Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/सारा-दोष-सरकार-का-ही-नहीं-है-आकार-पटेल-6127.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | सारा दोष सरकार का ही नहीं है - आकार पटेल | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

सारा दोष सरकार का ही नहीं है - आकार पटेल

भारतीय अर्थव्यवस्था की समस्या क्या है? क्या हुआ, जो विकास दर मुंह के बल गिरी? अगर आप इस विषय पर कुछ पढ़ें, तो आप इनमें से किसी एक नतीजे पर पहुंचेंगे- हमारी संसद आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी कानून बनाने में नाकाम रही, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रशासन संभालने में नाकाम रहे, उच्च स्तर की नौकरशाही फाइलों को आगे बढ़ाने में अड़ियल रवैया अपनाती रही, भ्रष्टाचार, चालू खाते का घाटा, जो इतना बड़ा है कि भारत इस मामले में दुनिया में तीसरे नंबर पर है, वित्तीय घाटा (यानी सरकार को जितना खर्च करना चाहिए, उससे कहीं ज्यादा कर रही है), खाद्य सुरक्षा कानून के आने के बाद यह घाटा और बढ़ेगा, दुनिया के बाजार में आर्थिक मंदी, पश्चिम एशिया पर एक और युद्ध के बादल, वगैरह। ये सारी समस्याएं या तो सरकार की वजह से हैं या फिर बाहरी माहौल की वजह से। यही वह जगह है, जहां इसका समाधान ढूंढ़ना चाहिए और सबसे महत्वपूर्ण बदलाव तो यह होगा कि नई दिल्ली की सरकार ही बदल दी जाए।

मुझे ऐसा लगता है कि जीडीपी की विकास दर तुरंत बढ़ाने का मामला कुछ ऐसे ही है, जैसे किसी कंपनी की सेहत की जांच उसकी हर तिमाही की रिपोर्ट से की जाए। यह देखा जाए कि तुरंत विकास दर कितनी मिल रही है और उसी आधार पर कंपनी के अधिकारियों के बारे में फैसला किया जाए। मेरे हिसाब से यह सोचने का गलत तरीका है। मैं इसे पूरे विश्वास से कैसे कह रहा हूं? क्योंकि ऊपर जो कारण गिनाए गए हैं, समस्या उनसे कहीं ज्यादा गहरी है। यह एक ऐसी अर्थव्यवस्था का सुस्त होना है, जहां प्रति व्यक्ति प्रति माह 8,000 रुपये से भी कम का उत्पादन होता है, यानी पूरी दुनिया के औसत का सातवां हिस्सा। यह ऐसी चीज है, जो सरकार की योग्यता और अयोग्यता से परे है। उच्च विकास दर का आधार हमारे देश के सबसे महत्वपूर्ण कारक- हमारी आबादी से ही नदारद है। यहां मैं वे पांच कारण दे रहा हूं, जिनकी वजह से मैं यह मानता हूं कि तेज विकास का यह दौर अस्थायी था और इसे खत्म होना ही था। और इसी वजह से हम लंबे समय तक गरीब और विकासशील देश बने रहेंगे।

पहला, जाति आधारित उद्यमिता का छोटा-सा सीमित आधार। इस पर मैं पहले भी काफी कुछ लिख चुका हूं। क्या यह बदल रहा है? निश्चित तौर पर। लेकिन इतनी तेजी से नहीं कि इसका बहुत बड़ा असर दिखाई दे सके। भारतीय जाति के दायरे में ही सोचते हैं। अच्छी शिक्षा से ही वे इस दायरे से निकल सकेंगे। लेकिन ऐसी अच्छी शिक्षा भारत में उपलब्ध नहीं है। दूसरा, शिक्षा का खराब स्तर। अगर आप उन लोगों में हैं, जिन्हें किसी काम के लिए लोगों की भर्ती करनी होती है, तो आप समझ सकते हैं कि यह समस्या कितनी बड़ी हो चुकी है। हमारे यहां दक्ष मजदूर नहीं मिलते और न ही मध्य स्तर के अच्छे प्रबंधक मिल पाते हैं। ये हालात बदलने वाले नहीं हैं और मुङो लगता है कि ये और खराब होंगे। तीसरा, हमारे यहां परोपकार की प्रवृत्ति नहीं पाई जाती, इसलिए सरकारी व्यवस्था के बाहर शिक्षा का विस्तार न के बराबर हुआ है। और हमारी पास इस बात को साबित करने के तमाम सबूत हैं कि सरकार इस मामले में नाकाम रही है। चौथा, हम बहुत बुरी तरह बाहर की तकनीक पर निर्भर हैं। लेकिन यह समस्या का कारण नहीं, परिणाम है। कारण यह है कि हमारे यहां सांस्कृतिक तौर पर वैज्ञानिक जिज्ञासा का अभाव है। न हमारी दिलचस्पी खोज करने में है, न मूल विज्ञान में और न व्यावहारिक विज्ञान में।

दुनिया में भारत का रचनात्मक योगदान कोई अहमियत नहीं रखता और इसे आसानी से खारिज किया जा सकता है। विचार हो या गुणवत्ता, हम सब कुछ आयात ही करते हैं। पांचवां, बदलाव की सारी प्रेरणाएं सरकार से ही आती हैं। कारण से ज्यादा यह हमारा रवैया है। यह हमारे जीवन में हर जगह दिखाई देता है। हमारा मध्य वर्ग किसी भी तरह से इस बात को स्वीकारने को तैयार नहीं है कि जो हालात हैं, उनके लिए किसी हद तक वह भी जिम्मेदार है। ऐसे हालात में हम किन सुधारों की उम्मीद कर सकते हैं? बहुत ज्यादा नहीं। इन पांचों में कोई भी चीज ऐसी नहीं है, जिसका संबंध सरकार से हो। सरकार इन मामलों में पूरी तरह अप्रासंगिक भले ही न हो, लेकिन उसकी भूमिका केंद्रीय भी नहीं है। इसका मतलब यह है कि चाहे नई दिल्ली में कोई भी बदलाव हो जाए या फिर नरेंद्र मोदी जैसी शख्सियत के हाथों में गुजरात की बागडोर हो, तो भी इन आंतरिक हालात पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। जमीन पर इस बात के काफी सबूत मिल जाएंगे, जो बताते हैं कि बहुत-से इन्फ्रास्ट्रक्चर हैं, जिन पर काम ही नहीं हुआ। निवेश और विकास को लेकर अब भी कई समस्याएं हैं।

आप कोलकाता से शांति निकेतन के खूबसूरत मल्टी लेन राष्ट्रीय राजमार्ग पर सफर कीजिए, वहां आपको उद्योग के नाम पर कुछ इमारतें भर मिलेंगी, जो आलू रखने के कोल्ड स्टोरेज हैं। वहां जो वास्तविक फैक्टरी मिलेगी, वह कभी खुल ही नहीं सकी- सिंगुर के उस भुतहा कस्बे में। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? नई दिल्ली? यह कहना तो शायद ज्यादती होगी। उदाहरण के लिए 2011 में पश्चिम बंगाल में कुल 325 करोड़ रुपये का निवेश हुआ। इसकी समस्या यहां है या कहीं बाहर है? मैं ऐसे 20 गुजराती लोगों के नाम गिना सकता हूं, जिनके खाते से अगर 325 करोड़ रुपये गायब हो जाएं, तो शायद वे उन पर ज्यादा ध्यान भी न दें। यह उदाहरण क्रूर लग सकता है, लेकिन सच यही है। लेकिन मीडिया में ऐसे कई बंगाली हैं, जो यह मानते हैं कि अगर मोदी जैसा मसीहा आ जाए, तो उनके राज्य की किस्मत बदल सकती है। जिस काम को नौ करोड़ से ज्यादा बंगाली भी मिलकर नहीं कर सकते, उसे करने की उम्मीद एक बेचारे गुजराती से की जा रही है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)