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सरकार बनाम सिविल सोसायटी- कुलदीप नैयर

भारत में सिविल सोसाइटी सरकार को एक गतिशील जन लोकपाल विधेयक को स्वीकार कराने में सफल नहीं हो सकी। फिर भी इस गतिविधि के मुख्य केंद्र गांधीवादी अन्ना हजारे ने आंदोलन तथा अनशन की जो चेतावनी दी है, उसने सरकार के मन में परमात्मा का भय तो बैठा ही दिया। उसने अपने परिवेश की स्वच्छता की दिशा में शुरुआत कर दी है। दो दूरसंचार मंत्रिमंडल से त्यागपत्र देने को बाध्य किए गए और उनमें से एक कारागार में है। राष्ट्रमंडल खेल प्रमुख सुरेश कलमाड़ी भी वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में जेल में है। सत्तारूढ़ कांग्रेस ने जब यह अनुभव किया कि भ्रष्टाचार की आग उसकी ओर भी आ रही है तो उसने गठबंधन धर्म का बहाना नहीं किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने मंत्रिमंडल में जो फेरबदल किए वह दर्शाता है कि राष्ट्र में भ्रष्टाचार के विरुद्ध उपजे आक्रोश के प्रति वह सजग हैं। उन्होंने अपनी मंत्रिपरिषद में जिन आठ मंत्रियों को शामिल किया, उनके दामन पर कोई दाग नहीं है और जिन सात की छुट्टी की गई है, उनकी खास साख नही थी। रेल राज्यमंत्री को बदलना भी आवश्यक था, क्योंकि वह रेल दुर्घटनास्थल पर उनकेआदेश के बावजूद नहीं गए। सीबीआइ ने भी साहस दिखाना शुरू कर दिया है। मुझे इस बारे में कोई संदेह नही है प्रधानमंत्री के इशारे पर ही ऐसा हुआ होगा। सीबीआइ ने द्रमुक मंत्रियों और विशेषत: द्रमुक अध्यक्ष के. करुणानिधि की पुत्री कनीमोरी (अब कारागार में हैं) के विरुद्ध जो कार्रवाई की गई है निस्संदेह वह सरकार की अनुमति के बिना नहीं की जा सकती थी। यह घटनाक्रम स्वागतयोग्य है, क्योंकि सीबीआइ को कांग्रेस ब्यूरो ऑफ इनवेस्टीगेशन की संज्ञा दी जाने लगी थी, किंतु सरकार के विरुद्ध अविश्वास के माहौल में न्यायपालिका की अति सक्रियता एक मिश्रित वरदान ही है। सर्वोच्च न्यायालय भ्रष्टाचार पर अत्यंत सजग है, जो एक शुभ संकेत ही है। न्यायालय ने केसों की निगरानी के लिए दो अवकाश प्राप्त न्यायाधीशों की जो समिति नियुक्त की है उसे सराहा गया है। कुछ शीर्ष भारतीय राजनीतिज्ञों और नौकरशाहों द्वारा विदेशों में जमा किए कालाधन को वापस लाने के लिए जो प्रयास हुए हंै उस पर अब न्यायालय की गहन दृष्टि रहेगी। यह धनराशि अनुमानत: 45 लाख करोड़ रुपये की है। इन केसों की प्रगति पर प्रत्यक्ष नजर (मॉनीटरिंग) की व्यवस्था कर सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच जो जटिल संतुलन है, उसे लड़खड़ा दिया है। दोनों ही लोकतांत्रिक ढांचे का अविभाज्य भाग हैं। यदि न्यायपालिका की कार्यपालिका के क्षेत्र में पैठ है और उसे लेकर संसद में तीव्र रोष की अभिव्यक्ति होती है तो उसके लिए न्यायाधीशों को स्वयं को ही दोष देना होगा। उन्हें यह अनुभूति होनी चाहिए कि जिस लक्ष्मण रेखा का दशकों से सम्मान किया जाता रहा है, उसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता? ऐसा होता है तो टकराव हो सकता है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है। कार्यपालिका के पीछे निर्वाचित प्रतिनिधियों का बहुमत है, लेकिन मैं जन लोकपाल विधेयक के भविष्य को लेकर चिंतित हूं। जिसे लेकर भ्रष्टाचार के मसले पर बहस का प्रारंभ हुआ है। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि विधेयक को सरकार का समर्थन नहीं मिला। हो सकता है कि विधेयक में बहुत कुछ की मांग की गई हो। सरकार अपनी ओर से एक विधेयक प्रस्तावित कर रही है जो पहले से बेहतर प्रतीत होती है। मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी उसके एक पक्ष के समर्थन में दिख रही है। यह पक्ष है कि न्यायपालिका को नहीं छुआ जाए। सिविल सोसाइटी न्यायपालिका को भी लोकपाल के तहत चाहती है, किंतु प्रस्तावित न्यायिक आयोग से उसकी मांग की पूर्ति हो सकती है। इस तरह एक बार न्यायिक आयोग से उसकी मांग की जाने के बाद मतभेदों को पाटा जा सकता है। नए विधि मंत्री सलमान खुर्शीद ने घोषणा की है कि न्यायिक जवाबदेही पर विधेयक संसद के आगामी अधिवेशन में (जो एक अगस्त से प्रारंभ हो रहा है) लाया जाएगा। हालांकि यह जानकारी नहीं है कि सिविल सोसाइटी इसकी कितनी अवहेलना करेगी। फिर भी मेरा अनुभव यही है कि नागरिक समाज में लंबे अरसे तक बैठे रहने की क्षमता नहीं है। अनशन शुरू किए जाने से पहले सुलह-सफाई के सभी अवसरों को खोजा जाना ही बेहतर होगा। सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिविल सोसाइटी का एकजुट रहना है। देश के लिए कैसा लोकपाल होना चाहिए, इसे लेकर कुछ मतभेद हैं? एक्टिविस्ट भी एकमत नही हैं। यह बात तो समझ में आने वाली ही है कि उन्हें आलोचना सार्वजनिक तौर पर नहीं करनी चाहिए, किंतु इससे भी तो आंदोलन के संचालन पर गंभीर मतभेद कम नहीं होने वाले। जो लोग नागरिक समाज की ओर से सरकार के साथ बातचीत करते हैं, उन्हें अपने भीतर के जो आलोचक हैं, उन तक भी पहुंचना चाहिए। उन्हें यह अनुभूति होनी चाहिए कि यदि मुझे मत छुओ का रवैया नहीं अपनाया जाता तो आंदोलन में समाज के सभी वर्गो को साथ लिया जा सकता है। जनता के प्रमुख संगठनों का समर्थन जुटाया ही जाना चाहिए। उसके लिए आजीविका के बुनियादी अधिकार को भी प्रमुखता देनी होगी। आंदोलन एक रेडिकल मोड़ भी ले सकता है। क्या नागरिक समाज इसके लिए तैयार है। इन सभी पक्षों पर पहले से ही ध्यान दिया जाना चाहिए। भारतीय बहुत बातूनी हो सकते हैं, किंतु चारों ओर जो कुछ हो रहा है, वे उससे निर्लिप्त नहीं हो सकते। एक दो घोटाले तो उनके ध्यान में आए होंगे, परंतु जब उन्होंने नियमित अंतरालों के बाद इन्हें उजागर होता पाया तो यही निष्कर्ष निकाला कि यह तो समग्र प्रणाली ही विकृत हो चुकी है और उनका सरकार में विश्वास जाता रहा। चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्य सरकार। यही कारण है कि हर बार राजनीतिज्ञ ही निशाने पर आते हैं। राजनीतिक दल यह रट लगाते रह सकते हैं कि संसद सर्वोच्च है। फिर भी दलों को यह अनुभूति नहीं होती कि अब संसद के प्रति पहले सरीखा सम्मान या विश्वास नहीं रहा। निस्संदेह संसद के बारे में लोगों की जो धारणा है, वह किसी भी लिहाज से सहायक नहीं है। न ही जन आकांक्षाओं और भावनाओं के प्रति सांसदों का रवैया ही इस बारे में कोई भरोसा दिला पाता है। आज जो स्थिति है, उसमें यही लग रहा है कि विद्यमान राजनीतिक दलों के पास जितनी सीटें हैं, वे उतनी नही बचा पाएंगे, बल्कि और ज्यादा गंवाएंगे ही। तीसरा विकल्प जरूरी है। हैदराबाद में इस वर्ष के प्रारंभ में जो सोशलिस्ट पार्टी पुन: सक्रिय हुई है, वह नए लोकतांत्रिक और सेक्युलर राजनीतिक दल का आधारबिंदु बन सकती है। नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) बहुत समय नहीं बिताते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंच सकती है कि नए चुनाव का आह्वान करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में जनभावनाओं की उनमें अभिव्यक्ति ही एकमात्र विकल्प है। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)