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सरकारी स्कूलों में अंगरेजी -- मृणाल पांडे

उत्तराखंड की सरकार अपने सभी 13 जिलों के 18,000 प्राइमरी स्कूलों में शिक्षा का माध्यम हिंदी से बदल कर अंगरेजी करने जा रही है. तुरंत प्रभाव से यह प्रयोग पहले दर्जा एक से शुरू होगा और धीरे-धीरे इसे सभी कक्षाओं में लागू किया जायेगा. तर्क यह दिया गया है कि आज के भारत में दवा के नुस्खों से लेकर अदालती व वित्तीय कामकाज तक समझना अंगरेजी न जाननेवालों के लिए टेढ़ी खीर है. अंगरेजी ही आज के भारत में बेहतर भविष्य की कुंजी है, यह मानते हुए राज्य के अभिभावक भी आज तेजी के साथ अपने बच्चों को हिंदी माध्यम सरकारी स्कूलों से निकाल कर पेट काट कर भी, अंगरेजी माध्यम स्कूलों में भेजना पसंद करते हैं. एक हद तक बात गलत भी नहीं.

जहां हमारी पीढ़ी ने जम कर पढ़ा था, वे बड़े-बड़े हातों और भरपूर तनख्वाह पानेवाले स्टाफ वाले सरकारी स्कूल आज भांय-भांय कर रहे हैं और गली-गली बरसाती कुकुरमुत्तों की तरह तंग कमरों पर ‘इंगलिस माध्यम कानवेट' की तख्ती लटकानेवाले स्कूल भरते जा रहे हैं. दरवाजे पर टूटी कमानी की ऐनक लगाये चावल बीनती एक वृद्धा का कहना था- लली, ये इस्कूल और कुछ नहीं तो टाई लगाना और रूमाल से नाक पोंछना तो बच्चों को सिखा ही देते हैं ना! आज तो नौकरी से शादी तक सबको इंगलिस ही चाहिए होती है. तब मां-बाप क्या करें?

पर्यावरण से लेकर बुनियादी शिक्षा तक के क्रमिक पतन, तीन पीढ़ियों से हिंदी माध्यम में पढ़े शिक्षकों के बीच अंगरेजी शिक्षकों के अभाव और तेजी से मिटते स्थानीय तेवरों को देखें, तो जमीनी सतह पर उत्तराखंड सरकार के इस ताजे फैसले के लागू होने पर कई तरह के शक मन में आते हैं. पहला शक राजनीतिक नीयत पर होता है. औसतन हमारे आज के सारे बड़े दक्षिणपंथी नेता हिंदी के अंगरेजी के महानद में गायब होकर मिट जाने का डर दिखा कर उसे राष्ट्रभाषा बनाने और हिंदी पट्टी से वोट कमाने का काम तेजी से निबटाते आये हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव की पूर्वसंध्या पर तो कहा गया कि भारत की असली जनभाषा हिंदी है. उसके प्रचार-प्रसार की एक ही तरकीब है उसे राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना. इस संबंध में तुरंत हिंदी समिति की कई पुरानी विवादास्पद संस्तुतियों को महामहिम राष्ट्रपति जी के हस्ताक्षर सहित अंतिम फैसले के लिए पेश कर दिया गया, जिनके तहत सुझाव स्वीकृत होने पर सरकारी कामकाज में हिंदी को देश की इकलौती सेतुभाषा और फिर जल्द ही राष्ट्रभाषा का दर्जा मिल सकेगा.

यूपी फतह के बाद तो हिंदी का बाजार भाव तेजी से ऊपर उछला और पिछले महीने दक्षिण भारत की नाराजगी का खतरा उठा कर भी वहां सारे सार्वजनिक नामपट्ट हिंदी में लिखवाने का आदेश दे दिया गया था. हिंदी विरोध की सनातन धारा में गोमुख से जल बहता देख हाथ धोने को तमाम पुराने हिंदी विरोधी राज्य और मीडिया आ खड़े होंगे, यह तय है. पर, राजनीति में आग लगाने के बाद भी जमालो बन कर दूर खड़े रहना मुमकिन नहीं होता.

पहला सवाल है कि 2011 जनगणना आंकड़ों के अनुसार, राज्य के 15,331 प्राइमरी स्कूलों और उनके 10 लाख से अधिक विद्यार्थियों को अंगरेजी पढ़ाने के लिए शिक्षक कहां से आयेंगे? क्या एक बार फिर सरकार चूल्हे पर बटलोई चढ़ा कर सब्जी खरीदने भागेगी? उत्तराखंड में इस बाबत (पूरी गंभीरता से) यह हास्यास्पद तर्क दिया जा रहा है कि 75 शब्दों तथा वाक्यों की फेहरिस्त मंगवाई गयी है, जिसे सभी दर्जा एक के विद्यार्थियों को पढ़ाया जायेगा. इससे उनका भाषा ज्ञान धीमे-धीमे बढ़ने लगेगा. कुछ शब्द/वाक्य मुलाहिजा फरमायें : हैलो! हाऊ डू यू डू? माय अपोलौजीज! हैव ए नाइस डे!).

जैसे हालात हैं, डर यह भी है कि कहीं गोरक्षा मुद्दे की ही तरह सरकार दशा संभाले, इससे पहले हिंदी के स्वघोषित साधक कपड़ा फाड़ किस्म की गालियां बकते हुए घोषणा का चक्का जाम करा एक नये जिहाद पर न उतर आयें. दरअसल, आज के विकासमान भारत की जरूरत एक गुणवत्ता और हुनर योग्य बनानेवाली शिक्षा की है, जिसमें हम चाहे या नहीं, अंगरेजी की भरपूर जानकारी एक अनिवार्यता है. जबरन हिंदी को राष्ट्रीयता के दिव्य जोश का प्रतीक मानने और मनवाने के दिन अब लद चुके हैं. हिंदी का गौरव इससे नहीं बढ़ेगा कि वह कितने बड़े भूखंड की भाषा है. बल्कि इससे, कि वह किस हद तक औसत भारतीय के लिए ताजगीभरी मौलिकता और हिंदी पट्टी की जनभाषाओं की समृद्धि का प्रतीक और अन्यभाषा समावेशी बन सकती है. जरूरत यह है कि भारतीय युवा तथा बच्चे सभी शुरू से एकाधिक भाषाएं पढ़ें. इससे बाहर देखने के कई नये दरवाजे खुलते हैं और क्षितिजों का विस्तार होता है. लेकिन, बाहरी भाषा और साहित्य के असर को बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से अपने भीतर जज्ब कर पाना भी उतना ही जरूरी है, जितना खुद अपनी भाषा की जड़ों को सही तरह से समझना और उनको मजबूत बनाना.

मृणाल पांडे
वरिष्ठ पत्रकार
mrinal.pande@gmail.com