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सुननी होगी दलितों की आवाज- पत्रलेखा चटर्जी

रामविलास पासवान और उदित राज आजकल सुर्खियों में हैं। वजह यह है कि पासवान ने जहां भारतीय जनता पार्टी के साथ गठजोड़ कर लिया है, वहीं उदित राज ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है। आम चुनाव से ठीक पहले ऐसी घटनाएं लाजिमी हैं। तो आखिर क्या वजह है कि दूसरों के बजाय पासवान और उदित राज ज्यादा चर्चा का विषय बने हुए हैं।

दरअसल राजनेताओं की सोच यह है कि इन दोनों नेताओं की वजह से भाजपा के नेतृत्व वाले नेशनल डेमोक्रेटिक एलायंस (एनडीए) को बड़ी तादाद में दलित वोटों का फायदा मिल सकता है। दिलचस्प यह है कि राजनेता आज भी दलित मतदाता की वैयक्तिक पहचान के बजाय उसकी सामूहिक पहचान को ज्यादा तवज्जो देते हैं। दलितों के प्रति ऐसी सोच रखते वक्त आरक्षण के प्रभावों का बिल्कुल ध्यान नहीं रखा जाता।

आरक्षण के इस प्रभाव की वजह से ही सबसे ज्यादा गरीब दलित के घरों में भी बेहतर जिंदगी की चाह, जाति प्रथा की बुराइयों के खिलाफ उनकी नाराजगी और सामाजिक उत्थान के चिह्नों को हासिल करने की उनमें ललक पैदा हुई है। न ही ये राजनेता दलितों पर होने वाले अत्याचारों का नोटिस लेते हैं।

दरअसल दलितों के सामाजिक उत्थान को हजम न कर सकने वाले संभ्रांत लोग ही दलितों के खिलाफ हिंसा को अंजाम देते हैं। ऐसा एक वाकया हाल ही में दक्षिणी दिल्ली के एक गांव में हुआ, जब एक दलित दूल्हे ने अपनी दुल्हन के घर पर जाने के लिए घोड़े की बग्‍घी का इस्तेमाल करने की इच्छा रखी।

लेकिन उस दूल्हे को ऊंची जाति के दो व्यक्तियों ने बग्‍घी से खींचकर उतार दिया। उन्होंने दूल्हे से यह भी कहा कि वह बग्‍घी पर बैठने के योग्य नहीं है। काफी हिचकते हुए पुलिस ने मामला दर्ज किया और इन दोनों व्यक्तियों को हिरासत में ले लिया। इस घटना ने वहां रह रहे दलित परिवारों में घबराहट और ऊंची जातियों के प्रति डर की भावना पैदा की। हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली में पूर्वोत्तर और अफ्रीकी देशों के लोगों के साथ नफरत से भरे अपराधों को अंजाम देने की कई घटनाएं देखने को मिलीं।

इन घटनाओं को लेकर लोगों में गुस्सा भी दिखाई पड़ा। लेकिन जब बात दलितों के प्रति हिंसा की होती है, तो लोगों का ऐसा गुस्सा कम ही देखने में आता है। कोई राजनेता भी ऐसी घटनाओं पर आवाज नहीं उठाता। कोई भी एनजीओ जंतर-मंतर या किसी दूसरी जगह पर धरना-प्रदर्शन नहीं करता।

मानवाधिकारों पर सतर्कता समिति के महासचिव लेनिन रघुवंशी की मानें, तो दलितों के प्रति ऐसी घटनाओं को महत्व इसलिए नहीं दिया जाता, क्योंकि इन्हें गैर-जरूरी माना जाता है। रघुवंशी कहते हैं कि जिन नेताओं का पूरा चुनावी गणित दलित वोट पर टिका है, वे भी अगर इस मुद्दे पर चुप्पी साधे हैं, तो इसकी वजह यह है कि फिलहाल उनकी राजनीति में ऊंची जातियों के वोट ज्यादा महत्वपूर्ण बन गए हैं।

एक शोधार्थी के मुताबिक जिन क्षेत्रों में दलित अल्पसंख्यक हैं, वहां के दलित नेता भी ऐसे मामलों में रुचि नहीं दिखाते। इसकी वजह यह है कि इतने दलित वोट होते नहीं हैं कि नेताओं को लालच दे सकें। ऐसे मामलों में प्राथमिकता यही होती है कि हिंसा से बचते हुए मामले को रफा-दफा कर दिया जाए। दक्षिणी दिल्ली में जो हुआ, वह दलितों के साथ होने वाली कोई अकेली घटना नहीं है। दरअसल, ऐसी घटनाएं पूरे देश में देखने को मिल रही हैं। पुलिस में शिकायत करने पर ऐसे परिवारों को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है।

हाल ही में उत्तर प्रदेश के महोबा जिले में भी ऐसी ही एक घटना देखने को मिली, जब ऊंची जाति के लोगों ने एक दलित दूल्हे को उसकी� पालकी से उतार कर पैदल चलने को मजबूर किया। मई, 2013 में राजस्‍थान के भीलवाड़ा में भी ऐसी ही एक और घटना हुई। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2012 में अनुसूचित जातियों के खिलाफ अपराध के 33,655 मामले दर्ज किए गए।

जबकि 2011 में यह आंकड़ा थोड़ा अधिक यानी 33,719 था। कमजोर वर्गों के खिलाफ होने वाले अपराधों में आई इस आंशिक कमी के बावजूद बलात्कार, आगजनी और अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार की रोकथाम) अधिनियम के तहत आने वाले मामलों में कोई कमी नहीं आई। बल्कि इन वर्गों से जुड़े अपराधों में क्रमशः 1.2, 26.6 और 10.9 फीसदी का इजाफा हुआ है।

बड़ा सवाल यह है कि दलित दूल्हों के घोड़े पर चढ़ने में आपत्ति क्यों होनी चाहिए। मशहूर दलित चिंतक चंद्रभान प्रसाद लिखते हैं, 'ऊंची जाति के लोगों को यह कुबूल नहीं है कि दलित वह करने की मंशा रखें, जो गैर-दलित करते हैं।' दरअसल आज का दलित सामूहिकता के बजाय अपनी वैयक्तिक पहचान चाहता है। अगर राजनेता दलितों की इस इच्छा को सम्मान नहीं देंगे, तो उन्हें इसके घातक नतीजे भुगतने पड़ेंगे।