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सुनो, मध्य वर्ग की आहट -शशि भूषण

अन्ना हजारे, सिविल सोसाइटी, सरकार और सर्वोपरि संसद
समाजशास्त्री व अर्थशास्त्री जो लोग इन बड़े समाचारों के बीच उनके भीतरी आशय जानना चाहते हैं, उनके के लिए ये सब बहस के मुद्दे हो सकते हैं, किंतु आम लोग, लोकपाल या जन लोकपाल में कुछ फर्क भी है, यह जानने की जरूरत नहीं समझते.

उन्हें बस इतना पता चल गया है कि एक पर एक मंत्री एक से आला भ्रष्टाचार के नये कीर्तिमान बना रहे हैं. जबकि सरकार जानबूझ कर अरबों की लूट करने वालों को या तो परदे में छिपाये रखना चाहती है या फिर अगर वे पकड़ में आ गये, तो हर स्तर पर उनके बचाव में ही लगी रहती है. यह सारा आक्रोश, बस इसी भ्रष्टाचार के विरुद्ध है और फिर उनको बचाने वाली सरकार के भी विरुद्ध.

जून में, अन्ना के पहले उपवास के तुरंत बाद स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह बात कही थी कि ‘‘मैं एक अत्यंत दुखी व्यक्ति हूं. लोगों ने मुझसे कहा है कि मेरी सरकार अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है, पर मैं क्या कं, मैं ‘कोइलिशन धर्म’ में बंधा हुआ हूं.’’ लेकिन लगता है मीडिया के लोग भी प्रधानमंत्री के दुख में सहभागी हो गये. किसी ने कोई भी तल्ख सवाल उनसे नहीं किया.

हकीकत तो यही है कि मनमोहन सिंह की सरकार किसी नेशन-स्टेट को चलाने वाली ‘पोलिटिकल कैबिनेट’ नहीं दिखती, वह ‘चैंबर ऑफ कॉमर्स’ ज्यादा दिखती है, जहां बिजनेस के फायदे उठाने, अपनी बिजनेस खड़ी कर लेने के लिए सरकारी लूट को पूंजी बनाने वालों से भरी पड़ी है. डीएमके या ए राजा की बातें तो सबको पता है.

साफ-साफ एक टेलीकॉम कंपनी का स्वामित्व ही उन्होंने अपनी कंपनी में हड़प लिया. जरा गौर करें ‘राष्ट्रवादी कांग्रेस’ के नेताओं की कारगुजारियों पर. आइपीएल कंपनी के घपले में शरद पवार की कंपनी के शेयर मौजूद हैं, यह तथ्य तो उजागर हुआ ही, फिर भी ललित मोदी तो यहां-वहां भागते-फिरे, शरद पवार से न तो इस्तीफा मांगा गया न ही उन्होंने ऐसा कोई उपक्रम दिखाया.पिछले सात वर्षो में कृषि मंत्रालय की संलिप्तता से विशाल मात्रा में गेहूं, दाल, चीनी इत्यादि की खरीद और बिक्री दोनों ही विश्व बाजार में हुए हैं. जान-बूझ कर देश के खाद्य पदार्थ तक बेचे गये, जब विश्व बाजार में कीमत नीचे थी और फिर जब देश में उन्हीं जिंसों की कमी महसूस की गयी, तो ऊंचे दामों पर फिर उनका आयात भी किया गया. गनीमत है कि अभी सीएजी की रिपोर्ट इस पर नहीं आयी है. समय-समय पर ये बातें उठी भी हैं, पर सरकार तो चुप ही रही, संसद को सर्वोपरि घोषित करने वाले की चुप रही रहे.

एनसीपी के दूसरे मंत्री हैं प्रफुल्ल पटेल ‘एयर इंडिया’ की सारी वैसे उड़ाने, जिस पर उसे लाभ होता था, पटेल ने ही बंद करवाया और आज उसको बचाने के लिए 15 हजार करोड़ रुपये की मदद भारत सरकार को करनी पड़ी है. कोई भी साधारण जांच यह बता सकता है, वे लाभकारी रुट्स किस एयरलाइन को मिले और किन छुपी हुई शर्तो पर. नये एयरक्राफ्ट खरीदने के लिए करार भी हुए बोइंग कंपनी के साथ पटेल के इसी कार्यकाल में. क्या संसद में में कभी इस पर कोई जांच की मांग भी हुई. यह बिल्कुल साफ मंशा कि एयर इंडिया की परिसंपत्ति में नये विमान लाकर उसे और घाटेवाली कंपनी बना दिया जाये. फिर उसे सरकार बेचने का फैसला ले तथा छद्म कंपनी बना कर उसे खरीद लिया जाये. सिविल ऐवएशन के नये मंत्री वायलार रवि ने यह स्वीकार भी किया कि लाभकारी रुटों से एयर इंडिया को हटाना गलत था, पर किसने यह फैसला लिया यह पता नहीं चलता. शायद वायलर रवि भी साथी धर्म निभा रहे थे, वरना फाइलों पर लिखे को पढ़ने में वे असमर्थ क्यों रहे?

किसी पीआइएल करने वालों को भी यह क्यों नहीं सूझा.लेकिन नहीं. सहयोगी पार्टियों के लिए तो कांग्रेस ने गंठजोड़ धर्म का रोना रोया, पर कलमाडी और शीला दीक्षित तो ठेठ कांग्रेसी ही हैं. अगर सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप नहीं की होती, तो सारे मामले पर लीपापोती हो गयी रहती. कांग्रेस के एक अन्य दिग्गज नेता हैं ‘कमलनाथ’ जो एक घोषित बिजनेस हाउस के संचालक हैं. भूतल परिवहन के मंत्री बन कर विशाल सड़क परियोजनाएं वह क्यों मंथर गति से चला रहे हैं. यह कोई नहीं पूछता. इस्ट-वेस्ट कॉरीडोर क्यों धीमी गति से ग्रस्त हैं, और सबसे बढ़ कर ठीक हैदराबाद-बेंगलुरु हाइवे पर उनके मैनेजमेंट कॉलेज के लिए कैसे अफरात जमीन मिल गयी है? और फिर पिछले महीने उनके इस निजी क्षेत्र के मैनेजमेंट कॉलेज का उद्घाटन करने कपिल सिब्बल पहुंच गये?

क्या एडमिशन के लिए इच्छुक छात्रों को यह संदेश देने के लिए कि यह निजी कॉलेज भी सरकार संरक्षण में हैं? पर अब तक 20-25 लाख नामांकन फीस लेने वाले इस कॉलेज के संचालक केंद्रीय मंत्री हैं और उनके अनुमोदक भी संबंधित मंत्रालय के. वह जमीन किसकी थी और किन शर्तो पर खरीदी गयी, क्या रोड बनाने वाली कंपनियां तो इसके पीछे नहीं है-शायद कोई सख्त जांच एजेंसी ही सत्य को कभी सामने लाये. अगर कुरेदा जाये, तो केंद्रीय मंत्रिमंडल को सुशोभित करने वाले एक चौथाई लोग तत्काल घेरे में आ सकते हैं. यहां तक कि गृह मंत्री पी चिदंबरम भी जो घोषित तौर पर पूंजी घरानों के संचालकों में है, जिन पर स्वयं ए राजा के साथ उनकी मिलीभगत पर भी सवाल खड़े किये गये हैं.

दूसरी ओर इंडिया एगेन्स्ट करप्शन’ के इस बड़े आंदोलन की सीमा भी इन्हीं तथ्यों में देखा जा सकता है. महज एक संस्थानिक प्राधिकार चाहे वह लोकपाल हो या जन-लोकपाल, अगर वह बन भी जाये, तो पूरे के पूरे मंत्रिमंडल, उच्च अधिकारियों, यहां तक कि ‘वोट फॉर कैश’ जैसे मामलों में सने सांसद, ‘क्वेशचन्स फोर कैश’ में निर्लिप्त सांसद इन सबों पर कितने जांच बिठायेगा जनलोकपाल? कितने जांच दल गठित करेगा, कितने मैराथन बैठकियां करेगा और फिर कितनों को जेल भिजवायेगा?