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सियासी खेल थी हज सब्सिडी-- अख्तरुल वासे

भारत सरकार ने मुसलमानों को दी जानेवाली हज सब्सिडी खत्म कर दी है. यह एक अच्छा फैसला है और इसे बहुत पहले ही खत्म कर दिया जाना चाहिए था. मुसलमानों में इस बात को लेकर कभी कोई गतिरोध या मतविरोध नहीं रहा है कि सब्सिडी नहीं खत्म की जाये.

हम तो एक अरसे से इस बात की मांग करते रहे हैं कि हज के लिए किसी सब्सिडी जैसे सरकारी एहसान की जरूरत नहीं है, इसलिए इसको खत्म कर दिया जाये. सुप्रीम कोर्ट ने भी यही बात कही थी कि हज सब्सिडी खत्म कर दी जानी चाहिए. क्योंकि, शरई ऐतबार से अगर आप देखें, तो हज उस आदमी पर फर्ज है, जो पूरी तरह से इसका खर्च उठाने की क्षमता रखता हो और उसके ऊपर किसी प्रकार की देनदारी और जिम्मेदारी न हो.

हज पर जाने की बुनियादी शर्त को यहां समझ लेते हैं. दरअसल, अपनी जिंदगी की तमाम जायज जरूरतों को पूरा करने और अपने बच्चों की शादी की जिम्मेदारी तक को पूरा करने के साथ अगर घर के बाकी सदस्यों के खाने-पीने या उनकी जरूरत का पूरा इंतजाम करने के बाद एक व्यक्ति के पास इतनी अर्थ-क्षमता हो कि वह हज करने जा सकता है, तभी वह जाये. कहने का अर्थ यह है कि हज पर जाने के लिए किसी तरह की दुनियावी जिम्मेदारी से भरी कोई बाधा नहीं होनी चाहिए और न ही उसके सिर पर कर्ज का कोई छोटा-बड़ा बोझ ही होना चाहिए. हर बाधा से मुक्त होने के बाद ही वह अपनी जिंदगी में एक बार हज के लिए जा सकता है. उसके बाद भी अगर उसके पास क्षमता है कि वह कई बार हज करे, तो वह कर सकता है.

अब बात हज सब्सिडी के नाम पर होनेवाली सियासत की. अगर कोई यह कह रहा हो कि यह सब्सिडी मुसलमानों को हज करने के लिए दी जा रही थी, तो यह उचित बात नहीं थी. दरअसल, शरीयत के ऐतबार से सब्सिडी का कोई औचित्य नहीं है.

हम सब्सिडी का इसलिए विरोध कर रहे थे, क्योंकि वह असल में हाजियों को दी ही नहीं जा रही थी, बल्कि एयरइंडिया का घाटा पूरा करने के लिए मुसलमानों की आड़ में हज सब्सिडी के नाम पर एक सियासी खेल खेला जा रहा था. इसलिए मैं अरसे से यह बात कह रहा था कि यह हज सब्सिडी मुसलमानों का तुष्टिकरण नहीं है, बल्कि एयरइंडिया के घाटे की भरपाई करने के लिए सरकार की एक साजिश है. अगर कोई पार्टी इस बात को भुना रही थी कि हज सब्सिडी देना मुसलमानों के तुष्टिकरण की राजनीति का हिस्सा है, तो मुझे इस पर कुछ नहीं बोलना.

हज को आसान और आरामदायक बनाने के लिए समंदर के रास्ते हज यात्रा पर जाने की फिर से व्यवस्था करने को लेकर अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने जो कोशिश की है, इसके लिए नकवी का स्वागत है और सऊदी सरकार को भी बधाई है. दूसरी बात, सऊदी सरकार ने भारतीय हज यात्रियों की जो संख्या बढ़ायी है, वह भी बेहद प्रशंसनीय है, क्योंकि भारत में मुसलमानों की एक बहुत बड़ी संख्या रहती है.

हज सब्सिडी के पैसे को सरकार ने अल्पसंख्यक लड़कियों की शिक्षा में खर्च किये जाने की बात कही है. मेरे ख्याल में, लड़कियों को दिये जानेवाले स्कॉलरशिप में अगर इस पैसे को भी जोड़ दिया जाये, तो इससे लड़कियों में शिक्षा का विस्तार ही होगा. यह एक अच्छा कदम होगा.


सभी लड़कियों को शिक्षित करना आज बहुत जरूरी है, क्योंकि इनके शिक्षित होने से ही अगली पीढ़ी में शिक्षा का विस्तार होगा. अल्लाह के रसूल मुहम्मद मुस्तफा(स.) ने कहा है कि 'मां की गोद से लेकर कब्र तक इल्म हासिल करो.' गौर करिये, रसूल ने मां की गोद कहा है, बाप की गोद नहीं कहा है.

जाहिर है, आज की बेटियां ही कल की मांएं हैं. इसलिए लड़कियों को शिक्षित करना आज बहुत जरूरी है. और जिस समाज में मांएं शिक्षित होंगी, उस समाज के बच्चे कभी जाहिल हो ही नहीं सकते. मेरा मानना है कि लड़कियों की शिक्षा के विस्तार के लिए सरकार को हरसंभव कोशिश करनी चाहिए.

इस खबर के बाद कई नेताओं के बयान आये हैं कि दूसरे धर्मों के धार्मिक आयोजनों के लिए दी जानेवाली सरकारी मदद भी क्या बंद होगी? मेरा ख्याल है कि यह हमारी सरकारों और सुप्रीम कोर्ट का काम है, कि जिस तरह हज सब्सिडी खत्म हुई है, उसी तरह उन पर भी संज्ञान लें. हज के सिलसिले में इस्लाम इस बात की इजाजत नहीं देता कि कोई किसी तरह की मदद ले. इसलिए मैं सिर्फ इस्लाम की बात करूंगा, दूसरे धर्मों में क्या कहा गया है, उन्हें क्या दिया जा रहा है, इस पर मैं ध्यान नहीं देता और न ही यह मेरा काम है. ऐसे सवाल उठाकर इस मसले को सांप्रदायिक नहीं बनाना चाहिए.

हज सब्सिडी का खेल साल 1992-93 में शुरू हुआ था. साल 1992 में बाबरी मस्जिद की शहादत के बाद नरसिम्हा राव ने मुसलमानों को एक तरह से रिझाने के लिए हज सब्सिडी देनी शुरू की थी, उससे पहले यह प्रावधान नहीं था. मेरा दावा है कि यह एक राजनीतिक खेल था, जिसे नरसिम्हा राव ने खेला था. और ऐसे हर उस खेल को भाजपा भुनाने की कोशिश करती है, जिसमें मुसलमान शब्द शामिल है. लेकिन, कोई क्या कह रहा है, हमें इसे नहीं देखना है, बल्कि हमें अपनी शरीयत के हिसाब से चलना है. शरीयत के मूलभूत सिद्धांतों का किसी हाल में हनन नहीं होना चाहिए.