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सरकार-रिजर्व बैंक की रस्साकशी - विवेक कौल

भारतीय रिजर्व बैंकऔर भारत सरकार के बीच चल रही रस्साकशी धीरे-धीरे बाहर आ रही है। सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच थोड़ा-बहुत टकराव सिस्टम के लिए अच्छा होता है। मसलन, हर सरकार यह चाहती है कि ब्याज दरें कम से कम हों क्योंकि कम ब्याज दरों पर लोग जमकर कर्ज लेंगे और इससे अर्थव्यवस्था तेजी से बढ़ेगी, लेकिन सरकारें यह जरूरी बात या तो भूल जाती हैं या फिर उसकी अनदेखी करती हैं कि ब्याज दरों पर केवल कर्ज नहीं लिया जाता। ब्याज दरों को देखकर लोग पैसा बचाते भी हैं। इसीलिए केंद्रीय बैंक इन दरों के बीच संतुलन बनाए रखने की कोशिश करता है। यह काफी कठिन काम है, क्योंकि सरकार की ओर से हमेशा यह दबाव होता है कि ब्याज दरें कम रखी जाएं। करीब 19 साल तक अमेरिकी फेडरल रिजर्व के चेयरमैन रहे एलन ग्रीनस्पैन ने कहा था कि मुझे याद नहीं, जब राजनीतिक क्षेत्र से किसी ने कहा हो कि हमें दरें बढ़ाने की जरूरत है।

पिछले कई सालों से हमारे सरकारी बैंक डूबे कर्ज के संकट से जूझ रहे हैं। रिजर्व बैंकने इस संकट से जूझ रहे 11 सरकारी बैंकों को प्रिवेंटिव करेक्टिव एक्शन ढांचे के तहत रखा है। सरकार का मानना है कि इसकी वजह से बैंकठीक तरह से कर्ज नहीं दे पा रहे हैं। क्या यह सही है? अगर हम गैर-खाद्य ऋण (नॉन-फूड क्रेडिट) के आंकड़े देखें तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं लगता। भारतीय बैंक, फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और राज्य सरकारें खरीद एजेंसियों को कर्ज देती हैं, ताकि वे किसानों से धान और गेहूं सीधे खरीद सकें। जब इस कर्ज को कुल ऋण से घटाया जाता है तो गैर-खाद्य ऋण बचता है।


अगर इस वर्ष 12 अक्टूबर तक का साप्ताहिक गैर-खाद्य ऋण का डाटा देखें तो यह करीब 14.5 फीसदी अधिक रहा। अगर पिछले दो साल का डाटा देखें तो गैर-खाद्य ऋण में यह सबसे उच्चतम वृद्धि रही। अब अगर बैंक कर्ज दे रहे हैं तो सरकार क्या चाहती है? इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि आखिर सरकार गैर-खाद्य ऋण में वृद्धि से खुश क्यों नहीं है? इसके लिए डाटा को थोड़े विस्तार से देखने की जरूरत होगी। अगर इस साल अगस्त 30 तक का डाटा देखें तो पाएंगे कि गैर खाद्य ऋण करीब 14.2 प्रतिशत बढ़ा। खुदरा ऋण करीब 18.2 प्रतिशत बढ़ा था। सेवाओं को दिया हुआ ऋण 26.7 प्रतिशत बढ़ा। कृषि कर्ज करीब 12.4 प्रतिशत बढ़ा, परंतु उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज सिर्फ 1.95 प्रतिशत बढ़ा। इसमें भी छोटे उद्योगों को दिया जाने वाला कर्ज 2.6 फीसदी ही बढ़ा। चूंकि बैंकों का करीब तीन चौथाई डूबा कर्ज उद्योगों की वजह से है और इसीलिए वे उद्योगों को कर्ज देने से कतरा रहे हैं। लगता है, दूध का जला छाछ भी फूंक-फूंककर पी रहा है।


पिछले कुछ सालों में निजी बैंकों ने सरकारी बैंकों से कहीं अधिक कर्ज दिया है, जबकि माना यह जाता है कि निजी बैंक उद्योगों को कर्ज देने से कतराते हैं। सरकार चाहती है कि जिन 11 सरकारी बैंकों को पीसीए के तहत रखा गया है, उन्हें और कर्ज देने की इजाजत मिले। अगर इस वर्ष मार्च 31 तक सरकारी बैंकों का कुल कर्ज देखें तो इन 11 बैंकों का करीब 27 प्रतिशत हिस्सा बनता है। बाकी 73 प्रतिशत उन 10 सरकारी बैंकों द्वारा दिया गया, जो पीसीए के दायरे में नहीं हैं। ये 10 बैंक सरकार के कुल 21 बैंकों में से कुछ बेहतर स्थिति में हैं। अगर सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक छोटे उद्योगों को कर्ज दें तो यह काम ये 10 बैंक क्यों नहीं कर सकते? इन 11 बैंकों को पीसीए में इसलिए डाला गया है, ताकि उन्हें स्वस्थ होने का मौका मिल सके।


रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर विरल आचार्य ने हाल में कहा कि पीसीए के दायरे वाले बैंक अपनी बैलेंस शीट की परिसंपत्तियों को सुरक्षित करने में लगे हैं। इसलिए वे पूरा ध्यान गैर-जोखिम वाले क्षेत्रों को कर्ज देने और गवर्मेंट सिक्योरिटीज पर केंद्रित कर रहे हैं। पहली और सबसे बड़ी प्राथमिकता पीसीए वाले बैंकों में करदाताओं के नुकसान को बचाना और उनकी पूंजी की क्षति को रोकना है। इसलिए वित्तीय रूप से कमजोर बैंकों से निपटने का पीसीए का तरीका जारी रहना चाहिए। सुधार की प्रक्रिया में किसी भी तरह की ढिलाई हानिकारक होगी।

ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि सरकार आतंरिक रूप से यह मान रही है कि नोटबंदी और जीएसटी के खराब क्रियान्वयन से छोटे उद्योगों का नुकसान हुआ है। चूंकि इसका बुरा असर आम चुनाव पर भी पड़ सकता है, इसीलिए सरकार चाहती है कि सरकारी बैंक आने वाले महीनों में छोटे उद्योगों को जमकर कर्ज दें। केंद्रीय बैंक और केंद्र सरकार में रस्साकशी का एक कारण यह भी है कि रिजर्व बैंक अपने कामकाज से जो लाभ कमाता है, उसका एक बड़ा हिस्सा सरकार को हर साल लाभांश (डिविडेंड) के रूप में देता है। कुछ हिस्सा कंटिंजेंसी फंड में चला जाता है। इससे सरकार को मिलने वाला लाभांश कम हो जाता है। सरकार चाहती है कि रिजर्व बैंक अपना अधिक से अधिक लाभ और हो सके तो पूरा, लाभांश के रूप में उसे दे। रिजर्व बैंक का मानना है कि अभी उसकी बैलेंस शीट को और भी मजबूत बनाने की जरूरत है।

गौरतलब है कि वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कई बार कहा है कि सरकार को राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है। सरकार का खर्च उसकी कमाई से कहीं अधिक होता है और इसी अंतर को राजकोषीय घाटा कहा जाता है। अगर डाटा देखें तो ऐसा नहीं लगता। अप्रैल से सितंबर 2018 तक करीब 2.15 लाख करोड़ रुपए का सेंट्रल जीएसटी सरकार के पास जमा हुआ। पूरे वित्तीय वर्ष का लक्ष्य करीब 6.04 लाख करोड़ रुपए है। यह लक्ष्य पूरा होता दिखाई नहीं देता। इसके अलावा शेयर बाजार के गिरने की वजह से विनिवेश का 80,000 करोड़ का लक्ष्य भी पूरा होता दिखाई नहीं देता। अप्रैल से सितंबर 2018 के बीच राजकोषीय घाटा अपने सालाना लक्ष्य के 95 फीसदी तक पहुंच गया था। इसका मतलब यह हुआ कि सरकार अभी किसी तरह अपनी कमाई बढ़ाने पर उतारू है। इसीलिए उसकी नजर रिजर्व बैंक के कंटिंजेंसी फंड पर भी है। वह चाहती है कि केंद्रीय बैंक सरकार को एक अंतरिम लाभांश भी दे। रिजर्व बैंक का उपयोग करके सरकारी दायित्वों को पूरा करना सकारात्मक नहीं। एक साल के राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने के लिए एक ऐसे फंड का इस्तेमाल करना सही नहीं, जिसे बनाने में कई वर्ष लगे हों।


सार्वजनिक रूप से भले ही सरकार यह कहे कि उसे राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा करने का भरोसा है, पर वह यह जानती है कि शायद ऐसा न होने पाए। अप्रैल से जून की तिमाही में अर्थव्यवस्था 8.2 प्रतिशत की दर से बढ़ी और 2018-2019 में यह उम्मीद है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.4 प्रतिशत रहेगी। यह विश्व में किसी भी बड़े देश के लिए सबसे तेज बढ़ोतरी होगी। ऐसे में सरकार के लिए उतावलापन दिखाना ठीक नहीं है।