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सुधार का कोई रास्ता नहीं दिखता ।। संजय मिश्र की प्रस्तुति ।।

- झारखंड के बाद बिहार से पंचायतनामा प्रकाशन की तैयारियों के सिलसिले में जिलों से लेकर ब्लॉक और पंचायत तक की यात्रा पर निकला. इस दौरान बीडीओ-सीओ से लेकर डीएम-एसपी से मुलाकात हुई.

मुलाकातों में चर्चा व सवाल का केंद्र था—आखिर लोकल गवर्नेस में सुधार कैसे हो सकता है और इस सुधार में पंचायती राज की क्या भूमिका है और क्या हो सकती है?

अधिकारियों से लेकर जनप्रतिनिधियों ने इस आग्रह के साथ बातचीत की थी कि उनकी पहचान उजागर न करें, तब ही वे अपनी बेबाक राय रखेंगे. वादे के मुताबिक हम उनका नाम व पहचान बताये बिना उनकी बातचीत प्रकाशित कर रहे हैं, ताकि बीमारी की जड़ व उसके इलाज को लेकर अपनी समझदारी थोड़ी और विकसित हो सके. पहली किस्त में एक बीडीओ की दास्तान. -

हम दिन के 10 बजे बीडीओ निवास के अंदर थे. बड़े से अहाते में बना कर एक मकान ( जिसे खंडहर कहा जा सकता है). इस मकान को देख कर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि इसमें राज्य सरकार का एक ऐसा नुमाइंदा रहता है, जो प्रखंड की 16 पंचायतों के लिए सालाना चार से पांच करोड़ की योजनाओं की निगरानी से लेकर क्रियान्वयन का काम करता-करवाता है.

खैर, मकान के पहले कमरे में बीडीओ साहब बनियान व लुंगी पहने कुरसी पर पसर कर दाढ़ी बना रहे हैं. सामने चौकी पर दाढ़ी बनाने का सामान रखा हुआ है. कमरे में तीन-चार और कुरिसयां हैं, जिन पर आसपास के ग्रामीण विराजमान हैं. कमरे में एक तरफ धूल अपना रंग खो चुके विभागीय फॉर्म पड़े हैं.

परिचय-पाति और आसन ग्रहण करने के साथ ही बीडीओ से बातचीत का सिलसिला शुरू होता है. इस खस्ताहाल मकान में कैसे रहते हैं? अरे क्या करें. मजबूरी है. अकेले रहते हैं. परिवार को पटना में रखा है. यहां तो बच्चों को पढ़ा भी नहीं सकते हैं.

एक सांस में अपनी व्यथा कथा सुनाते हुए बीडीओ साहब ने कहा, जाकर अंदरवाला कमरा देखिए. जहां सोता हूं, वहां की छत झड़ रही है. कभी भी सिर फूट सकता है. हड्डी टूट सकती है.

मकान की मरम्मत क्यों नहीं करवा लेते हैं?

इहां कोनो फंड है. बस बल्ब-बत्ती बदलवा सकते हैं. 1972 में यह बना था. कई साल बाद मैं ऐसा बीडीओ आया हूं, जो बीडीओ निवास में रह रहा है. यहां रहने आया था, तो दरवाजा-खिड़की भी नहीं थी. किसी तरह इंतजाम करके रहना शुरू किया है.

पहले वाले बीडीओ कहां रहते थ़े?

आप भी गजब सवाल पूछते हैं. कोई अधिकारी मुख्यालय में रहता है. पटना नजदीक है. शाम होते ही पटनावाली गाड़ी धर लेते थे, तो इहां रहने की क्या जरूरत थी.

लेकिन, आप तो यहां रहते हैं?

रहते हैं, क्योंकि मुख्यालय छोड़ने पर हमको बड़ा टेंशन हो जाता है. कोई घटना-वटना हो जाये, तो बड़ी मुश्किल हो जाती है. फिर नीतीश सरकार में और झंझट है. सप्ताह में एक बार पटना जाते हैं और परिवार से मिल कर चले आते हैं. और, अब तो मोबाइल आ गया है. सब काम फोन पर हो जाता है.

पंचायती राज से ब्लॉक व पंचायत के काम-काज में कितना सुधार हुआ?

सुधार तो हुआ है. लेकिन, झंझट भी बढ़ गया है. मुखिया लोग भी अपने गांव-जवार के लिए ईमानदार नहीं हैं. हर काम में कमीशन के चक्कर में रहते हैं. एक-दो अच्छे मुखिया भी हैं, तो उनके यहां बिचौलिया हावी हैं. मुखिया लोग ग्रामसभा-आम सभा कराने से भी डरते हैं.

ऐसे में पंचायती राज कैसे सक्सेस हो सकता है. अभी सभी पंचायत के लिए पैसा आया है, तो सभी मुखिया सोलर काटने, कुआं उड़ाही कराने व चबूतरा बनाने का एस्टिमेट लेकर घूम रहे हैं. सोलर में 5 प्रतिशत कमीशन है, कुआं उड़ाही में बिना काम का पैसा मिल जाता है. इस कारण मैंने आदेश निकाल दिया है. सोलर और कुआं उड़ाही का कोई बिल पास नहीं करूंगा. अब सब मुखिया छटपटा रहे हैं.

क्या लगता है, पंचायती राज भी फेल हो रहा है, तो सुधार का क्या रास्ता है?

सुधार का कोई रास्ता नहीं है. जैसे चल रहा है, वैसे ही चलेगा. आम आदमी भी करप्ट हो गया है. मेरा अपना अनुभव सुनिए. ब्लॉक में आने के बाद रिक्शा पर चोंगा बंधवा कर एनाउंस करवाएं हैं कि कोई काम हो, तो सीधे बीडीओ से मुलाकात कीजिए.

बिचौलिया को नहीं पैसा दीजिए. इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है. आज भी बिचौलिया सक्रिय है. कई बिचौलियों को पटक कर पीटा हूं. 12 एफआइआर किया हूं. इसके बाद भी आम लोगों को एक बीडीओ पर नहीं बिचौलिया पर ज्यादा भरोसा है, क्योंकि वह उनके बीच का आदमी है. अगल-बगल का है.

आम आदमी को लगता है कि बीडीओ साहब बिचौलिया भगाने का नाटक कर रहे हैं. अब ऐसे में सुधार का कोई रास्ता तो कम-से-कम मुङो नहीं दिखता है. सरकार ने राशन कूपन का सिस्टम शुरू किया है. बढ़िया सिस्टम है. लेकिन, कूपन बांटनेवाला कोई नहीं है. चार-पांच पंचायतों पर एक रोजगार सेवक है.

एक पंचायत में कम-से-कम एक हजार कूपन बांटना होता है. अब यह कूपन कैसे बंटेगा. मुखिया जी से सहयोग लीजिए, तो दूसरा झमेला. मुखिया जी विरोधियों का कूपन दबा देते हैं. राशन दुकानदार से मिलीभगत का खेल शुरू हो जाता है. इस खेल में एमओ भी साझीदार हो जाते हैं. एक अच्छी योजना का यह हाल है. फिर सुधार कैसे होगा? मुझको खुद ही नहीं बुझाता है.