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सिर्फ विलाप से नहीं बचेगी धरती-- सुनीता नारायण

अर्थव्यवस्था, राजनीति और प्रकृति के नजरिये से पिछला साल काफी उथल-पुथल वाला वर्ष रहा। ब्रिटेन यूरोपीय संघ से बाहर निकला, डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के नए राष्ट्रपति चुने गए और अनियमित मौसम व असमय बारिश से पूरी दुनिया हलकान रही; गरीबों के घर और खेत तबाह हुए। ये तमाम चीजें अब बीते दिनों की बातें भले लगती हों, लेकिन जिस तरह से हमारे लक्ष्य बदल रहे हैं, भविष्य इससे भी बुरा होने वाला है।


बीते वर्ष की यह तस्वीर बता रही है कि अब कुछ बड़े बदलाव की जरूरत है, ताकि हमारा भविष्य अलग, बेहतर और सुरक्षित हो। यह तस्वीर इस बात का भी संकेत है कि जिस तरह से हम अपनी अर्थव्यवस्था को संचालित कर रहे हैं, उसमें कहीं कुछ गलत तो जरूर है, क्योंकि समाज में काफी असंतोष फैल रहा है, और धनी वर्ग भी इससे अछूता नहीं है। इस तस्वीर का एक अर्थ यह भी है कि मौजूदा आर्थिक विकास हमारी आबोहवा को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है, नतीजतन, हवा, पानी, जमीन और खान-पान तेजी से जहरीले हो रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग का खतरा तो बढ़ा ही है। दरअसल, हमने विकास का एक ऐसा मॉडल अपनाया है, जो निरंकुश उपभोक्तावाद को बढ़ावा देता है। यह गरीबों को तो भुला बैठा ही है, खुद अमीरों के हित में भी नहीं है।


भारत और चीन जैसे देश विकास के जिस पश्चिमी मॉडल की ओर ताकते रहते हैं, उस पर चलना खतरे से खाली नहीं है। इस मॉडल में प्राकृतिक संसाधनों का जमकर दोहन किया जाता है। यह सच है कि औद्योगिक दुनिया के देश भारी-भरकम निवेश करके अब यह जान चुके हैं कि धनिक बनने के प्रतिकूल प्रभावों को किस कदर कम किया जाए। मगर ये प्रतिकूल प्रभाव पैदा ही न हों, इसका उपाय नहीं ढूंढ़ पाए हैं। औद्योगिक रूप से विकसित और बड़े देशों में होने वाले कार्बनिक उत्सर्जनों ने पूरी दुनिया की आबोहवा को चोट पहुंचाई है। इससे हुए मौसमी बदलाव ने लाखों लोगों के सामने अस्तित्व का संकट पैदा कर दिया है। यानी पश्चिमी देश न सिर्फ खुद की खड़ी की गई मुश्किलों का सामना कर रहे हैं, बल्कि उन तमाम देशों पर भी उसे थोप रहे हैं, जो इनसे मुकाबला करने में उतने सक्षम नहीं हैं। ऐसे में, सवाल यह उठता है कि क्या गरीब मुल्कों को अब भी यह मॉडल अपनाना चाहिए? हालांकि एक परेशानी यह भी है कि हमने अब तक कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं तलाशा है। कहा तो यही जाता है कि अमीर बनने की यह होड़ ही विकास है।


इस विश्व पृथ्वी दिवस के मौके पर हमें उन तीन अलग-अलग घटनाक्रमों पर भी नजर डालनी होगी, जो आपस में बुरी तरह गुंथे हुए हैं। पहला है, पेरिस समझौते पर सहमति बनना। 2015 के दिसंबर में इस पर आम राय बन पाई। मगर हमारा (भारत/ विश्व पटल पर दक्षिणी हिस्सा) ऐतराज यही रहा है कि पेरिस समझौता कमजोर होने के साथ-साथ असंतुलित है और इसकी सफलता की उम्मीद काफी कम है। हमारा यह भी मानना रहा है कि पेरिस समझौता पूरी दुनिया को एकसूत्र में बांधने में तो सक्षम नहीं ही है, जलवायु परिवर्तन के खिलाफ सामूहिक जंग छेड़ सकने में भी कोई कारगर भूमिका नहीं निभाता। दूसरा घटनाक्रम, मौसम में आए तीव्र और अजीबोगरीब बदलावों से जोखिम को बढ़ाना है। और तीसरा है ‘आर्थिक विकास' के कारण आबोहवा का जहरीला होते जाना। इसका असर दिल्ली जैसे हमारे अन्य शहरों पर भी पड़ा, जिनको हमने साफ हवा के लिए हांफते हुए देखा है।


डोनाल्ड ट्रंप जिस तरह सत्ता में आए या उदार व धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र जिस तरह कमजोर हुआ है, वह साफ संकेत है कि जिस ‘सफल' आर्थिक विकास मॉडल के हम हिमायती हैं, उसके खिलाफ लोगों में गुस्सा बढ़ रहा है। हमें समझना होगा कि भूमंडलीकरण ने असमानता भी बढ़ाई है। मौजूदा समस्या के मूल में यही है, और जलवायु परिवर्तन की मौजूदा बहस के केंद्र में भी।


स्पष्ट है कि गरीब मुल्कों को अपने हालात को बेहतर बनाने ही होंगे। यह सही है कि भारत, चीन और इसके पड़ोसी देशों के पास ज्यादा विकल्प नहीं हैं, लेकिन वे विकास के पहिए को नए सिरे से गढ़ सकते हैं। औद्योगिक देश विकास के एक तीव्र दौर से गुजर चुके हैं। भले ही उनकी प्रति व्यक्ति आय मौजूदा दक्षिणी देशों (भारत व चीन जैसे एशियाई देश) की प्रति व्यक्ति आय से काफी ज्यादा हो, मगर उनका यह विकास सतही ही माना जाएगा। दिक्कत यह है कि दक्षिणी देश भी इसी विकास-मॉडल को तवज्जो दे रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो अधिक से अधिक पूंजी लगाना और समाज का उतना ही अधिक क्षरण होना; या अधिक से अधिक संसाधन झोंकना और उतना ही ज्यादा प्रदूषण पैदा करना। दक्षिणी दुनिया के देश चाहें, तो न्यायसंगत और सतत विकास हासिल कर सकते हैं। सतत विकास यानी लोकतंत्र की जड़ों को गहराई देना। यह कोई तकनीकी मसला नहीं है, बल्कि राजनीतिक ढांचे से जुड़ा मामला है, जो आम अवाम, खासतौर से जलवायु परिवर्तन के शिकार लोगों को प्राकृतिक संसाधनों का अधिकार जैसी ताकत देता है। इस सतत विकास की अनिवार्य शर्त पर्यावरण प्रबंधन के कामों में स्थानीय लोगों को शामिल किया जाना भी है।


यह गलत नहीं है कि डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी के बाद चुनौतियां और जटिल हुई हैं। ट्रंप पर्यावरण हितों की कितनी मुखालफत करते हैं, यह कोई छिपी बात नहीं है। इसमें दोराय नहीं कि उनके नेतृत्व में अमेरिका ज्यादा से ज्यादा कोयला निकालेगा, अधिक से अधिक बिजलीघर लगाएगा और हर वह काम करेगा, जो उत्पादन बढ़ाने में मददगार हो। जाहिर है, इससे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ेगा। इसलिए ट्रंप का आना पर्यावरणप्रेमियों के लिए किसी बुरी खबर से कम नहीं है। मगर देश-दुनिया में यह कोई नई बात भी नहीं है। अमेरिका ने हमेशा अपनी सुविधा के अनुसार नियम बदले हैं, रियो से लेकर पेरिस तक समझौतों को अपने हित में नया रूप दिया है। लिहाजा यह वक्त चुनौतियों से आगे झुकने का नहीं, बल्कि उससे टकराने का है। ब्रह्मांड में पृथ्वी नामक एक ही ज्ञात ग्रह है, जिस पर जीवन है और अब यहां पर ग्लोबल वार्मिंग का जानलेवा असर साफ-साफ और वैश्विक रूप से दिखने लगा है। इसलिए यह कतई मुनासिब नहीं कि हम अब भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)