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सांसदों के वेतन-भत्ते का सवाल - ए. सूर्यप्रकाश

इन खबरों के बाद अपने सांसदों पर निगाह जाना स्वाभाविक है कि वे एक बार फिर अपनी वेतनवृद्धि हेतु आधार तैयार कर रहे हैं। इस तरह के प्रयास के लिए मीडिया में उनकी आलोचना हो रही है। सांसदों के वेतन-भत्ते में बढ़ोतरी की जब भी बात होती है तो इस तरह की बातें होने की कई वजहें होती हैं। इनमें से कुछ पर नजर डालना जरूरी है। इस तरह वेतन-भत्ते के पुनरीक्षण की सिफारिश किसी स्वतंत्र इकाई या एजेंसी की तरफ से नहीं की जाती है। सांसद समझते हैं कि अपने वेतन में अपने आप बढ़ोतरी करने और कितनी बढ़ोतरी होनी चाहिए, यह निर्णय करने का अधिकार उनके पास है। यह सच है कि भौगोलिक और आबादी, दोनों की दृष्टि से देश में संसदीय क्षेत्रों का आकार एक समान नहीं है। इस आकलन का भी कोई तरीका नहीं कि सांसदों पर कितना दबाव रहता है। इसलिए अमूमन संसद में कामकाज को लेकर राय काफी खराब है।

सांसद वीवीआईपी व्यवहार की मांग करते रहते हैं, जो उनके कामकाज और दायित्व निभाने के खयाल से बिलकुल अनावश्यक है। एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, टोल बूथ और इस तरह की अन्य सार्वजनिक सेवाओं वाली जगहों पर कुछ सांसद अहंकारी व्यवहार करते रहते हैं। बाद वाले जो दो कारण गिनाए गए हैं, उस वजह से वेतनवृद्धि की मांग के खिलाफ आवाज ज्यादा उठ रही है। जब तक वे यह बात नहीं समझेंगे, तब तक वेतन-भत्ते बढ़ाने को लेकर अपने उचित मामले को आगे बढ़ाने में कभी सफल नहीं होंगे।

सबसे पहले हम अपनी संसद में जनता के प्रतिनिधित्व के संबंध में कुछ मूलभूत बातों की जांच करें। अधिकांश सांसद बीस लाख से ज्यादा लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। दुनिया में कोई लोकतांत्रिक देश ऐसा नहीं है, जहां एक सांसद से इतने अधिक लोगों का प्रतिनिधित्व करने की आशा की जाती हो। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि अपने दो लोकसभा क्षेत्रों में लोगों की संख्या आयरलैंड की कुल आबादी 40 लाख 70 हजार के बराबर है। आयरलैंड की संसद में 166 सदस्य हैं और वहां किसी भी चुनाव क्षेत्र में 30 हजार से ज्यादा लोग नहीं हैं। वहीं ब्रिटेन में एक सांसद को सिर्फ 60-70 हजार मतदाताओं की जरूरतों का ध्यान रखना होता है।

जर्मनी में संसद के निचले सदन में 598 सदस्य हैं। उनके पास मिश्रित सदस्यीय आनुपातिक व्यवस्था है। इसके अंतर्गत 299 सीटों पर तो सीधा चुनाव होता है और जिसे अधिक मत मिलते हैं, वह विजयी रहता है। अन्य सीटों पर हर राजनीतिक दल को मिले मतों के प्रतिशत के आधार पर समानुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर सीटें भरी जाती हैं। इसलिए हर संसदीय चुनाव में हर वोटर को दो मत डालने होते हैं। एक तो उस उम्मीदवार को जिसे वह चुनना चाहता है और दूसरा उस पार्टी को जिसको वह चाहता है। जर्मन आबादी लगभग 8 करोड़ 30 लाख की है, इसलिए हर सीधे निर्वाचित सांसद को करीब 2.7 लाख लोगों का खयाल रखना होता है, लेकिन परोक्ष ढंग से चुने गए सांसदों को मिलाकर 599 सदस्यों के पूरे सदन की बात करें तो हर सांसद के जिम्मे 1.3 लाख लोग आते हैं। अमेरिका में अमेरिकी प्रतिनिधि सभा का एक सदस्य अभी करीब 6.6 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है।

भारत की स्थितियों पर गौर फरमाएं। यहां सवाल सिर्फ संख्या का नहीं है। सांसदों पर लोगों का दबाव भी रहता है। हर सांसद के पास उसके संसदीय कार्यालय और आवास पर रोजाना सैकड़ों लोग आते हैं। इन लोगों के मुद्दे समझने-सुलझाने के लिए हर सांसद के पास एक कार्यालय का पूरा तामझाम चाहिए होता है। यह दबाव इस तरह का है कि उसके पास संसद में अपना कामकाज निपटाने का समय भी बहुत मुश्किल से मिलता है। अब जरा दूसरे देशों में सांसदों को मिलने वाले वेतन-भत्ते पर भी नजर दौड़ा लें। भारत में एक सांसद का वेतन 55 हजार रुपए है और उसे संसदीय क्षेत्र भत्ता 45 हजार रुपए मिलता है। इसके अलावा वे दो सचिव रख सकते हैं, जिनका वेतन संसद ने 45 हजार रुपए तय किया हुआ है। पिछला पुनरीक्षण 2010 में हुआ था और सांसदों ने अपने लिए बहुत ज्यादा 150 प्रतिशत बढ़ोतरी की बात कही। इनके अतिरिक्त भी उन्हें काफी सारे लाभ मिलते हैं।

आयरलैंड में एक सांसद का मूल वेतन करीब 60 लाख रुपए सालाना है। अमेरिका में एक सांसद का मूल वार्षिक वेतन 67 लाख रुपए है। ब्रिटेन में सांसद अपना कार्यालय चलाने, कर्मचारी रखने और लंदन तथा अपने संसदीय क्षेत्र में निवास स्थान के लिए होने वाले खर्च के बिल के आधार पर भुगतान भी हासिल करते हैं। संसद और अपने संसदीय क्षेत्र आने-जाने के लिए यात्रा भत्ता भी उन्हें मिलता है। जर्मनी में एक सांसद को मुफ्त यात्रा, सचिवालय भत्ता आदि जैसे लाभ के अतिरिक्त लगभग 70 लाख रुपये सालाना वेतन मिलता है। इसलिए यह बात तो ठीक है कि एक भारतीय सांसद जितने लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, वह आयरिश सांसद से 70 गुना और ब्रिटिश सांसद से 25 गुना ज्यादा है, जबकि उसका मूल वेतन और उसके भत्ते ब्रिटेन और यूरोप के सांसदों की तुलना में 15 से 20 प्रतिशत ही हैं। लेकिन मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त वाई-फाई, मोबाइल फोन जैसी कुछ बेतुकी अतिरिक्त सुविधाएं भी उन्हें मिलती हैं।

तो फिर रास्ता क्या है? कुछ सुझाव हैं, जिन पर गौर किया जा सकता है। संसद को अपने सदस्यों के वेतन और भत्तों के निर्धारण के लिए सांसदों और कुछ प्रतिष्ठित लोगों की एक समिति बनानी चाहिए। किसी तरह की बढ़ोतरी इस निष्पक्ष समिति की सिफारिश के आधार पर हो। सांसदों को खुद अपने वेतन में बढ़ोतरी नहीं करनी चाहिए। सांसदों को एक समेकित, सरल शब्दों में मोटा वेतन मिलना चाहिए, लेकिन मुफ्त पानी, बिजली, वाई-फाई आदि सभी लाभ खत्म कर दिए जाने चाहिए। सांसदों को वीवीआईपी के दर्जे वाले व्यवहार की मांग बंद कर देनी चाहिए, क्योंकि यह सिर्फ लोगों को गुस्सा दिलाती है। और अंत में एक बात, सांसदों को ज्यादा सक्षम यानी कामकाजी संसद और अपने व्यवहार में ज्यादा नैतिक आचरण की गारंटी देनी होगी।

-लेखक प्रसार भारती के अध्‍यक्ष हैं।