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सात फीसदी तक कम हो सकती है सूरज की गर्मी, हिम युग की है आशंका!-- अमिताभ पांडे

अमेरिका की यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया सैन डिएगो के सोलर वैज्ञानिकों ने आशंका जतायी है कि आगामी दशकों में सूरज की तीक्ष्णता कमजोर पड़ सकती है. हालांकि, ऐसी घटना पहली बार नहीं होगी और इससे पहले भी ऐसी घटना हो चुकी है. लेकिन, इतना जरूर है कि धरती पर इससे अनेक बदलावों की आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता. क्या है यह घटना और इससे जुड़े अनेक पहलुओं के बारे में पड़ताल कर रहा है आज का इन डेप्थ पेज ...

सोलर मिनिमा के कारण होगी यह परिघटना


अमेरिका के सोलर वैज्ञानिकों ने आगामी दशकों में सूरज की तीक्ष्णता में कमी आने की आशंका जाहिर की है. आम तौर पर सूरज के आकार-प्रकार या किसी अन्य चीज में हमें खास बदलाव नजर नहीं आता है. सूरज के बारे में हम अब तक जो भी जान-समझ पाये हैं, वह दूरबीन के जरिये ही मुमकिन हो पाया है. दूरबीन का आविष्कार होने के बाद सबसे पहले शायद गैलीलियो ने सूरज को बारीकी से देखा. पाया गया कि सूरज पर अनेक धब्बे मौजूद हैं.

ये धब्बे काफी चौंकाने वाली चीज थी, क्याेंकि पहले लोग उसे देवता मानते थे. वैज्ञानिकों ने जब इन धब्बों का विस्तार से अध्ययन किया, तो पता चला कि वाकई में वहां अनेक धब्बे हैं, जो बनते रहते हैं और नष्ट होते रहते हैं. हालांकि, चंद्रमा की तरह सूरज पर स्थायी धब्बे नहीं पाये गये हैं. यह भी पता चला कि सूरज अपनी धुरी पर घूमता है. इन धब्बों (सनस्पॉट) का एक चक्र यानी साइकल होता है, जिसमें नौ से लेकर 15 वर्षों तक का समय लगता है.

यह औसतन 11 वर्षों का होता है. इसमें ‘मिनिमा' और ‘मैक्सिमा' दो प्रमुख फैक्टर होते हैं. जब सूरज पर कोई धब्बा नहीं होता है, तो उस खास समय को ‘सोलर मिनिमा' कहते हैं और जब धब्बों की संख्या अत्यधिक हो जाती है, तो उसे ‘सोलर मैक्सिमा' कहते हैं. मैक्सिमा के दौरान कई बार 200 से भी अधिक धब्बे हो जाते हैं. अब तक के अध्ययन मेंइसे सामान्य प्राकृतिक घटना के रूप में दर्ज किया गया है.

सूरज का मैग्नेटिक फील्ड

‘सोलर मैक्सिमा' का कारण सूरज का मैग्नेटिक फील्ड है. यह धरती के मैग्नेटिक फील्ड के मुकाबले कई हजार गुना ज्यादा हो सकता है. सूरज के भीतर इलेक्ट्रिक डायनामो सरीखी चीज है, जो काफी गरम हो जाती है. इससे एक तरीके का इलेक्ट्रिक करेंट पैदा होता है.

उनके भीतर से एटम का प्रवाह शुरू हो जाता है. इससे गैसों का आयनीकरण होता है. इससे प्लाज्मा का निर्माण होता है. दरअसल, कोई गैस जब अपना इलेक्ट्रॉन खो देती है, तो उसे प्लाज्मा कहते हैं. यानी इसके भीतर प्लाज्मा की धाराएं बहती हैं. सूरज पर इनका बहाव उत्तरी से दक्षिणी ध्रुव की ओर होता है. यहां उल्लेखनीय है कि धरती की तरह ही सूरज का भी अपना ध्रुव होता है.

इन धाराओं के भीतर एक खास समय के दौरान सूरज के प्लाज्मा के भीतर और बाहर घूमने की दशा में फर्क आ जाता है. इससे प्लाज्मा की इन बड़ी धाराओं में गांठें बनने लगती हैं. ये गांठें जब सूरज के सतह की ओर बढ़ती हैं, तो वहां पर काफी मजबूत मैग्नेटिक फील्ड बन जाता है. यह मैग्नेटिक फील्ड वहां पर नीचे से आने वाली गैस के बहाव को कम करता है. इस पीरियड के दौरान सूरज का आउटपुट सबसे कम हो जाता है यानी उसकी गर्मी कम हो जाती है. इस दौरान सनस्पॉट बिलकुल ही गायब हो जाते हैं.

पहले भी हुआ था सोलर मिनिमा

दूरबीन के आविष्कार होने के बाद 17वीं सदी के उत्तरार्ध में इससे संबंधित परिघटना का उदाहरण हमारे सामने है. इस दौरान करीब 50 सालों तक सूरज पर सनस्पॉट गायब रहे. पूरे यूरोप में उस समय ठंड अधिक बढ़ गयी. इस परिघटना को उस समय हमारे मौसम और सौर वैज्ञानिकों ने जब आपस में जोड़ने की कोशिश की, ताकि यह जाना जा सके कि ठंड के बढ़ने का सूरज से कहीं कोई संबंध तो नहीं है? इससे अनेक तथ्य निकल कर सामने आये. पता चला कि जिस दौरान सूरज की तीक्ष्णता कम हो गयी थी, वह अवधि ‘सोलर मिनिमा' की थी.

हिम युग की आशंका

पिछली कुछ सदियों के लिखित इतिहास में शायद यह दूसरा मौका होगा, जब इस तरह की परिघटना देखने को मिलेगी. आम तौर पर यह अवधि नौ से 15 सालों की होती है. लेकिन, हाल में हुए अनेक अध्ययनों में वैज्ञानिकों ने यह आशंका जतायी है कि आगामी ‘सोलर मिनिमा' कुछ अधिक समय तक जारी रह सकता है. इससे धरती के एक बार फिर से हिम युग की ओर बढ़ने की आशंका भी जतायी गयी है. हालांकि, अभी इसकी अवधि के बारे में कोई अंदाजा मुकम्मल तरीके से नहीं किया जा सकता है.

धरती पर नहीं कोई खतरा

सोलर मिनिमा एक अस्थायी फेज है, जो कुछ सालों तक रह सकता है. लेकिन इससे धरती को किसी तरह का खतरा नहीं है. हमें बस इस बात से सतर्क रहना होगा कि इसकी आड़ में ग्लोबल वार्मिंग से निबटने की प्रक्रिया में किसी तरह की कोताही नहीं बरती जाये.

हालांकि, 17वीं सदी के उत्तरार्ध में हुई इस परिघटना से पहले भी इस तरह के लक्षण धरती पर देखे गये हैं, जब हिम युग रहा था. लेकिन, इस बारे में मुकम्मल ताैर पर यह कहना मुश्किल है कि उसका कारण ‘सोलर मिनिमा' रहा होगा. अभी इस बारे में विस्तार से अध्ययन जारी है. इस कार्य में अब सेटेलाइट का सहयोग भी लिया जा रहा है. उम्मीद है कि भविष्य में इस तरह की परिघटना को ज्यादा बारीकी से
समझा जा सकेगा.

कायम रहेगा ग्लोबल वार्मिंग का खतरा

पिछले कई दशकों से धरती पर ग्लोबल वार्मिंग की चिंता जतायी जा रही है. ऐसे में इस रिपोर्ट से उसके विपरीत किसी तरह का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. उल्लेखनीय है कि ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने की रफ्तार और ‘सोलर मिनिमा' की रफ्तार में बहुत अंतर है.
दरअसल, दोनों ही परिघटना अलग तरह की हैं. हमें यह समझना होगा कि ग्लोबल वार्मिंग जिस तेजी से बढ़ रहा है, उसे ‘सोलर मिनिमा' समायोजित नहीं कर पायेगा. क्योंकि सोलर मिनिमा के दौरान सूरज की गरमी में सात फीसदी तक की गिरावट आने का अंदेशा है, जबकि ग्लोबल वार्मिंग की चिंता पूरी धरती पर औसत तापमान में बढ़ोतरी होने से जुड़ी है.

यह तापमान पिछले कई दशकों से बढ़ रहा है. हां, इससे इतना जरूर हो सकता है कि कुछ सालों के लिए हमें ग्लोबल वार्मिंग की चुनौती से राहत मिल सकती है, लेकिन यह समझना गलत होगा कि इससे यह समस्या खत्म हो जायेगी.

सोलर मिनिमा बन सकता है सहायक

इसका एक दूसरा पहलू यह देखने को मिल सकता है कि दुनियाभर की पेट्रोलियम लॉबी इस रिपोर्ट से यह समझाने की कोशिश कर सकती है कि इससे धरती पर ग्लोबल वार्मिंग का खतरा टल सकता है, लेकिन हमें इस मामले में सतर्क रहना होगा और चीजों को समग्रता से समझना होगा. दुनियाभर में वायु प्रदूषण और कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन की यदि यही दशा रही, तो अगले कुछ दशकों में धरती का तापमान दो डिग्री से भी अधिक बढ़ सकता है.

इससे धरती पर मौजूद बर्फ पिघलना शुरू हो जायेगा. ‘सोलर मिनिमा' की परिघटना से इस पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा यानी वह धरती पर बर्फ को पिघलने से नहीं रोक पायेगा. इसलिए यदि ग्लोबल वार्मिंग से निबटने में हम अभी से ही कारगर तरीके से जुट जायें, तो शायद ‘सोलर मिनिमा' से कुछ सहारा मिल सकता है.

(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)