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सरकारी कागजों में स्लम का अकाल

अगर कोई पूछे कि मुंबई महानगर में झोपड़ बस्तियों को हटाने की दिशा में जो काम हो रहा है, उसका क्या असर पड़ा है तो इस सवाल का एक जवाब ये भी हो सकता है- आने वाले दिनों में झोपड़ बस्तियों की संख्या बढ़ सकती है.

मुंबई महानगर का कानून है कि जो बस्ती लोगों के रहने लायक नहीं है, उसे स्लम घोषित किया जाए और वहां बस्ती सुधार की योजनाओं को अपनाया जाए. मगर प्रशासन द्वारा बस्तियों को तोड़ने और हटाने का काम तो जोर-शोर से किया जा रहा है लेकिन इस कार्रवाई से पहले महानगर की हज़ारों बस्तियों को स्लम घोषित करने से सरकार लगातार बच रही है. ज़ाहिर है, ऐसे में सरकार बड़ी आराम से सुधार कार्रवाई से बच जा रही है. लेकिन बुनियादी सहूलियतों के अभाव में जीने वाली बस्तियों की हालत और बिगड़ती जा रही है और प्रशासन की यह अनदेखी जहां कई नई बस्तियों को स्लम बनाने की तरफ ढ़केल रही है, वहीं कुछ नए सवाल भी पैदा कर रही है.महाराष्ट्र स्लम एरिया एक्ट, 1971 के कलम 4 के आधार पर मुंबई महानगर की बस्तियों को स्लम घोषित किया जाता रहा है. स्लम घोषित किए जाने के मापदण्ड बस्ती में रहने लायक हालतों पर निर्भर करते हैं. जैसे, घरों की सघनता, पानी, बिजली, रास्ता, नालियों और खुली आवोहवा का हाल कैसा है. लेकिन ये सारे मापदंड किनारे करके बस्तियों को तो़ड़ने की कार्रवाई जारी है.

यहां के मंडाला, मानखुर्द, गोवाण्डी, चेम्बूर, घाटकोपर, मुलुंद, विक्रोली, कुर्ला, मालवानी और अंबुजवाड़ी जैसे इलाकों की तकरीबन 3,000 स्लम बस्तियों की आबादी बेहाल है. लेकिन बस्ती वालों की लगातार मांग के बावजूद उन्हें स्लम घोषित नहीं किया जा रहा है.

कांक्रीट के जंगल में जंगल राज
महाराष्ट्र स्लम एरिया एक्ट, 1971 के कलम 5 ए के आधार पर जिन बस्तियों को स्लम घोषित किया जा चुका है, उनमें पीने का पानी, बिजली, गटर, शौचालय, स्कूल, अस्पताल, समाज कल्याण केन्द्र और अच्छे रास्तों की व्यवस्था होना अनिवार्य है. यहां गौर करने लायक एक बात यह भी है कि कानून में बुनियादी सहूलियतों को मुहैया कराने के लिए कोई कट-आफ-डेट का जिक्र नहीं मिलता है. मगर इन दिनों प्रशासन के बड़े अधिकरियों तक की जुबानों पर कट-आफ-डेट की ही चर्चा चलती है. जबकि यह अमानवीय भी है और गैरकानूनी भी.

इसके अलावा इसी कानून में यह भी दर्ज है कि बस्ती सुधार योजनाओं को रहवासियों की सहभागिता से लागू किया जाए. मगर ग्रेटर मुंबई, भिवण्डी, उल्लासनगर, विरार और कुलगांव-बदलापुर जैसे इलाकों की तकरीबन 15,00 स्लम घोषित बस्तियों के लाखों रहवासियों को ऐसी योजनाओं से बेदखल रखा जा रहा है.

‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के सिम्प्रीत सिंह कहते हैं कि ‘‘खानापूर्ति के लिए हर साल केवल 15-20 बस्तियों को स्लम घोषित कर दिया जाता है. जो यहां के झोपड़पट्टी परिदृश्य को देखते हुए न के बराबर है.’’

प्रशासन ऐसा क्यों कर रही है, के सवाल पर सिम्प्रीत सिंह कहते हैं ‘‘एक तो विस्थापन की हालत में पुनर्वास से बचने के लिए. दूसरा इसलिए क्योंकि अगर बड़ी तादाद में बस्तियों को स्लम घोषित किया जाता है, तो कानूनों में मौजूद बुनियादी सहूलियतों को भी तो उसी अनुपात में देना पड़ेगा. यहां के भारी-भरकम मंत्रालय, उनके विभाग, उनके बड़े-बड़े अधिकारी इतनी जिम्मेदारी लेना नहीं चाहते. फिर यह भी है कि प्रशासन अगर बस्तियों को स्लम घोषित करते हुए, जहां-तहां बस्ती सुधारों के कामों को शुरू करती भी है, तो बस्तियों में बुनियादी सहूलियतों को पहुंचाने वाले बिल्डरों का धंधा चौपट हो जाएगा. इसलिए यहां से बिल्डरों और भष्ट्र अधिकारियों के बीच गठजोड़ की आशंकाएं भी पनपती हैं.’’

2001 के आंकड़ों के मुताबिक मुंबई महानगर की कुल आबादी 1 करोड़ 78 लाख है, जिसके 20 इलाकों की झोपड़पट्टियों में 67 लाख 21 हजार से भी ज्यादा लोग रहते हैं, जो कुल आबादी का 37.96% हिस्सा है. इसी तरह यहां घरेलू मजदूरों की तादाद 66 लाख 16 हजार हैं, जो कुल आबादी का 37.07% हिस्सा है. कुल घरेलू मजदूरों में से यहां 3 लाख 76 हजार सीमान्त मजदूर हैं. इन तथ्यों की बुनियाद पर कहा जा सकता है कि मुंबई महानगर की इतनी बड़ी आबादी (37.96%) और इतने सारे घरेलू मजदूरों (37.07%) को आवास देने के लिए कम से कम 25% जगह का हक तो होना ही चाहिए.

यह गौरतलब है कि मुंबई जैसे महानगर का वजूद उन मजदूरों के कंधों पर है जिनके चलते राज्य सरकार को हर साल 40,000 करोड़ रूपए का टेक्स मिलता है. इसके बदले लाखों मजदूरों के पास घर, घर के लिए थोड़ी-सी जमीन, थोड़ा-सा दानापानी, थोड़ी-सी रौशनी भी नहीं है. जिनके पास है, उनसे भी इस हक़ से वंचित किया जा रहा है.

कानून दर कानून बस कानून
महाराष्ट्र लेण्ड रेवेन्यू कोड, 1966 के कलम 51 के आधार पर अतिक्रमण को नियमित किए जाने का प्रावधान है. एक तरफ इंदिरा नगर, जनता नगर, अन्नाभाऊ साठे नगर और रफीकनगर जैसी बहुत सी पुरानी बस्तियां हैं, जहां के रहवासियों ने यह इच्छा जाहिर की है कि उनके घर और बस्तियों को नियमित किया जाए. इसे लेकर जो भी मूल्यांकन तय किया जाएगा, बस्ती वाले उसे चुकाने को भी तैयार है. इसके बावजूद प्रशासन द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है. मगर कई रसूख और पैसे वालों की ईमारतों के अतिक्रमण को नियमित किया गया है और कल तक सरकारी नोटिसों के निशाने पर रही ये ईमारतें अब वैध हैं.

2007 को ‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के बैनर तले, मंडाला के रहवासियों ने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीनीकरण मिशन के तहत बस्ती विकास का प्रस्ताव महाराष्ट्र प्रशासन को सौंपा था. इसे लेकर म्हाडा(महाराष्ट्र हाऊसिंग एण्ड एरिया डेव्लपमेंट एथोरिटी), मंत्रालय और बृहन्मुंबई महानगर पालिका के बड़े अधिकारियों से कई बार बातचीत भी हुई है. मगर आज तक इस प्रस्ताव को न तो मंजूरी मिली है और न ही प्रशासनिक रवैया ही साफ हो पाया है.

इसी साल‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के बैनर तले, बांद्रा कलेक्टर के कमरे में कलेक्टर के साथ बैठक की गई थी. इसमें कलेक्ट्रर विश्वास पाटिल ने यह आदेश दिया था कि अंबुजवाड़ी के जो रहवासी 1 जनवरी, 2000 से पहले रहते हैं, उन्हें घर प्लाट देने के लिए उनकी पहचान की जांच जल्दी ही पूरी की जाएगी, जो अभी तक पूरी नहीं हो सकी है. दूसरी तरफ नई बसाहट के रहवासी आज भी पानी, शौचालय और बिजली के लिए तरस रहे हैं. विरोध करने पर उन्हे मालवणी पुलिस स्टेशन द्वारा जेल में डाल दिया जाता है.

2009 को ‘घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन’ के बैनर तले, महाराष्ट्र लेण्ड रेवेन्यू कोड, 1966 के कलम 29 के आधार पर, जय अम्बेनगर जैसी कई बस्तियों में पारधी जमात के रहवासियों ने बांद्रा कलेक्टर को एक पत्र भेजा, जिसमें उन्होंने जमीन के प्रावधान की मांग की और यह भी गुहार लगाई कि जब तक ऐसा नहीं होता तब तक उनकी बस्तियों को न तोड़ा जाए. दरअसल, इस बंजारा जमात को अलग-अलग जगह से बार-बार बेदखल किया जाता रहा है और अब वे इस तरह की जहालत से बचना चाहते हैं.

भ्रष्टन की जय हो
फिलहाल झुग्गी बस्ती पुनर्वास प्राधिकरण में ‘पात्र’ को ‘अपात्र’ और ‘अपात्र’ को ‘पात्र’ ठहरा कर भष्ट्राचार का खुला खेल चल रहा है. ऐसा बहुत सारे मामलों से उजागर हुआ है कि ‘पात्र’ की सहमति लिए बगैर झूठे सहमति पत्र भरे गए हैं. चेंबूर की अमीर बाग, अंधेरी की विठ्ठलवाड़ी और गोलीबार तो ऐसे भ्रष्टाचार के मामलों से भरे पड़े हैं. कई मामलों में तो अधिकारियों, राजनेताओं की दिलचस्पी और हस्तक्षेप भी जांच के विषय हो सकते हैं.

महानगर में पुनर्वास दिए बगैर कोई भी विस्थापित नहीं हो सकता- ऐसा महाराष्ट्र स्लम एरिया एक्ट, 1971 से लेकर राष्ट्रीय आवास नीति और महाराष्ट्र आवास नीति, 2007 तक में कहा गया है. इसके बावजूद जहां नेताजी नगर, म्हात्रे नगर और जय अम्बे नगर जैसी बस्तियों को तोड़ा गया है, वहीं अन्नाभाऊ साठे नगर को तोड़े जाने का नोटिस जारी हुआ है. उधर अंबुजवाड़ी बस्ती के रहवासियों को नोटिस दिए बगैर ही सब कुछ ध्वस्त कर दिये जाने का डर दिखाया गया है.

सपनों के शहर में घर के सपने
मुंबई में गरीबों के लिए आवास उनकी हैसियत से बहुत दूर हो चुके हैं. मुंबई में किराए के घरों की मांग और पूर्ति का अंतर ही इतना चौड़ा होता जा रहा है कि हर साल 84,000 अतिरिक्त घरों की मांग होती हैं, जिसकी पूर्ति के लिए खासतौर से बिल्डरों की फौज तैनात है, जो जैसे-तैसे हर साल केवल 55,000 घरों की व्यवस्था ही कर पाते हैं. इसके चलते यहां जमीनों और जमीनों से आसमान छूते आशियानों की कीमतों को छूना मुश्किल होता जा रहा है.

बांद्रा, जुहू, बर्ली, सांताक्रूज, खार जैसे इलाकों का हाल यह है कि एक फ्लेट कम से कम 4-10 वर्ग प्रति फीट प्रति महीने के भाड़े पर मिलता है, जो उच्च-मध्यम वर्ग के लिए भी किसी सपने से कम नही है. मगर बिल्डरों ने उच्च-मध्यम वर्ग के सपनों का पूरा ख्याल रखा है, उनके लिए नवी मुंबई, खाण्डेश्वर, कोपोली, पनवेल और मीरा रोड़ जैसे इलाकों में 25 से 45 लाख तक के घरों की व्यवस्था की है, जिनकी कीमत कमरों की संख्या और सहूलियतों पर निर्भर है.

नियमानुसार रोज नई-नई बसने वाली बिल्डिंगों और ईमारतों के आसपास गरीबों के लिए आवास की जगह नहीं छोड़ी जा रही है. बिल्डरों द्वारा महानगर की शेष जगहों को भी मौटे तौर पर दो तरीके से हथियाया जा रहा है, एक तो अनगिनत विशालकाय अपार्टमेंट खड़े करके, दूसरा इनके आसपास कई सहूलियतों को उपलब्ध कराने का कारोबार करके, जैसे: बच्चों के लिए भव्य गार्डन, मंनोरंजन पार्क, कार पार्किंग, प्रभावशाली द्वार, बहुखण्डीय सिनेमाहाल इत्यादि. इन सबसे यहां की कुल जगह पर जहां एक मामूली सी आबादी के लिए एशोआराम का पूरा बंदोबस्त हो रहा है, वहीं बड़ी आबादी के बीच रहने की जगह का घनघोर संकट भी गहराता जा रहा है.

अब उस पर आफत ये है कि जो पहले से बसे हुए हैं, उन्हें भी हटाया जा रहा है. महानगर के कारोबारी हितों के लिए और ज्यादा जगह हथियाने के चक्कर में गरीबों के इलाकों को बार-बार तोड़ा जा रहा है. फिल्म और गानों तक को लेकर पूरे महाराष्ट्र को सर पर उठा लेने वाले राजनीतिज्ञों की लिस्ट में गरीबों के बेघर होने का मामला दूर-दूर तक नहीं है. हां, इन गरीबों के बल पर राजनीति की रोटी सेंकने वाले कानून की दुहाई देते ज़रुर नज़र आते हैं. ये और बात है कि इस क़ानून की परवाह किसी को नहीं है. न प्रशासन को और न ही सरकार को.

-शिरीष खरे, मुंबई से