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सरकार द्वारा कम खर्च के चलते बढ़ रहा है जोखिम, एक साल में डेढ़ गुना हुए टीबी मरीज

टीबी से मरते लोग
भारत समेत दुनिया में तपेदिक (टीबी) से होनेवाली मौतों में लगातार कमी आ रही है, लेकिन हमारे देश में इस बीमारी के शिकार लोगों की संख्या बढ़ रही है. वर्ष 2015 में एक साल पहले की तुलना में टीबी के 50 फीसदी अधिक मामले सामने आये थे. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा इसी हफ्ते जारी ‘ग्लोबल टीबी रिपोर्ट' से संकेत मिलता है कि टीबी की रोकथाम के लिए विभिन्न सरकारों द्वारा किये गये प्रयासों के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले हैं.

दुनिया के स्तर पर देखें, तो टीबी उन्मूलन के लिए इस वर्ष वांछित 8.3 बिलियन डॉलर की राशि से करीब दो बिलियन डॉलर कम धन उपलब्ध हुआ. यह अंतराल 2020 तक बढ़ कर छह बिलियन डॉलर तक पहुंच सकता है. दुनिया के 150 देशों में आम तौर पर स्वास्थ्य पर होनेवाला खर्च विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तय सकल घरेलू उत्पादन के छह फीसदी के स्तर से नीचे है.

इनमें भारत भी शामिल है. जाहिर है कि कम खर्च से बीमारियों से निपटने में अधिक मुश्किलें आती हैं. उम्मीद है कि तपेदिक के इस रिपोर्ट पर सरकारें गंभीरता से विचार करेंगी और समुचित कदम उठायेंगी. जानते हैं ग्लोबल टीबी रिपोर्ट के प्रमुख तथ्यों और इस बीमारी के जोखिम से जुड़े जरूरी पहलुओं के बारे में ...

संक्रामक बीमारियों के प्रति लोगों में बढ़ी जागरूकता को देखते हुए भारत समेत कई विकासशील देशों में टीबी की बीमारी के जोखिम और उसकी भयावहता को शायद नजरअंदाज किया गया, जिस कारण वर्ष 2015 में उसके पिछले वर्ष के मुकाबले भारत में लगभग डेढ़ गुना मरीज पाये गये. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस हफ्ते जारी ‘ग्लोबल टीबी रिपोर्ट' में इस बीमारी के जोखिम की अनदेखी और भयावहता का जिक्र किया है.

नहीं मिल रही टीबी के मरीजों की सटीक संख्या

भारत समेत ज्यादातर विकासशील देशों में लोग यह सोचते हैं कि टीबी की बीमारी अब अतीत का हिस्सा बन चुकी है. जागरूकता के अभाव और वित्त में कमी के साथ राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव भी इस बीमारी से मजबूती से लड़ने में बाधा बन रही है. यही कारण है कि वर्ष 2014 के मुकाबले 2015 में भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में इसका कहर बढ़ गया है. विशेषज्ञों का कहना है कि सबसे पहले हमें टीबी नियंत्रण की राह में आनेवाली चुनौतियों को समझना होगा, जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं

टीबी के मामले गिनना मुश्किल

टीबी की भयावहता वाले अनेक देशों ने यह महसूस किया है कि पहले के उनके अनुमानित आंकड़े वास्तविक स्तर से काफी कम थे. उदाहरण के तौर पर, विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा भारत के अनुमानित 28 लाख टीबी के मामलों में से आधे मामले भी सरकारी स्वास्थ्य एजेंसियों तक दर्ज नहीं हो पाये. हालांकि, वर्ष 2000 के बाद से भारत में स्वास्थ्य प्राधिकरणों ने कई नये तरीके अपनाये हैं, लेकिन फिर भी अनेक मामले दर्ज नहीं हो पाते हैं. गुजरात में इसके लिए व्यापक पैमाने पर सर्वेक्षण किया गया. टीबी के इलाज की दवाओं की बिक्री का अध्ययन किया गया और डॉक्टरों के लिए नियम बनाये गये कि वे राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरणों के तहत टीबी के मामलों को दर्ज करें.

बीमारी का गरीबी से है जुड़ाव

ज्यादा सघन आबादी के बीच टीबी आसानी से फैलता है और कुपोषण के कारण इसकी भयावहता बढ़ जाती है. इसका इलाज ज्यादा महंगा नहीं है, लेकिन इसे लंबे समय तक जारी रखना होता है, लिहाजा अधिकतर लोग ऐसा नहीं कर पाते. चूंकि इलाज के दौरान मरीज काम करने की हालत में नहीं होता, इसलिए उसकी आर्थिक आमदनी बहुत कम हो जाती है और इलाज पर इसका असर पड़ता है.

नये तरीकों का कम इस्तेमाल

पिछले 40 वर्षों के दौरान वर्ष 2012 में ‘एफडीए' ने टीबी की नयी दवा ‘बेडाक्विलिन' को मंजूरी दी थी. दूसरी ओर यूरोपियन यूनियन ने ‘डेलामेनिड' को मंजूरी दी. परीक्षण के दौरान दोनों ही दवाएं बेहद कारगर पायी गयीं. हालांकि, बेडाक्विलिन का इस्तेमाल 70 देशों ने किया, लेकिन इसका नियमित इस्तेमाल महज छह देश (फ्रांस, दक्षिण अफ्रीका, जॉर्जिया, आर्मेनिया, बेलारूस और स्वाजीलैंड) ही करते हैं.
इन्हें भी जानें

क्या है टीबी?

टीबी (ट्यूबरकुलोसिस) यानी क्षय रोग माइकोबैक्टेरियम ट्यूबरकुलोसिस बैक्टीरिया द्वारा होता है, जो अक्सर इनसान के फेफड़े को अपनी चपेट में लेता है. टीबी का इलाज मुमकिन है और इससे पूरी तरह बचा जा सकता है.

कैसे फैलता है?

टीबी हवा के जरिये एक आदमी से दूसरे आदमी तक फैलता है. फेफड़े की टीबी का मरीज जब खांसता या छींकता है या फिर थूकता है, तो इससे टीबी के जर्म्स हवा में फैल जाते हैं. किसी दूसरे इनसान के शरीर में सांस के जरिये जब वह हवा उसके भीतर जाती है, तो उसके भी इसकी चपेट में आने का जोखिम पैदा होता है.

दुनियाभर में करीब एक-तिहाई लोगों में टीबी सुप्तावस्था में है. यानी ये लोग टीबी बैक्टीरिया से संक्रमित हो चुके हैं, लेकिन ये इस बीमारी की चपेट में नहीं हैं और दूसरों तक इसे फैला नहीं सकते हैं.

आरंभिक स्टेज में इलाज से नियंत्रित होगी टीबी

विकासशील देशों में आम तौर पर ज्यादातर लोग टीबी की बीमारी से पूरी तरह ग्रसित होने के बाद ही इसका इलाज कराते हैं. लेकिन, आरंभिक अवस्था में इसका इलाज किया जाये, तो यह ज्यादा कारगर साबित होगा. हार्वर्ड मेडिकल स्कूल के संबंधित विशेषज्ञ डॉक्टर सलमान केशवजी के हवाले से ‘एनपीआर डॉट ओआरजी' की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इसके उच्च जोखिम वाले देशों में भी आरंभिक अवस्था में इसकी जांच पर जोर नहीं दिया जाता है, जबकि ऐसा करके ज्यादा-से-ज्यादा लोगों को बचाया जा सकता है.

सरकारी कार्यक्रमों से केवल 39 फीसदी मरीजों का इलाज

भारत में वर्ष 2013 में 27 लाख टीबी के मरीजों में से अनुमानित रूप से करीब 10.05 लाख लोगों यानी 39 फीसदी का ही सरकारी टीबी कार्यक्रम के तहत पूरा इलाज हुआ और एक साल के दौरान इनमें इस बीमारी के दोबारा लौटने के लक्षण नहीं पाये गये.

एक प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय मेडिकल पत्रिका ‘प्लोस मेडिसिन' के मुताबिक, भारत में ‘मिसिंग' टीबी के मरीजों की समस्या ज्यादा है और नीति निर्माताओं को इस ओर ध्यान देना चाहिए. रिपोर्ट में ‘मिसिंग' टीबी के मरीजों का आंकड़ा 10 लाख तक होने का अनुमान लगाया गया है, जिनकी पहचान भारत सरकार के ‘रिवाइज्ड नेशनल टीबी कंट्रोल प्रोग्राम' के तहत नहीं हो पायी है.