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सामाजिक, आर्थिक व जातीय जनगणना : समावेशी जुबान, मंशा अनजान!

आजादी के बाद भारत में गरीबी रेखा तय करने की दिशा में उठाये गये विभिन्न कदमों की सूची में पिछले कुछ वर्षो के दौरान संचालित सामाजिक, आर्थिक व जाति सर्वेक्षण का महत्वपूर्ण स्थान है. इसमें पहली बार किसी परिवार की सामाजिक पहचान को तरजीह दी गयी है. देश में लंबे अरसे से ऐसी मान्यता रही है कि गरीबी की मार कुछ सामाजिक श्रेणियों को ज्यादा ङोलनी पड़ती है, जिनमें से अधिकांश अनुसूचित जातियों या जनजातियों के रूप में वर्गीकृत हैं. मामला भूमिहीनता का हो या कुपोषण का. बात शैक्षिक अवसरों की उपलब्धता की हो या पारिवारिक आमदनी की, अनुसूचित जातियों या जनजातियों के समुदायों की बदहाली को रेखांकित करनेवाले आंकड़ों की कोई कमी नहीं!

इन्हीं बुनियादी विषमताओं का संज्ञान लेते हुए देश में पहली बार वर्तमान दशक के शुरुआती वर्षो में गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए विभिन्न सामाजिक व आर्थिक पैमानों के साथ-साथ जाति को भी गरीबी की कसौटी के रूप में शामिल किया गया. गरीबी के आकलन की इस प्रक्रिया के तहत हर परिवार को सात अलग-अलग मापदंडों पर चिह्न्ति किया जाता है, जिनमें ‘कच्ची दीवारों व कच्चे छत के एक कमरे में रहने की मजबूरी', ‘परिवार में 16 से 59 साल के किसी वयस्क सदस्य का मौजूद न होना', ‘16 से 59 वर्ष की उम्र के किसी वयस्क पुरुष की अनुपस्थिति में परिवार का महिला-प्रमुख होना', ‘परिवार में शारीरिक रूप से सक्षम किसी वयस्क के न रहते हुए किसी नि:शक्त सदस्य की उपस्थिति', ‘25 वर्षो से ज्यादा उम्र के किसी साक्षर वयस्क का परिवार में मौजूद न होना', तथा ‘भूमिहीनता की स्थिति में पारिवारिक रोजगार का मुख्यत: अनौपचारिक शारीरिक मजदूरी पर निर्भर होने' के साथ-साथ ‘परिवार का अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति का होना' भी शामिल हैं.

इस संदर्भ में देश में गरीबी निर्धारण के लिए अपनाये गये अन्य परंपरागत तरीकों की सीमाओं का विश्लेषण आवश्यक है. समय-समय पर विभिन्न विशेषज्ञ समितियों की सिफारिशों के अनुसार लागू किये गये विभिन्न तरीकों में आर्थिक मापदंडों, विशेषकर उपभोग-आधारित मापदंडों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. योजना आयोग के एक आकलन के अनुसार, देश में मार्च, 2012 के अंत तक सिर्फ 27 करोड़ या 21.9 प्रतिशत लोग ही गरीबी रेखा के नीचे अवस्थित थे.

 

जिस देश में लगभग 46 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से प्रभावित हों, जहां एक तिहाई से ज्यादा परिवार पूर्णत: भूमिहीन या एक एकड़ से कम जमीन के मालिक हों, जहां 90 प्रतिशत से अधिक जनसंख्या का गुजारा असंगठित प्रक्षेत्र में चलता हो, वहां सिर्फ 21.9 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा के नीचे बताया जाना बदहाली के जटिल और विविध स्वरूपों की बड़ी ही सीमित समझ प्रतिबिंबित करता है. गरीबी रेखा की एक व्यापक परिभाषा की जरूरत लंबे अरसे से महसूस की गयी है, जिसमें न सिर्फ आर्थिक मापदंडों को, बल्कि सामाजिक संबंधों, स्वास्थ्य व पोषण के स्तर, लिंगभेद के प्रभावों, जमीन जैसी महत्वपूर्ण परिसंपत्तियों के स्वामित्व, सुरक्षा व देखभाल की उपलब्धता इत्यादि जैसे कारकों को पर्याप्त तवज्जो दी जाये. असली चुनौती गरीब और गैर-गरीब जनसंख्याओं के बीच के फर्क को अभिव्यक्त कर पाने में सक्षम ऐसी कसौटी या विभाजक रेखा को ढूंढ़ पाने की है, जो विभिन्न प्रकार की बदहालियों में जी रहे लोगों की स्पष्ट पहचान कर सके तथा उन्हें प्राथमिकता के आधार पर सरकार की सेवाओं, सुविधाओं और कल्याणकारी योजनाओं का लाभ दिलवा सके.

सामाजिक, आर्थिक व जाति आधारित सर्वेक्षण का मकसद ऐसे परिवारों की पहचान करना है, जिनमें बदहाली जाहिर करनेवाले सात चुनिंदा सूचकों में अधिकांश एक साथ मौजूद हों. साथ ही इस आकलन की नीति के अनुसार, बेघर परिवारों, भीख मांगकर गुजारा करनेवाले परिवारों, मानव विष्ठा जैसी गंदगी की सफाई करनेवाले अपमाजर्कों, आदिम जनजातीय समूहों तथा कानूनी हस्तक्षेप से छुड़ाये गये बंधुआ मजदूरों को स्वत: ही गरीबों की श्रेणी में शामिल किया जाना है.

 

साथ ही ऐसे परिवारों को गरीबों की श्रेणी से स्वत: बाहर रखा जाना है, जिनके पास मोटर से चलनेवाले दोपहिया, तीनपहिया या चारपहिया वाहन, नाव या कृषियंत्र हों, 50,000 रुपये से अधिक की कर्ज सीमावाला किसान क्रेडिट कार्ड हो, परिवार का कोई सदस्य सरकारी सेवा में हो या 10,000 रुपये से अधिक मासिक आमदनी अजिर्त करता हो, जिसके गैर-कृषि उद्यम सरकार द्वारा पंजीकृत हों, जो आयकर या व्यावसायिक कर देता हो, जिसके पास पक्की दीवारों व छतोंवाले तीन कमरे हों, सिंचाई के साधन के साथ ढाई एकड़ या ज्यादा सिंचित भूमि हो, दो या दो से ज्यादा फसलों के लिए पांच एकड़ या ज्यादा सिंचित जमीन हो, कम-से-कम एक सिंचाई के साधन के साथ 7.5 एकड़ अपनी जमीन हो, निजी प्रशीतक (कोल्ड स्टोरेज) व लैंडलाइन दूरभाष हों.

गरीबों की पहचान में स्वत: समावेश या बहिष्कृत करनेवाले कारकों के प्रयोग पर आधारित यह तरीका यूं तो नीतिगत दृष्टिकोण से उपयोगी दिखता है, ऐसा लगता है कि इसके इस्तेमाल की विधि में कुछ विरोधाभाषी या आपत्तिजनक बातें रह गयी हैं. यह तर्क विचारणीय है कि जिन सात मापदंडों पर परिवारों को चिह्न्ति किया जाना है, उनमें से सभी मापदंड अपने आप में अलग-अलग प्रकार के आर्थिक व गैर-आर्थिक बदहालियों के महत्वपूर्ण सूचक हैं, अत: एक से ज्यादा मापदंडों की एक साथ मौजूदगी की खोज ही इन मापदंडों के अपने स्वतंत्र महत्व को कम आंकना है. कुल मिलाकर यह तरीका भी गरीबों की संख्या को कम से कम दिखाने, या दूसरे शब्दों में, अल्ट्रा गरीबों की पहचान के मकसद से ही प्रेरित लगता है.