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समाज सुधार से टकराती राजनीति-- नीरजा चौधरी

नए साल की इससे अच्छी शुरुआत नहीं हो सकती थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद बीते तीन महीनों में 10 से 50 वर्ष की महिलाएं केरल के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश नहीं कर पाई थीं। जिन महिलाओं ने मंदिर में घुसने की कोशिशें कीं, उन्हें जबरन रोक दिया गया था। मगर बुधवार को अहले सुबह इस उम्र की दो महिला श्रद्धालु भगवान अयप्पा की पूजा करने में सफल रहीं और सैकड़ों वर्ष पुरानी उस परंपरा को तोड़ दिया, जिसे नारी-विरोधी कहना ज्यादा उचित होगा।

इस सुबह का इंतजार लंबे अरसे से था। हालांकि इसे विडंबना ही कहेंगे कि अयप्पा मंदिर में हर उम्र की महिलाओं के प्रवेश का विरोध खुद महिलाएं भी कर रही थीं। वे आज भी अपने तर्कों पर अड़ी हैं। उनका मानना है कि चूंकि भगवान अयप्पा ब्रह्मचारी हैं, इसलिए रजस्वला औरतों का उनके सामने जाना गलत है। बुधवार की ‘घटना' से उनकी आस्था को चोट पहुंची है। पर क्या उनके इस विरोध से धार्मिक स्वतंत्रता के उस अधिकार का हनन नहीं हो रहा, जो हमारे संविधान ने देश के नागरिकों को दिया है? सवाल यह भी कि शीर्ष अदालत के आदेश को न मानकर उसकी अवमानना का हक इन महिलाओं को भला किसने दिया? असल में, यह हमारे देश की नियति है कि जब कभी रूढ़ीवादी परंपराओं को बदलने की कोशिशें हुईं, विरोध के तेज स्वर उभरे। सती प्रथा के अंत के समय भी लोगों ने बदलाव का मुखर विरोध किया था। परंपरा की दुहाई देकर यदि हम सकारात्मक कामों का विरोध करेंगे, तो फिर समाज में किसी तरह का कोई सुधार नहीं आ सकता।

यह पूरा मसला अब सिर्फ सबरीमाला मंदिर में प्रवेश का नहीं रह गया है, बल्कि यह अब एक राजनीतिक लड़ाई की शक्ल ले चुका है। जब सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मंदिर के दरवाजे हर उम्र की औरतों के लिए खोले थे, तब विरोध-प्रदर्शनों में भाजपा और कांग्रेस, दोनों पार्टियां अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रही थीं। मगर मंगलवार को जब 30 लाख से अधिक महिलाओं ने 602 किलोमीटर लंबी मानव शृंखला बनाई, तो उसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी-माक्र्सवादी (माकपा) ने पूरा समर्थन दिया। 2019 चुनावी वर्ष है, इसीलिए आने वाले दिनों में केरल सियासी जंग का एक बड़ा अखाड़ा बनने जा रहा है। इस मुद्दे को लेकर पक्ष और विपक्ष, दोनों तरफ से जमकर आरोप-प्रत्यारोप होंगे। एक-दूसरे को निशाना बनाने का कोई मौका शायद ही गंवाया जाएगा।

इस पूरे विवाद का एक सामाजिक पक्ष भी है। यह घटनाक्रम बताता है कि कितनी तेजी से बदलाव हो रहे हैं। महिलाओं की उम्मीदें लगातार परवान चढ़ रही हैं। ‘टीनएज गल्र्स रिपोर्ट' भी इसकी तस्दीक करती है, जिसे नन्ही कली नामक एनजीओ ने 75,000 लड़कियों से बात करके तैयार की है। इस रिपोर्ट में देश के तमाम राज्यों की लड़कियों से उनकी अपेक्षा जानने का प्रयास किया गया है। इसमें से ज्यादातर लड़कियों का जवाब था कि वे 21 साल से पहले शादी नहीं करना चाहतीं। वे पढ़ाई पूरी करके नौकरी करना चाहती हैं। अंग्रेजी और कंप्यूटर भी वे सीखना चाहती हैं। यानी अपने हित में लड़कियों की उम्मीदें एक अलग मुकाम पर हैं। मगर दुर्भाग्य से राजनीतिक दल इसे देख नहीं पा रहे। अब तक यह भी नहीं सोचा गया है कि सामाजिक बदलाव लाने में आधी आबादी का किस कदर इस्तेमाल किया जा सकता है? जबकि महिलाएं यदि एकजुट हो जाएं, तो सत्ता का खेल पूरी तरह बदल सकती हैं। कुछ वर्ष पूर्व आंध्र प्रदेश और हरियाणा में हमने देखा ही है कि नशाखोरी के विरुद्ध औरतों की एकजुटता ने किस तरह सरकार बनाने में मदद की। हाल के छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस की जीत की एक बड़ी वजह वहां की महिलाओं का शराब और नशा का मुखर विरोध करना था। गौर कीजिए, आने वाले दिनों में महिलाएं अपने हित में कहीं ज्यादा मुखर होंगी, इसीलिए मैं यह सदी महिलाओं, खासकर नई उम्र की औरतों की मानती हूं।

अब जब 10 से 50 आयु-वर्ग की दो महिलाएं अयप्पा मंदिर में प्रवेश कर चुकी हैं, तो जरूरी यह है कि यह घटना सांकेतिक बनकर न रह जाए। ऐसा नहीं होना चाहिए कि आज के बाद फिर महिलाओं को तमाम सुरक्षा के साथ मंदिर की ओर बढ़ना पड़े; उन्हें यह डर सताता रहे कि उनके साथ अभद्रता की जा सकती है या फिर उन पर हमला बोला सकता है। फिलहाल मंदिर में महिलाओं की अबाध आवाजाही मुश्किल लग रही है। बुधवार को ही उन दोनों महिलाओं के लौटने के बाद मंदिर को ‘शुद्ध' किया गया। जब तक समाज के रवैये में बदलाव नहीं आएगा, तब तक हर उम्र की महिलाएं बेरोक-टोक भगवान अयप्पा के दर पर शायद ही जा पाएंगी। सच यह भी है कि सबरीमाला विवाद इतनी तेजी से नहीं भड़कता, यदि इसमें राजनीति शामिल नहीं होती। बेशक आस्था की एक अदृश्य बेड़ी होती है, लेकिन हमारे सियासी दलों ने इस जंजीर को मजबूत बना दिया है। विवाद का आज जैसा रूप कतई नहीं होता, यदि सियासी फायदे को देखते हुए महिलाओं को सामने रखकर अदालती आदेश का विरोध नहीं किया जाता।

सबरीमाला विवाद का सबक यही है कि हमें इस तरह के राजनीतिक टकराव से बचना चाहिए, क्योंकि इससे सामाजिक सुधार की असली कोशिशें बेअसर हो जाती हैं। यह अब केरल की संजीदा जनता को तय करना है कि वह यहां से किधर बढ़ना चाहती है? वहां जाहिर तौर पर आने वाले दिनों में ‘काउंटर मोबलाइजेशन' का प्रयास होगा। भगवान अयप्पा को ‘शुद्ध रखने' के तमाम तिकड़म किए जाएंगे। सियासी दलों की तरफ से तीखी प्रतिक्रियाएं आएंगी। पर क्या इन सबसे आम अवाम को कुछ फायदा होगा? अदालती आदेश का विरोध करने वालों को यही समझना है। समझना यह भी है कि ईश्वर कभी अशुद्ध नहीं होते। यह तो हम इंसानों की फितरत है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)