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सरकार और अदालत के दायरे - जगदीप धनकड़

यदि हाल के दिनों में मीडिया में आई खबरों और रिपोर्टों की मानें तो कहा जा सकता है कि न्यायिक सक्रियता अपने चरम पर है। मीडिया में अकसर इस आशय की खबरें छपती हैं कि अदालत ने फलां मामले में सरकार को आड़े हाथों लिया है या उसे लताड़ लगाई है। कई मामलों में तो अदालत ने विपक्षी दलों से भी ज्यादा सरकार की मुखालफत की है। कभी-कभी ऐसा भी लगने लगता है कि न्यायपालिका ने कार्यपालिका की बागडोर अपने हाथों में थाम रखी है। न्यायिक सक्रियता के बढ़ने का एक कारण यह हो सकता है कि पिछले दो दशक से भी अधिक समय से केंद्र में गठबंधन सरकारों का राज था। इसी कारण एक अक्षम व निष्प्रभावी कार्य-संस्कृति विकसित हुई, जिससे लोगों में निराशा पनपी। लेकिन अब जब देशवासियों ने भारी बहुमत से मोदी सरकार को विजयी बनाया है तो न्यायपालिका के रुख में भी बदलाव आना चाहिए, ताकि एक प्रभावी और भरोसेमंद प्रशासन मुहैया कराया जा सके।

न्यायिक सक्रियता का आशय यह है कि न्यायपालिका उन मामलों में भी दखल देने लगे, जिनमें वह परंपरागत रूप से हस्तक्षेप नहीं करती थी। वर्ष 1977 में आपातकाल समाप्त होने के बाद न्यायिक सक्रियता में इजाफा देखा गया था। 1980 के दशक से पहले तक केवल असंतुष्ट पक्ष निजी तौर पर अदालत का दरवाजा खटखटाता था। कोई अन्य व्यक्ति, जो इससे व्यक्तिगत रूप से प्रभावित नहीं था, असंतुष्ट पक्ष के प्रतिनिधि के रूप में ऐसा नहीं कर सकता था। 1980 के दशक के प्रारंभ में तब इतिहास रचा गया, जब सर्वोच्च अदालत ने एक पोस्टकार्ड को पत्र-याचिका मानते हुए उस पर कार्रवाई की। वह एक लंबी यात्रा की शुरुआत थी।

विधायिका की सुस्ती और कार्यपालिका की अक्षमता की भरपाई करने के लिए न्यायपालिका द्वारा अपनी सक्रियता बढ़ाने की सर्वत्र सराहना ही की गई थी। पिछले तीन दशक से भी अधिक समय से देश देख रहा है कि सर्वोच्च अदालत द्वारा किस तरह से लगातार आदेश और निर्देश जारी करते हुए लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के बीच संतुलन की स्थिति निर्मित की जा रही है। देशवासियों ने भी इसका स्वागत ही किया है। इसके कारण भी स्पष्ट ही हैं। लचर प्रशासन, सर्वव्यापी भ्रष्टाचार और अपराधों के चलते यह भावना निर्मित हो गई थी, जैसे देश का कामकाज संभालने वाला ही कोई नहीं है। ऐसे में न्यायिक सक्रियता का महत्व यह रहा है कि उसने लोगों में न्यायपालिका के प्रति भरोसा पैदा किया है और उन्हें यकीन दिलाया है कि न्याय आमजन की पहुंच से दूर नहीं है।

पिछले दशकों में अदालत ने विभिन्न् जनहित याचिकाओं पर अनेक निर्देश प्रदान किए हैं, जिनमें सड़क सुरक्षा, प्रदूषण, वीआईपी जोन में अवैध निर्माण से लेकर बंदरों और कुत्तों का आतंक जैसे मसले भी शामिल थे। वर्ष 1997 में विशाखा बनाम राजस्थान सरकार के मामले में एक ऐतिहासिक आदेश देते हुए सर्वोच्च अदालत ने कार्यस्थलों पर महिलाओं के यौन शोषण को उनके लैंगिक समानता और जीवन व स्वतंत्रता के अधिकार के उल्लंघन के समान मानते हुए मानो एक नए कानून की ही घोषणा कर दी। तब तक महिलाओं के अधिकारों में अतिक्रमण करने वाली इस बुराई के खिलाफ कोई कानून नहीं था। सर्वोच्च अदालत ने विभिन्न अंतरराष्ट्रीय नियमों का हवाला देते हुए हमारे यहां ऐसे किसी प्रावधान के अभाव को रेखांकित किया। उसके निर्देशों में यौन प्रताड़ना की परिभाषा, उसके निवारक उपाय, अनुशासनात्मक और आपराधिक कार्यवाहियों आदि का ब्योरा था।

अदालत ने एक समिति बनाते हुए शिकायत की एक प्रणाली भी विकसित की। उसने जोर देते हुए कहा कि जब तक इस संबंध में एक उचित कानून नहीं बना लिया जाता, जब तक उसके निर्देश ही प्रभावी और लागू किए जाने योग्य होंगे। अदालत का यह फैसला तदर्थ न्यायिक विधान का एक उत्तम उदाहरण था। इसी तरह वायु प्रदूषण के मद्देनजर दिल्ली के नागरिकों की सेहत को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च अदालत का यह निर्णय भी सराहनीय था कि सभी सार्वजनिक वाहनों में सीएनजी का उपयोग किया जाए। पर्यावरण पर होने वाले प्रहारों का सामना करने के लिए सर्वोच्च अदालत द्वारा समय-समय पर जताई गई चिंताएं भी विस्तार से प्रकाशित हुई हैं। वन-संपदा के संरक्षण के लिए न्यायपालिका लगातार आवाज उठाती रही है और उसी ने यह सिद्धांत भी रचा कि प्रदूषण का खामियाजा प्रदूषणकर्ता को ही भुगतना चाहिए।

बहरहाल, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ अवसरों पर अदालतों ने अपनी सीमा लांघी है, लेकिन कुल-मिलाकर न्यायिक सक्रियता से देश का भला ही हुआ है और लोगों द्वारा इसकी सराहना की गई है। हाल के दिनों में जरूर सर्वोच्च अदालत का कार्यपालिका में हस्तक्षेप बढ़ा है, हालांकि संविधान निर्माताओं ने लोकतंत्र के तीनों अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अलग-अलग कार्यक्षेत्रों का सुस्पष्ट विभाजन किया था। हर अंग से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने अधिकार-क्षेत्र में काम करेगा और दूसरे के अधिकार-क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करेगा। यही कारण है कि लोकतंत्र के हित में इस बात का मुआयना करना बहुत जरूरी है कि न्यायिक सक्रियता की सरगर्मी कहीं विधायिका और कार्यपालिका के लिए संवैधानिक रूप से तय की गई सीमाओं को न लांघ जाए। यह लोकतंत्र के लिए उचित नहीं होगा। आखिर न्यायाधीश कानून-निर्माता नहीं हो सकते। उनके पास न तो इसके लिए जनादेश होता है और न ही समाज के विभिन्न् वर्गों की जरूरतों के लिए जरूरी अंतर्दृष्टि। सरकारी तंत्र का संचालन न्यायाधीशों द्वारा नहीं किया जा सकता। न्यायाधीशों द्वारा लोकप्रियतावादी विचार व्यक्त किए जाने से न केवल उनके पद का अवमूल्यन होता है, बल्कि इससे सांस्थानिक संतुलन भी गड़बड़ाता है।

यही कारण है कि जहां ज्यूडिशियल एक्टिविज्म स्वागतयोग्य और सराहनीय है, वहीं ज्यूडिशियल एडवेंचरिज्म या शोमैनशिप की सराहना नहीं की जा सकती। न्यायिक सक्रियता का यह मतलब भी नहीं होता कि जो कानून न्यायाधीशों की निजी अभिरुचि के प्रतिकूल हों, उस पर वे प्रहार करें। इसका यह मतलब भी नहीं होता कि वे ऐसे क्षेत्रों में साहसपूर्ण हस्तक्षेप करें, जिनके लिए वांछित विशेषज्ञता उनके पास नहीं है। एक ऐसे समय में, जब न्यायिक प्रशासन के क्षेत्र में ही बहुत कुछ किया जाना शेष है, न्यायपालिका को आत्ममंथन करते हुए संयम का परिचय देना चाहिए।

(लेखक सर्वोच्च अदालत में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। ये उनके निजी विचार हैं)