहीं, शंखनाद है, हंसध्वनि है, महोच्चार है। वह शब्द स्नात है, पानी से नहीं, जल से, गोमुखी जल से स्नात। ऐसे-वैसों जैसा धुला हुआ नहीं, स्नान किए हुए है, फिर सुगंधित भस्म से लेपित, चंदन-चर्चित।

'स्वच्छ भारत" का जब सुना, खयाल आया : इस नाम में वो है जो अंबर में उड़ान भर सकता है। लेकिन उसमें क्या वो भी है जो धरती में उतर सकता है? क्या वह हिंदुस्तान की जमीन को बा-साफ बना सकता है? 'साफ" और 'स्वच्छ" एक ही हैं या अलग? 'साफ" में क्या कोई कमी है? कोई कसर, कमजोरी? 'साफ हिंदुस्तान" और 'स्वच्छ भारत" में क्या कोई फर्क है?

अव्वल, सफाई जो है वह एक कन्या है, एक लड़की, महिला। स्वच्छ जो है वह मर्द है, पुरुष है। वह बोलता नहीं हुंकारता है। सफाई होती है, स्वच्छ होता है। यह चप्पल, मैला जो है, साफ करना पड़ेगा...सही लगता है। 'इस चप्पल को स्वच्छ करना है" से वह बात ठीक बैठती नहीं। कमरे, गली, कूचे से भी वैसा ही।

सफाई जो है, वास्तव से जुड़ी है, यथार्थ से, व्यवहार से। वह आसमान से नहीं, जमीन से मिली है। उसका घर मंदिर नहीं, मस्जिद नहीं, ना ही गिरजाघर, गुरुद्वारा। उसका घर है मैला नुक्कड़, गंदा नाला, भिखमंगे का कोना, मजदूर की खोली। सफाई इनको साफ करती है, साफ रखती है।

सफाई कहती कम, करती ज्यादह है। उसको फुर्सत ही कहां सोचने, लंबी-बात कहने को? या किसी पूजा, होम या यज्ञ में बैठने को? सफाई कर्म की बेटी है, धर्म की नहीं।

सफाई के हाथ में झाड़ू है, स्वच्छता के हाथ में जपमाला। सफाई के हाथ में गर्द हो सकती है, उसके सीने में सर्द। लेकिन दिल उसका, इरादा उसका साफ है, क्यूंकि कर्म उसका साफ है। सफाई का दूसरा नाम है मेहनत, कड़ी मेहनत। स्वच्छ का, मंत्र। स्वच्छ में शुद्ध की ध्वनि है। स्वच्छ मैल को मैला नहीं, उसको अशुद्ध, अपवित्र मानता है। शुद्ध-अशुद्ध की बात जो है, वह एक बड़ी बात है। छुआ-छूत जन्मा है उससे। जात-पात चिपटी है उसमें। सफाई खुद करती है काम, स्वच्छ काम करवाता है। सफाई बेसाफ हो जाती है, बे-साफ को साफ करते-करते। स्वच्छ स्वच्छ होता है हर पल, स्वच्छ उच्च होता है हर क्षण।

'स्वच्छ भारत" एक मंत्र है, मंत्र क्यों - महामंत्र! मंत्रमुग्ध होना सहज है, मैल-मुक्त होना दुर्लभ। बात लेकिन शब्दों की नहीं। बात है हकीकत की। कुछ ठोस कदम उठाने होंगे। जैसे : सफाई कर्मचारियों के वेतनों में भारी वृद्धि लानी होगी, जो कि उनके कार्य-कौशल और वफादारी से सीधा ताल्लुक रखती हो। अगर सफाई कर्मचारी (सरकारी या 'आउटसोर्स्ड") सही काम करते हैं, तो उनको क्लर्कों से भी ज्यादह वेतन मिलना चाहिए, कम नहीं।

और फिर सफाई योजना की दिशा बदलनी होगी। क्या कूड़ा नगरों के बाहर, गांव की दहलीज में धकेल दिया जाए? वहां पहाड़ बनकर सड़ता रहे, बीमारी फैलाता रहे? कोई तकनीकी आविष्कार लाना होगा जो कि कूड़े-कचरे का रद्दोबदल करे, उसको गंदगी से बाहर किसी और पदार्थ में परिवर्तित करे। जब तक हम 'अस्वच्छ" चीज को सिर्फ अपनी आंखों से दूर करते रहेंगे, यह ना सोचकर कि वही गंदगी किसी और के लिए खतरा बन रही है, तब तक बेसाफ, अ-स्वच्छ रहेंगे।

प्लास्टिक के क्रय-विक्रय पर ही नहीं प्लास्टिक के उद्योग पर, प्लास्टिक के निर्माण पर सख्त नियंत्रण लगाना होगा। प्लास्टिक की लॉबी, तंबाकू की लॉबी से कम ताकतवर नहीं। वह हजारों सरकारों को निगल सकती है। मैं नहीं मानता कि मोदी सरकार के साथ वह यह आसानी से कर सकेगी। स्वच्छ भारत का नामकरण हो गया है। अब उसका कामकरण होना चाहिए। स्वच्छ में सुगंध नहीं, सफाई लानी होगी। उसको मंत्र से मेहनत में परिणत करना होगा।

(लेखक पूर्व राज्यपाल, उच्चायुक्त हैं और संप्रति अशोका यूनिवर्सिटी में इतिहास व राजनीति शास्त्र के विशिष्ट प्राध्यापक हैं। ये उनके निजी विचार हैं