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सिर्फ नारों से नहीं बचेगी पृथ्वी-- रोहित कौशिक

काफी समय से पेरिस जलवायु समझौते की आलोचना कर रहे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने आखिरकार अमेरिका को इस समझौते से अलग कर लिया। ट्रंप का कहना है कि इस समझौते से भारत और चीन को अनुचित लाभ मिल रहा है। पेरिस समझौते के तहत दोनों देश अगले कुछ वर्षों में कोयले से संचालित बिजली संयंत्रों को दोगुना कर लेंगे और भारत को अपनी योजनाएं पूरी करने के लिए अच्छी-खासी वित्तीय सहायता प्राप्त होगी। ट्रंप को आशंका है कि इस तरह भारत, चीन के साथ मिलकर अमेरिका पर वित्तीय बढ़त हासिल कर लेगा। उनका मानना है कि पेरिस समझौता अमेरिका के लिए अनुचित है क्योंकि इससे उसके उद्योगों और रोजगार पर बुरा असर पड़ रहा है। ट्रंप ने पेरिस समझौते से हटने के संकेत जी-7 सम्मेलन के दौरान ही दे दिए थे। 2015 में अमेरिका समेत लगभग दो सौ देशों ने पेरिस में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। इसके तहत 2025 तक कार्बन डाइआॅक्साइड के उत्सर्जन में 26 से 28 फीसद (वर्ष 2005 के स्तर से) तक की कमी लाने पर सहमति बनी थी। इसके साथ ही विकासशील और अविकसित देशों को रियायती दरों पर हरित तकनीक मुहैया कराने और आर्थिक पैकेज देने की बत कही गई थी।
 

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज पृथ्वी को बचाने के लिए भाषणबाजी तो बहुत होती है लेकिन धरातल पर काम नहीं हो पाता है। यही कारण है कि पर्यावरण की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। पिछले दिनों नासा के एक अध्ययन ने बताया कि इस साल की जनवरी पिछले 137 वर्षों की तीसरी सबसे गर्म जनवरी थी। इस साल फरवरी और मार्च और अप्रैल भी गर्म रहा। यह हम सबके साथ-साथ समाज के उस वर्ग के लिए भी चिंता का विषय है जो ग्लोबल वार्मिंग पर चर्चा करने को एक फैशन मानने लगा था। दरअसल, इन दिनों संपूर्ण विश्व में पृथ्वी को बचाने के नारे जोर-शोर से सुने जा सकते हैं, लेकिन जब नारे लगाने वाले ही इस अभियान की हवा निकालने में लगे हों तो पृथ्वी पर संकट के बादल मंडराने तय हैं।

 


आज दुनिया में अनेक मंचों से पृथ्वी बचाओ की जो गुहार लगाई जा रही है उसमें एक अजीब विरोधाभास दिख रहा है। पृथ्वी सभी बचाना चाहते हैं लेकिन अपने त्याग के बल पर नहीं, दूसरों के त्याग के भरोसे। टिकाऊ विकास, हरित अर्थव्यवस्था और पर्यावरण संबंधी अन्य चुनौतियों पर चर्चा जरूरी है, लेकिन इसका फायदा तभी होगा जब हम व्यापक दृष्टि से सभी देशों के हितों पर ध्यान देंगे। हरित अर्थव्यवस्था की अवधारणा यह है कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बिना सभी वर्गों की तरक्की हो। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि विकसित देश इस अवधारणा के क्रियान्वयन के लिए विकासशील देशों की अपेक्षित सहायता नहीं करते हैं। स्पष्ट है कि विकसित देशों की हठधर्मिता की वजह से पर्यावरण के विभिन्न मुद््दों पर कोई स्पष्ट नीति नहीं बन पाती है।

 

 


इस दौर में पर्यावरण को लेकर विभिन्न अध्ययन प्रकाशित होते रहते हैं। कभी-कभी इन अध्ययनों की विरोधाभासी बातों को पढ़ कर लगता है कि पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे मुद््दों पर हौवा खड़ा किया जा रहा है। लेकिन जब पर्यावरण के बिगाड़ पर गौर किया जाता है तो जल्दी ही यह भ्रम टूट जाता है। वास्तव में हम पिछले अनेक दशकों से भ्रम में ही जी रहे हैं। यही कारण है कि पर्यावरण के अनुकूल तकनीक के बारे में सोचने की फुरसत किसी को नहीं है। पुराने जमाने में पर्यावरण के हर अवयव को भगवान का दर्जा दिया जाता था। इसीलिए हम पर्यावरण के हर अवयव की इज्जत करना जानते थे। नए जमाने में पर्यावरण के अवयव वस्तु के तौर पर देखे जाने लगे और हम इन्हें मात्र भोग की वस्तु मानने लगे। उदारीकरण की आंधी ने तो हमारे सारे ताने-बाने को ही नष्ट कर दिया। हमें यह मानना होगा कि जलवायु परिवर्तन की समस्या किसी एक शहर, राज्य या देश के सुधरने से हल होने वाली नहीं है। पर्यावरण की कोई ऐसी परिधि नहीं होती कि एक जगह प्राकृतिक संसाधनों का दोहन या प्रदूषण होने से उसका प्रभाव दूसरी जगह न पड़े। इसीलिए इस समय संपूर्ण विश्व में पर्यावरण को लेकर चिंता देखी जा रही है। हालांकि इस चिंता में खोखले आदर्शवाद से लिपटे नारे भी शामिल हैं। जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलनों में हम इस तरह के नारे सुनते रहते हैं।

 

 


सवाल यह है कि क्या खोखले आदर्शवाद से जलवायु परिवर्तन का मसला हल हो सकता है? यह सही है कि ऐसे सम्मेलनों के माध्यम से विभिन्न बिंदुओं पर सार्थक चर्चा होती है और कई बार कुछ नई बातें भी निकल कर आती हैं। लेकिन यदि विकसित देश एक ही लीक पर चलते हुए केवल अपने स्वार्थों को तरजीह देने लगें तो जलवायु परिवर्तन पर उनकी बड़ी-बड़ी बातें बेमानी लगने लगती हैं। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों की वृ़िद्ध इसी तरह जारी रही तो दुनिया में लू, सूखे, बाढ़ व समुद्री तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की आवृत्ति बढ़ जाएगी। कुपोषण, पेचिश, दिल की बीमारियों तथा श्वसन संबंधी रोगों में इजाफा होगा। बार-बार बाढ़ आने और मच्छरों के पनपने से हैजा तथा मलेरिया जैसी बीमारियां बढ़ेंगी। तटीय इलाकों पर अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा और अनेक परिस्थितिक तंत्र, जंतु तथा वनस्पतियां विलुप्त हो जाएंगी। तीस फीसद एशियाई प्रवाल भित्ति जो कि समुद्री जीवन का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है, अगले तीस सालों में समाप्त हो जाएंगी। वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा बढ़ने से समुद्र के अम्लीकरण की प्रक्रिया लगातार बढ़ती चली जाएगी जिससे खोल या कवच का निर्माण करने वाले प्रवाल या मूंगा जैसे समुद्री जीवों और इन पर निर्भर रहने वाले अन्य जीवों पर नकारात्मक प्रभाव पडेÞगा।

 

 


दरअसल, उन्नत भौतिक अवसंरचना (फिजिकल इन्फ्रास्ट्रक्चर) जलवायु परिवर्तन के विभिन्न खतरों जैसे बाढ़, खराब मौसम, तटीय कटाव आदि से कुछ हद तक रक्षा कर सकती है। ज्यादातर विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन के प्रति सफलतापूर्वक अनुकूलन के लिए आर्थिक व प्रौद्योगिकीय स्रोतों का अभाव है। यह स्थिति इन देशों में उस भौतिक अवसंरचना के निर्माण की क्षमता में बाधा प्रतीत होती है जो कि बाढ़, खराब मौसम का सामना करने तथा खेती-बाड़ी की नई तकनीक अपनाने के लिए जरूरी है। हरेक पारिस्थितिक तंत्र के लिए अनुकूलन विशिष्ट होता है। विभिन्न तौर-तरीकों से जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित किया जा सकता है। इन तौर-तरीकों में ऊर्जा प्रयोग की उन्नत क्षमता, वनों के काटने पर नियंत्रण और जीवाश्म र्इंधन का कम से कम इस्तेमाल जैसे कारक प्रमुख हैं।

 

 


विकसित देशों (जिनमें अमेरिका, कनाडा,आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा पश्चिम यूरोप के देश शामिल हैं) की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या की 22 फीसद है जबकि वे 88 फीसद प्राकृतिक संसाधनों तथा 73 फीसद ऊर्जा का इस्तेमाल करते हैं। साथ ही विश्व की पचासी फीसद आय पर उनका नियंत्रण है। दूसरी ओर, विकासशील देशों की जनसंख्या विश्व की जनसंख्या का 78 फीसद है जबकि वे 12 फीसद प्राकृतिक संसाधनों तथा 27 फीसद ऊर्जा का ही इस्तेमाल करते हैं। उनकी आय विश्व की आय का सिर्फ पंद्रह फीसद है।
 
 
इन आंकड़ों से स्पष्ट हो जाता है कि विकसित देश कम जनसंख्या होने के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों का अधिक इस्तेमाल कर अधिक प्रदूषण फैला रहे हैं। इसलिए उत्सर्जन कम करने की ज्यादा जिम्मेदारी उन्हें ही उठानी चाहिए। विकासशील देशों को नसीहत देने से पहले विकसित देश अपने गिरेबान में नहीं झांकें। अब हमें यह समझना होगा कि सिर्फ नारों से पृथ्वी नहीं बचेगी।