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साम्यवाद गया पर लेनिन जिंदा हैं-- रामचंद्र गुहा

एक प्रति-तथ्यात्मक सवाल है- अगर त्रिपुरा में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माक्र्सिस्ट) ने भगत सिंह की मूर्तियां लगाई होतीं, तो क्या होता? क्या माकपा को सत्ता से बाहर कर देने के बाद भाजपाई उनके साथ भी यही सुलूक करते? एक साल पहले एक इतिहासकार मित्र, जो माकपा सदस्य भी हैं और मैं बेंगलुरु में लंच कर रहे थे। कम्युनिस्ट होने से अलग, अच्छे अध्येता, मजाकिया-हाजिर जवाब और क्रिकेट प्रेमी होने के नाते वह मेरे अच्छे दोस्त हैं। मैंने उनसे पूछा कि माकपा अधिवेशन स्थलों पर जर्मन विचारकों माक्र्स-एंगेल्स या रूसी तानाशाहों लेनिन और स्तालिन के ही बड़े-बडे़ पोस्टर क्यों दिखाई देते हैं? क्या इस राजनीतिक दल का कोई अपना ‘भारतीय आदर्श' नहीं है? कम से कम वे भगत सिंह को तो यह सम्मान दे ही सकते हैं? भगत सिंह तो भारतीय भी थे और माक्र्सवादी भी। इतिहासकार मित्र मुझसे सहमत थे और बात यहां आकर खत्म हुई कि वह इस मामले को पार्टी के उचित फोरम पर उठाएंगे। लेकिन लगता है कि उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ।

 

माकपा का भगत सिंह से ज्यादा लेनिन-स्टालिन प्रेम दो कारणों से है। एक तो वह जड़ता, जिसने उन्हें इन्हीं की वंदना सिखाई, और जो इससे बाहर निकलकर सोचने की इजाजत नहीं देती। जिस तरह वैष्णव, विष्णु या उनके अवतारों के अलावा किसी देव की कल्पना नहीं करना चाहते, उसी तरह माक्र्सवादी युवावस्था में पढ़ाए गए ‘आराध्यों' से आगे नहीं बढ़ पाते। माकपा में भगत सिंह को ज्यादा महत्व न मिलने का दूसरा कारण यह कि पार्टी अपनी जडे़ं अविभाजित कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया में पाती है, और भगत सिंह कभी भाकपा के सदस्य नहीं रहे। वह हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) का हिस्सा थे। भाकपा का आधार बंबई-कलकत्ता (अब मुंबई-कोलकाता) के श्रमिकों में था, तो एचएसआरए उत्तर भारत में ज्यादा प्रभावी थी। इसलिए, भगत सिंह माक्र्सवादी भले हों, अविभाजित भाकपा से उनका कभी न जुड़ना बड़ा कारण है कि उनके चित्र माकपा के मंचों पर नहीं दिखते।

 

त्रिपुरा के मामले में भाजपा ने लेनिन के विदेशी होने का आधार लिया। दरअसल एक अखबार ने एक भाजपा कार्यकर्ता के हवाले से छापा कि यदि मूर्तियां त्रिपुरा के कम्युनिस्ट नेता नृपेन चक्रवर्ती की होतीं, तो शायद यह सब न होता। हालांकि समस्या लेनिन का विदेशी होना नहीं, बल्कि उनका अलोकतांत्रिक होना है। वह एक ऐसे तानाशाह थे, जिन्होंने अपनी पार्टी को अपने अधीन करने से पहले देश को पार्टी के अधीन कर दिया था।

 

मैं भाजपा के विदेशी वाले तर्क या विचार के साथ नहीं हूं। मैं तो रवींद्र नाथ टैगोर के उस विश्वास के साथ हूं कि रोशनी दुनिया में कहीं भी हो, हमें खुद को उससे रोशन करना चाहिए। महानता देशों की सरहदों में नहीं बंध सकती। उदाहरण के लिए, मुझे खुशी होती, अगर नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग या वैकलाव हैवेल की मूर्तियां हमारे शहरों या कस्बों में दिखतीं। लेकिन मैं तानाशाहों के लिए एक रेखा तो जरूर खींचना चाहूंगा।

 

संयोग से लेनिन ट्विटर युग में होते, तो जबर्दस्त ट्रोल होते। उनका घृणा भाव महज पूंजीपतियों के लिए नहीं, बल्कि असहमति रखने वाले सोशलिस्टों के प्रति भी समान था। शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक परिवर्तन के लिए हिंसक क्रांति का विचार खारिज करने वाले जर्मन माक्र्सवादी एदुआर्दो बर्नस्टेन को भी लेनिन की नाराजगी का शिकार बनना पड़ा था।

 

लेनिन मानते थे कि सरकार में तभी शामिल होना चाहिए, यदि उसे अपने तरीके से प्रभावित करने या उस पर हावी होने की क्षमता हो। अन्य दलों और राजनेताओं के साथ जिम्मेदारियां या अधिकार साझा करना उनकी सोच में वर्जित था। 1996 में यही सोच आड़े आई, जब माकपा सेंट्रल कमेटी के वफादार लेनिनवादियों ने ज्योति बसु को भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। 2004 में इनसे इससे भी बड़ी गलती हुई, जब इन्हीं लोगों ने माकपा को केंद्र की यूपीए सरकार में शामिल होने से रोक दिया। 1996 में तो ज्योति बसु एक अल्प-बहुमत वाली सरकार के मुखिया बनते, जिसे एक-दो साल में गिर जाना था। लेकिन 2004 का फैसला तो इन्हें एक स्थायित्वपूर्ण यूपीए सरकार में शामिल होकर बहुत कुछ करने का अवसर दे सकता था।

 

लेनिन बहुत पहले कह गए थे कि ‘किसी अन्य दल के साथ मिलकर काम नहीं करना है', सो माकपा को मनमोहन सिंह सरकार में साझेदारी मुनासिब नहीं लगी। इसका खामियाजा माकपा को तो भुगतना ही था, देश की जनता को भी भुगतना पड़ा। कहना न होगा कि हम उनकी विचारधारा से सहमत न हों, तब भी कम्युनिस्ट राजनेता किसी अन्य राजनीतिक दल की अपेक्षा ज्यादा विवेकशील, कम भ्रष्ट, वंशवाद से अपेक्षाकृत दूर और किसी से भी कम सांप्रदायिक तो हैं ही। सच तो यही है कि माकपा चाहती, तो अपने अच्छे सांसदों के साथ 2004 की यूपीए सरकार में शामिल होकर कृषि और ग्रामीण विकास, जनजातीय कल्याण और महिला व बाल विकास जैसे मंत्रालयों में दिलोजान से काम कर देश के गरीबों की जिंदगी सुधारने का बड़ा काम कर सकती थी। उसके सांसद टेलीविजन और संसद के बेहतर इस्तेमाल से देश का भला तो करते ही, तब शायद वे केरल, त्रिपुरा और बंगाल से बाहर भी अपनी पार्टी की उपस्थिति बड़े फलक पर दर्ज करा पाते।

 

त्रिपुरा में लेनिन की मूर्तियां ढहाने वालों की निंदा की ही जानी चाहिए, पर जिन लोगों ने इससे पहले ये मूर्तियां खड़ी की थीं, उन पर तो तरस ही खाया जा सकता है। 1920 के दशक में तो लाहौर में रहने वाले भगत सिंह के पास कोई जरिया नहीं था कि वह रूस में लेनिन और स्टालिन के शासन की विकृतियों को समझ पाते, लेकिन 1930 के बाद के वर्षों तक यह सब लिखित रूप में सामने आने लगा था। 1956 में तो सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने स्वयं स्टालिन की निंदा की थी। 1989 में बर्लिन की दीवार गिरने तक लेनिन उन देशों से भी खारिज होने लगे या किए जा चुके थे, जहां कभी उनका शासन था। मगर दशकों की इस यात्रा में हमारे कम्युनिस्ट साथी न कुछ भूल पाए, न ही कुछ सीख पाए। सोवियत तानाशाही के दोनों प्रतीकों के साथ वे अब भी भक्ति भाव से लगे हुए हैं। अब जब वे त्रिपुरा, और पश्चिम बंगाल तो पहले ही, गंवा चुके हैं, तो क्या उम्मीद की जाए कि पार्टी के अगले अधिवेशन में इन दोनों रूसी तानाशाहों में से कोई भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी को जगह देगा? (ये लेखक के अपने विचार हैं)