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साइबर शोहदों से किनारा कीजिए-- शशि शेखर

सरकार लोगों को मुझसे प्रेम करने के लिए तैयार नहीं कर सकती, मगर भीड़ को मेरी जान लेने से जरूर रोक सकती है। तफरीहन, यूरोप की हसीन वादियों में घूम रहे मेरे एक आत्मीय को पिछले दिनों मार्टिन लूथर किंग जूनियर के ये शब्द बार-बार याद आए। वजह? उनसे बार-बार घुमा-फिराकर पूछा गया कि आप हिन्दुस्तानी क्या बलात्कारी और रक्त पिपासु हैं? जवाब में उन्होंने पुरातन संस्कृति से लेकर नई आर्थिक प्रगति तक की दास्तां सुना डाली, पर हर बार नाकामयाब रहे।


इस जिल्लत के पीछे थी थॉमसन रायटर फाउंडेशन की वह रिपोर्ट, जिसमें हिन्दुस्तान को औरतों के लिए सबसे खतरनाक मुल्क बताया गया था। कहने की जरूरत नहीं कि वह बुझे मन से स्वदेश वापस आए। अगर वह इन दिनों वहां होते, तो न जाने उन्हें और क्या-क्या सुनना पड़ जाता!

पिछले हफ्ते की खबरों पर जरा गौर फरमाइए। ‘जय श्री राम' के ट्विटर बायो से अकाउंट चलाने वाले एक व्यक्ति ने कांगे्रस की महिला प्रवक्ता को ट्वीट किया- ‘मैं तेरी बेटी के साथ बलात्कार करना चाहता हूं, अपनी बेटी को मेरे पास भेजो।' मैं इस ट्वीट को पढ़कर सन्न रह गया था। खुद को रामभक्त बताने वाला कोई इतनी अमर्यादित बात कैसे लिख-सोच सकता है?

राम तो भारतीय संस्कृति में मर्यादा के प्रतीक हैं। ट्विटर पर ऐसी गुस्ताखी करने वाला वह शख्स न केवल रामद्रोही, बल्कि कायर भी निकला। कांग्रेस नेत्री की शिकायत पर मुंबई पुलिस ने जैसे ही मुकदमा दर्ज किया, वह अपना अकाउंट बंद कर चंपत हो गया। हुकूमत ने ‘ट्विटर इंडिया' से इस अकाउंट के कर्ता-धर्ता का ब्योरा मांगा और अहमदाबाद से धर दबोचा। अदालत से शायद उसे अपने दुस्साहस का दंड मिल जाए, पर ऐसे गैर-जिम्मेदार और लंपट हमारे देश की छवि को कितना बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं?

बताने की जरूरत नहीं, सोशल मीडिया पर जारी सामग्री समूची धरती के लोगों की साझी विरासत होती है। इसे विदेश में बैठे लोग भी पढ़ते-समझते हैं। भारत-विरोधियों के लिए ऐसी लंपटई हथियार बन जाती है और निरपेक्ष व्यक्ति इसके जरिए गलत धारणा बना लेते हैं। ऐसा नहीं है कि विपक्ष के लोग ही इनका निशाना बनते हैं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज तक इसकी चपेट में हैं। लखनऊ की तन्वी और अनस के मामले में उनके एक ट्वीट के जवाब में ट्रोल योद्धाओं ने उन पर जो लानत बरसाई, उससे सुषमा जी के दुश्मन तक सहमत नहीं हो सकते। सुषमा राजनीति में हमेशा मर्यादा के साथ चली हैं, उन पर ऐसा हमला चौंकने पर मजबूर करता है। शुरुआती दौर में उनकी पार्टी ने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया, पर जब प्रवाद ज्यादा फैलने लगा, तो पहले धीर-गंभीर राजनाथ सिंह आगे आए। बाद में नितिन गडकरी ने भी इस प्रवृत्ति की आलोचना की। हालांकि, सोशल मीडिया के सितमगरों ने यहां भी विष वमन का रास्ता ढूंढ़ निकाला। अब नुक्ताचीनी हो रही है कि अमुक क्यों नहीं बोले? किस वजह से नहीं बोले? जितने ट्रोलर, उतनी बातें।

अफवाहों के पैर नहीं होते, पर सोशल मीडिया ने उसे पंख जरूर प्रदान कर दिए हैं। नतीजतन, समूची धरती प्रदूषित विचारों के प्रवाह का शिकार बन रही है। इसके परिणाम कितने विनाशकारी हैं, इसका दूसरा भयावह उदाहरण है देश के कोने-कोने में बरपाई जा रही हिंसा। पिछले दो महीनों के दौरान 22 लोग सिर्फ अफवाहों के चलते जान गंवा चुके हैं। एक उदाहरण पेश है। असम के जंगलों में दो प्रकृतिप्रेमी युवक पक्षियों का कलरव रिकॉर्ड करने के लिए चहलकदमी कर रहे थे। अचानक भीड़ ने उन्हें घेरकर पीटना शुरू कर दिया। आक्रामक लोग उन्हें शिशु चोर ठहरा रहे थे। वे सफाई देते रहे, अपना पता बताकर दरख्वास्त करते रहे कि बराए मेहरबानी एक बार दरयाफ्त तो कर लीजिए, मगर उन पर तब तक प्रहार होते रहे, जब तक वे बेदम नहीं हो गए। अकाल काल की चपेट में आ जाने वालों में एक होनहार इंजीनियर भी था। कमाल, सैकड़ों किलोमीटर दूर औरंगाबाद में भी उसी दिन ऐसी ही वधलीला खेली गई। दोनों जगहों पर खून बहने की वजह समान थी- अफवाह।

अपने बच्चों की सलामती के सरोकार में कोई बेवजह दूसरों के बच्चों को कैसे मार या अनाथ बना सकता है? यह सिलसिला लगातार जारी रहा। बस मरने वालों के नाम, स्थान और अफवाहों के प्रकार बदलते रहे। यह है सोशल मीडिया का अभिशाप।

हालात हाथ से निकलते देख सर्वोच्च न्यायालय को राज्य सरकारों के विरुद्ध तल्ख टिप्पणी करनी पड़ी। गृह मंत्रालय ने राज्यों की चाबी भरनी शुरू की। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सोशल मीडिया का संचालन करने वाली कंपनियों की भी नकेल कसनी शुरू कर दी। सिटपिटाए ट्विटर प्रबंधकों ने स्पष्ट किया कि हम सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ट्रोलिंग, अपशब्द, फर्जीवाड़ा, स्पैम आदि के खिलाफ ‘जीरो टॉलरेंस' की नीति बनाएंगे। इसके लिए शुरुआती कार्रवाई के तहत मई 2018 तक ऐसे एक करोड़ अकाउंट ब्लॉक कर दिए गए हैं, जो पिछले वर्ष की तुलना में 214 फीसदी अधिक हैं। कंपनी प्रवक्ता का दावा है कि अब तक 30 अहम बदलाव किए जा चुके हैं। नतीजतन, 50 हजार के करीब नकली खाते प्रतिदिन पकडे़ जा रहे हैं। ये आंकडे़ शुरुआती होने के बावजूद चौंकाते हैं कि हम किस तरह छद्म विचारों के अदृश्य सौदागरों के शिकार बन रहे हैं।

वक्त आ गया है, जब सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वाला हर नागरिक कुछ भी पढ़ने, देखने या सुनने के बाद तथ्यों को तौले बिना कोई प्रतिक्रिया न दे। आपकी यह तर्कबुद्धि किसी की जान बचा सकती है, किसी महिला की गरिमा को तार-तार होने से रोक सकती है और देश की मर्यादा की रक्षा में कारगर भूमिका अदा कर सकती है।

देर न करें। यह लड़ाई सिर्फ सरकार के हवाले कर चुप बैठे रहने में कोई समझदारी नहीं। पहल हमें-आपको करनी होगी, क्योंकि इन छलियों का शिकार हमारे बीच के लोग ही होते हैं।