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सुधार की दिशा में सख्ती से बढ़ें कदम - डॉ. एके वर्मा

देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में फरवरी-मार्च में विधानसभा के चुनाव होने हैं। निर्वाचन आयोग की ओर से इन राज्यों के चुनावों की तिथियों की घोषणा कभी भी हो सकती है। जब भी चुनाव आते हैं, निर्वाचन आयोग का सारा ध्यान नए मतदाता बनाने व चुनावों को सफलतापूर्वक संपन्न् कराने में लग जाता है, किंतु जो असली मुद्दा है कि चुनावों में अच्छे लोग कैसे आगे आएं और अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को चुनाव लड़ने से कैसे रोका जाए, वह हाशिये पर चला जाता है। बीते 26 नवंबर को हमने संविधान दिवस धूमधाम से मनाया। हमारा संविधान 'हम भारत के लोग से शुरू होता है, लेकिन क्या कभी चुनाव आयोग इस बात को सुनिश्चित करने की कोशिश करेगा कि भारतीय लोकतंत्र में अभिव्यक्त 'हम भारत के लोग एक हकीकत बन सकें? क्या सच में हम कह सकते हैं कि भारत का एक आम नागरिक, जो उस अभिव्यक्ति का अंश है, उसके भी चुनाव लड़ने और चुने जाने की कोई संभावना है? क्या चुनावों में बढ़ते धनबल और बाहुबल के आगे उसमें चुनाव लड़ने का साहस हो सकता है? देश में चुनाव सुधारों पर बहुत बहस हो चुकी है और हो रही है, किंतु लगता है कि लोकतंत्र में कोई भी निर्वाचित सरकार सियासी कारणों से इस संबंध में कठोर निर्णय लेने हेतु तैयार नहीं।

 

निर्वाचन आयोग निर्वाचित संस्था नहीं है। उसे संवैधानिक स्वायत्तता प्राप्त है और वह जनता को नाराज करने की चिंता से भी मुक्त है। वह इस संबंध में कोई निर्णय क्यों नहीं ले सकता? क्या उसके पास अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने का कोई और रास्ता नहीं? क्या चुनाव आयोग बिना संविधान और कानून में परिवर्तन किए अपराधियों को चुनाव लड़ने से रोकने की कोई पहल नहीं कर सकता? वर्ष 1993 में राजनीति के अपराधीकरण पर गठित वोहरा समिति को सीबीआई ने बताया था कि पूरे देश में छोटे-बड़े हर शहर में क्राइम-सिंडीकेट बन गए हैं, जो स्वयं में कानून हैं, क्योंकि अपराधियों के गैंग का पुलिस, नौकरशाहों और नेताओं से गठजोड़ हो गया है। यूपी, बिहार, हरियाणा आदि राज्यों में अनेक नेता इन अपराधी समूहों के मुखिया हो गए हैं और वे अपने गैंग के सदस्यों को स्थानीय निकायों, विधानसभाओं और लोकसभा में निर्वाचित करा देते हैं। इसीलिए अनेक जनप्रतिनिधि संस्थाओं में अपराधियों की बाढ़-सी आ गई है।

जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा 8(3) के अंतर्गत यदि न्यायालय द्वारा किसी अभियुक्त को दो वर्ष या उससे अधिक अवधि के कारावास की सजा मिलती है तो तत्काल प्रभाव से उसे चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित कर दिया जाता है और वह अयोग्यता सजा की अवधि खत्म होने के 6 वर्ष बाद तक बनी रहती है। इसी अधिनियम की धारा 62(5) के अंतर्गत जेल में बंद किसी कैदी को वोट देने का अधिकार नहीं है। कई लोगों को यह आश्चर्यजनक लगता है कि दो वर्ष से कम अवधि के लिए कारावास की सजा काट रहे अभियुक्त को (जेल में होने के बावजूद) न केवल चुनाव लड़ने का अधिकार है, वरन यदि कोई अभियुक्त जमानत पर जेल के बाहर है (चाहे उसे दस वर्ष की जेल क्यों न हुई हो) तो कानून उसे वोट देने का भी अधिकार देता है। सितंबर 2013 में संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62(5) में संशोधन कर जेल में बंद अभियुक्तों को भी वोट डालने और चुनाव लड़ने का अधिकार प्रदान कर दिया था, लेकिन मुद्दा अभियुक्तों या अपराधियों के मानवाधिकारों का नहीं, वरन चुनावों में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों के प्रवेश को रोकने का है।

 

देश में जिस तरह का सियासी माहौल है व जिस प्रकार मानवाधिकारों की दुहाई देकर अपराधियों, आतंकियों व अनेक समाजविरोधी तत्वों को न्यायपालिका में बचाया जा रहा है, उससे डर है कि कहीं लोगों का लोकतंत्र पर भरोसा ही न खत्म हो जाए। हमें तय करना होगा कि लोकतंत्र बड़ा है या मानवाधिकार? क्या अपराधियों द्वारा संचालित कोई लोकतंत्र जनता के हितों या किसी के अधिकारों की रक्षा कर सकेगा? क्यों इतनी असहाय है हमारी संसद और न्यायपालिका? क्या निर्वाचन आयोग से कोई उम्मीद की जा सकती है? निर्वाचन आयोग चाहे तो इस समस्या को अपने ढंग से हल कर सकता है। चुनाव आयोग द्वारा बनाए गए 'मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट का अनुपालन सभी पार्टियां करती हैं, जबकि उसका कोई विधिक आधार नहीं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि उसे चुनाव आयोग ने सभी पार्टियों के विचार-विमर्श से बनाया था। चुनाव आयोग यह देखता है कि सभी प्रत्याशियों और दलों द्वारा इस आचार संहिता का पालन सुनिश्चित किया जाए। सुप्रीम कोर्ट के 2002 के निर्देश के अनुसार सभी प्रत्याशी कानूनी हलफनामा दे अपने ऊपर चल रहे सभी आपराधिक मामलों की सूचना चुनाव आयोग को देते हैं। अच्छा यह होगा कि चुनाव आयोग इस व्यवस्था का सकारात्मक प्रयोग कर अपराधियों के चुनाव लड़ने पर कोई अंकुश लगाए।

 

चुनाव आयोग विभिन्न् दलों से पुन: विमर्श करके यह तय कर सकता है कि किस-किस आपराधिक गतिविधियों में लिप्त आरोपी व अभियुक्त चुनावों में भाग नहीं ले सकेंगे। इसी के साथ यह भी तय होना चाहिए कि आयोग की शर्तों का उल्लंघन होने पर क्या कार्रवाई की जा सकती है? यह समय की मांग है कि चुनाव आयोग ऐसे दलों के विरुद्ध अपने स्तर पर कोई कदम उठा सके जो आपराधिक प्रवृत्ति और छवि के प्रत्याशी खड़े करते हैं। अगर राजनीतिक दलों में इस पर कोई मतैक्य न हो पाए तो आयोग इतना तो कर ही सकता है कि वह आपराधिक छवि और प्रवृत्ति के किसी दलीय प्रत्याशी को दलीय चुनाव चिह्न से वंचित कर दे। इससे न केवल ऐसे राजनीतिक दल की प्रतिष्ठा कम होगी, वरन उस प्रत्याशी को स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ना पड़ेगा। इससे वह दलीय-मतदाताओं के मतों से वंचित हो सकता है और उसके निर्वाचित होने की संभावना क्षीण हो सकेगी। इसके लिए चुनाव आयोग को केवल अपने चुनाव चिह्न आवंटन आदेश में संशोधन करना है। इससे सुप्रीम कोर्ट का असली मंतव्य भी पूरा होगा और बिना कानून में बदलाव के स्वयं अपनी पहल पर चुनाव आयोग चुनावों में अपराधियों के प्रत्याशी बनने पर लगाम लगा सकेगा। जुलाई 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति पटनायक व न्यायमूर्ति मुखोपाध्याय ने लिली थॉमस मुकदमे में जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) के तहत सांसदों व विधायकों को आपराधिक मुकदमों में दंड सुनाए जाने के बाद तीन माह तक अपील हेतु सदन की सदस्यता की अयोग्यता से उन्मुक्ति को असंवैधानिक करार दे अपना दृष्टिकोण स्पष्ट कर दिया था। क्या चुनाव आयोग न्यायपालिका की इस पहल को और आगे ले जा सकेगा? यदि ऐसा हो सके तो चुनाव आयोग भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित 'हम भारत के लोग की परिकल्पना के अनुरूप भारतीय लोकतंत्र को संचालित करने में अभूतपूर्व योगदान दे सकेगा।

 

(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)