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सिर्फ लुभावनी बातों से नहीं- हरवीर सिंह

देश की दोनों बड़ी राजनीतिक पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस, का मानना है कि आम आदमी के जीवन को बेहतर करने और गरीबी उन्मूलन का एक ही मंत्र है, वह है-ऊंची विकास दर। लेकिन इस समय आर्थिक विकास दर दशक के सबसे कमजोर दौर से गुजर रही है। मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही के लिए विगत शुक्रवार को आए केद्रीय सांख्यिकी संगठन (सीएसओ) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, लगातार सातवीं तिमाही में विकास दर पांच फीसदी से नीचे रही है। इस अवधि में विकास दर 4.7 फीसदी रही है। लेकिन जब केंद्र में सत्तासीन यूपीए की सरकार 12वीं योजना का खाका तैयार कर रही थी, तब नौ फीसदी से ऊंची विकास दर का लक्ष्य रखा गया था। ताजा आंकड़े साबित करते हैं कि सरकार विकास को गति देने में नाकाम रही है और आम आदमी, उद्योग जगत, कॉरपोरेट और निवेशकों को यूपीए से ज्यादा उम्मीद नहीं दिख रही।

उम्मीद न दिखने के कारण निवेश के लगातार कमजोर हो रहे आंकड़े हैं। मैन्यूफैक्चरिंग में नई क्षमता नहीं जुड़ रही, नया निवेश नहीं हो रहा और पूंजी निर्माण में गिरावट आ रही है। अप्रैल से दिसंबर, 2012 की अवधि में सकल पूंजी निर्माण में 0.13 फीसदी की गिरावट आई, वहीं अप्रैल से दिसंबर, 2013 में यह गिरावट एक फीसदी तक पहुंच गई। वह भी तब, जब पिछले कुछ महीने में प्रधानमत्री की अध्यक्षता में बनी कैबिनेट कमेटी ऑन इनवेस्टमेंट (सीसीआई) ने तीन लाख करोड़ रुपये से ज्यादा की परियोजनाओं को मंजूरी देने का दावा किया। पर हालात नहीं सुधर रहे और इन फैसलों के बावजूद निवेशकों का भरोसा नहीं लौट रहा। सड़क परियोजनाओं, सिंचाई परियोजनाओं, बिजली उत्पादन क्षमता और दूसरी ढांचागत सुविधाओं के साथ मैन्यूफैक्चरिंग में जब तक निवेश नहीं बढ़ेगा, तब तक अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी पर नहीं आएगी।

केंद्र में नई सरकार बनाने के सबसे बड़े दावेदार के रूप में खुद को पेश कर रही भाजपा और उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस संकट को हल करने के लिए सबसे अधिक विश्वस्त दिखने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले सप्ताह दिल्ली में अर्थव्यस्था के विभिन्न क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोगों के साथ तीन कार्यक्रमों में मोदी ने एक ही दिन शिरकत की और अपना आर्थिक नजरिया पेश किया।

देश के मौजूदा आर्थिक हालात के लिए उन्होंने यूपीए सरकार को जिम्मेदार ठहराया और उसके गवर्नेंस की नाकामी को इसका मुख्य कारण बताया। अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और आम आदमी की उम्मीदें पूरी करने के लिए मोदी ने 3डी से लेकर सात सूत्री मंत्र तक बताए। उनका सर्वाधिक जोर स्थायी सरकार और कॉरपोरेट फ्रेंडली पॉलिसी पर रहा। नियम-कानूनों में कमी और पारदर्शिता की उन्होंने वकालत की। गांव की आत्मा और शहर की सुविधाओं की अहमियत उन्होंने बताई, तो ऊंची कृषि विकास दर और कृषि उत्पादों के मूल्यवर्द्धन के जरिये गांवों से पलायन रोकने का फॉर्मूला भी दिया। आईटी की कामयाबी के बाद बीटी (बायो टेक्नोलॉजी) और� ईटी (इनवायर्नमेंट टेक्नोलॉजी) को भविष्य की तरक्की का सूत्र बताया।

लेकिन स्थायी और फैसले लेने वाली सरकार के दावे को छोड़ दें, तो मोदिनोमिक्स की अधिकांश बातें और नीतियां वही हैं, जो यूपीए सरकार की हैं। यानी मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और मोंटेक सिंह अहलूवालिया की तिगड़ी का नजरिया ही मोदी का नजरिया है। अगर अखिल भारतीय व्यापारियों के संघ कैट में दिए गए मोदी के भाषण को देखें, जिसमें उन्होंने संगठित रिटेल, बाजारवाद, प्रतिस्पर्धा, आधुनिकीकरण और तकनीक के उपयोग की नसीहत व्यापारियों को दी, तो साफ है कि भाजपा के लिए स्वदेशी का एजेंडा अब पुराना हो चुका है।

सबसे अहम बात यह कि नरेंद्र मोदी के इस आर्थिक नजरिये में अर्थव्यवस्था को मौजूदा हालात से उबारने की दृष्टि नहीं दिखती। जब देश का कॉरपोरेट जगत कर्ज के भारी बोझ से दबा हुआ है, बैंकों के पास अधिक ऋण देने के लिए पैसे नहीं हैं, एनपीए यानी डूबे हुए कर्ज का स्तर 10 फीसदी तक पहुंच गया है; विशेषज्ञों के मुताबिक, एनपीए का स्तर इससे कहीं ज्यादा है, तो फिर निवेश कैसे बढ़ेगा? जबकि तेज विकास दर के लिए निवेश का बढ़ना पहली शर्त है। नरेंद्र मोदी 24 घंटे, 365 दिन बिजली की उपलब्धता के गुजरात का अनुभव साझा करते हैं, पर पूरा देश गुजरात नहीं है और सबसे ज्यादा एनपीए बिजली परियोजनाओं में ही है।

जिस संघीय ढांचे को मजबूत करने की बात वह कर रहे हैं, उसके लिए देश के हर राज्य और हिस्से की परिस्थितियां के मुताबिक ही हल ढूंढने होंगे। जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) जैसे बड़े कर सुधारों पर वह गंभीर नहीं दिखते। वह कहते हैं कि भाजपा इसके विरोध में नहीं है, लेकिन इसके लिए पहले आईटी ढांचा तैयार करना चाहिए। उनसे पूछा जा सकता है कि कुछ महीने पहले तक जीएसटी पर राज्यों की समिति के प्रमुख भाजपा के सुशील मोदी ही थे। अगर जीएसटी के लिए आईटी पहली जरूरत है, तो मोदी ने गुजरात में यह ढांचा तैयार क्यों नहीं किया? यही नहीं, देश की कृषि विकास दर चार फीसदी से ज्यादा चलने के बावजूद वह इसे दो फीसदी बता रहे हैं।

इसमें दो राय नहीं कि यूपीए की शासन के दौरान अर्थव्यवस्था बेहद कमजोर हालत में है। केंद्र की सत्ता में आने वाली नई सरकार की चुनौती होगी कि वह किस तरह हालात को बदलती है। पर इसके लिए नरेंद्र मोदी हों, राहुल गांधी हों या अरविंद केजरीवाल-उन्हें लुभावनी बात और जुमले छोड़ अर्थव्यवस्था की रिकवरी के नजरिया के साथ जनता के बीच आना होगा।