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सवाल विज्ञान-मुखी बनने का है-- प्रमोद जोशी

विजय माल्या के पलायन, देशद्रोह और भक्ति से घिरे मीडिया की कवरेज में विज्ञान और तकनीक आज भी काफी पीछे हैं. जबकि इसे विज्ञान और तकनीक का दौर माना जाता है. इसकी वजह हमारी अतिशय भावुकता और अधूरी जानकारी है. विज्ञान और तकनीक रहस्य का पिटारा है, जिसे दूर से देखते हैं तो लगता है कि हमारे जैसे गरीब देश के लिए ये बातें विलासिता से भरी हैं.

नवंबर 2013 में जब हमारा मंगलयान अपनी यात्रा पर रवाना हुआ था, तब कई सवाल किये गये थे. उस साल के आम बजट से आंकड़े निकाल कर सवाल किया गया था कि माध्यमिक शिक्षा के लिए पूरा खर्च 3,983 करोड़ रुपये और अकेले मंगलयान पर 450 करोड़ रुपये क्यों? इस रकम से ढाई सौ नये स्कूल खोले जा सकते थे.

पहली नजर में बात वाजिब लगती है. हालांकि, शिक्षा को लेकर भ्रामक भी है. इस पर राज्य सरकारों और निजी क्षेत्र का खर्च अलग से होता है. अंतरिक्ष अनुसंधान पर कौन खर्च करता है?

शिक्षा पर खर्च इससे कहीं ज्यादा होना चाहिए, पर कुछ बातों पर गौर करें. उस साल करन जौहर की फिल्म ‘शुद्धि' का बजट 150 करोड़ रुपये बताया जा रहा था. एंथनी डिसूजा की फिल्म ‘ब्लू' और शाहरुख की ‘रा-वन' का भी 100 करोड़ का बजट था. तीन या चार फिल्मों के बजट में एक मंगलयान! औसतन 25,000 बच्चों को शिक्षा. फिल्में बनाना बंद कर दें, तो क्या साल भर में सारे लक्ष्य हासिल हो जायेंगे? हमें फिल्में भी चाहिए.

भारत जिस मीडियम मल्टी रोल कॉम्बैट एयरक्राफ्ट राफेल विमान को खरीदने जा रहा है, उसकी कीमत है 1,400 करोड़ रुपये. अभी हम 36 विमान खरीदनेवाले हैं. हम इन विमानों को न खरीदें, तो क्या सामाजिक विकास हो जायेगा? तकनीकी विकास और सामाजिक विकास के बीच संतुलन की जरूरत है. हमें सभी बातों पर नजर रखनी चाहिए. उसके लिए हमारी यानी नागरिक की समझ का दायरा बढ़ाने की जरूरत है.

पिछले सप्ताह भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ‘इसरो' के छठे दिशा सूचक उपग्रह आइआरएनएसएस-1 एफ का सफल प्रक्षेपण किया गया. इसमें ‘एफ' अंगरेजी वर्णमाला का छठा अक्षर है.

सात उपग्रहों की सीरीज में यह छठा उपग्रह है. मोटे तौर पर यह अमेरिका के ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम (जीपीएस) की तर्ज पर दिशा सूचक सेवाएं मुहैया करायेगा. शृंखला का पहला उपग्रह जुलाई 2013 में छोड़ा गया था. अगले महीने सातवां उपग्रह भेज कर इसे पूरा कर लिया जायेगा.

भारत की यह नेवीगेशन प्रणाली कई मायनों में अनूठी है. भारत के अलावा अमेरिका, रूस, चीन, यूरोपीय स्पेस एजेंसी और जापान के उपग्रह भी इस दिशा में काम कर रहे हैं. भारतीय प्रणाली एकदम से जीपीएस का विकल्प नहीं बनेगी.

इसमें कुछ समय लगेगा, पर जो कुछ भी हुआ है, वह काफी कम समय में बहुत ज्यादा हुआ है. अंतरिक्ष कार्यक्रम केवल राष्ट्रीय प्रतिष्ठा बढ़ाने का काम ही नहीं करते, बल्कि उनका सामाजिक जीवन में बड़ा इस्तेमाल है. तकनीक हमारे जीवन को सरल बना सकती है, इस बात को हमें समझना है. जब मोबाइल फोन आया था, तब हमने उसे विलासिता ही समझा था. आज ऐसा नहीं है.

पिछले हफ्ते लोकसभा ने ‘आधार' विधेयक पास किया. हालांकि, इस विधेयक को लेकर राजनीतिक विवाद हैं, पर कुछ तथ्य इसे सामाजिक कल्याण की दिशा में क्रांतिकारी कदम बता रहे हैं. भारत सरकार करोड़ों रुपये सामाजिक कल्याण के लिए खर्च करती है, पर वह रकम पात्र व्यक्तियों तक नहीं पहुंचती. आधार की मदद से अब यह काम संभव है. लोकसभा में वित्त मंत्री ने बताया कि आधार कार्ड के जरिये एलपीजी ग्राहकों को दी गयी सब्सिडी से केंद्र को 15,000 करोड़ रुपये की बचत हुई. जिन चार राज्यों ने इसी तर्ज पर पीडीएस सब्सिडी देनी शुरू की है, उन्होंने 2,300 करोड़ रुपये से बचाये हैं.

सवाल विज्ञान-मुखी होने का है. अंधविश्वास और संकीर्णता से बाहर आने का है. 2013 में जिस महीने हमने अपना पहला नेवीगेशन सैटेलाइट छोड़ा, उसी महीने उत्तराखंड में भयानक बाढ़ आयी थी. हम विज्ञान-मुखी होते तो वैसी तबाही संभव नहीं थी. फटेहाली का इलाज भी विज्ञान के पास है, बशर्ते हम उसके महत्व को समझें. हाल में एमएस स्वामीनाथन ने कहा कि हमें नौजवानों को कृषि विज्ञान से जुड़े अनुसंधान की ओर प्रेरित करना चाहिए. हमें एक और हरित क्रांति की जरूरत है.

अंतरिक्ष अनुसंधान का हमारी दूरगामी सामाजिक प्राथमिकताओं से कोई रिश्ता है या नहीं, इसे देखना चाहिए. मंगलयान के प्रक्षेपण के बाद इकोनॉमिस्ट ने लिखा था, ‘जो देश 80 करोड़ डॉलर (लगभग 5000 करोड़ रुपये) दीवाली के पटाखों पर खर्च कर देता है, उसके लिए 7.4 करोड़ डॉलर (450 करोड़ रुपये) का यह एक रॉकेट दीवाली जैसा रोमांच पैदा करेगा.' 2013 में उड़ीसा में आया फेलिनी तूफान हजारों की जान ले सकता था.

पर सही समय पर वैज्ञानिक सूचना मिली और आबादी को सागर तट से हटा लिया गया. इस साल के अंत में दक्षिण एशिया के देशों के लिए भारत एक विशेष उपग्रह भी छोड़नेवाला है. यह उपग्रह इस इलाके के सामाजिक कल्याण का प्रतीक बन सकता है. इस साल नेवीगेशन सैटेलाइट का कार्यक्रम पूरा होने के बाद मई में देश के कार्टोसैट-कार्टोग्राफी उपग्रह का प्रक्षेपण है.

अगस्त में संचार उपग्रह इनसैट-3डीआर का जीएसएलवी रॉकेट की मदद से प्रक्षेपण है. सबसे रोमांचक उड़ान होगी अगली पीढ़ी के भारी लांच वेहिकल जीएसएलवी-मार्क-3 की, जो चार टन वजन वाले भारतीय संचार उपग्रह जीसैट-19 को पृथ्वी की कक्षा में लेकर जायेगा. यह प्रक्षेपण इस साल के अंत में या अगले साल के शुरू में होगा. जीएसएलवी-मार्क-3 भारत सरकार से स्वीकृत समानव उड़ान में भी प्रयुक्त होगा. इसरो कई प्रकार की तकनीकों का विकास कर रहा है और साथ ही क्रू वेहिकल और अंतरिक्ष यात्री के लिए स्पेस सूट भी तैयार हो रहा है.

बहुत जल्द आप भारत की समानव उड़ान, चंद्रयान-2 और सूर्य का अध्ययन करनेवाले प्रोब आदित्य का बारे में सुनेंगे. ये सूचनाएं केवल राष्ट्रीय सम्मान बढ़ानेवाली नहीं, हमारे जीवन के गुणात्मक बदलाव की संदेशवाहक भी हैं.