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सूखते खेत-खलिहान अभी दूर है विज्ञान- अनिल जोशी

हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा आजादी के बाद से आज तक विज्ञान के लाभ से महरूम रहा है। देश की प्रयोगशालाओं में जो भी हुआ, वह राजमार्ग से उतरकर गांव की पगडंडी पर गया ही नहीं। देश की तीन बड़ी वैज्ञानिक संस्थाओं का यह सीधा दायित्व था कि वे गांवों की विभिन्न आवश्यकताओं पर काम करें। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, विज्ञान और तकनीकी विभाग, ग्रामीण विकास संस्थान ने अपने भारी-भरकम बजट के बावजूद ऐसा कुछ नहीं किया। जो कुछ काम हुआ, वह भी गांवों तक पहुंच नहीं सका। अकेले भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के अंतर्गत लगभग 105 विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करने वाले शोध संस्थान देश के कोने-कोने में फैले हैं। लगभग 55 कृषि विश्वविद्यालय कृषि के प्रचार-प्रसार में जुटे हैं। पर कृषि के हालात बहुत अच्छे नहीं कहे जा सकते। इसी तरह, विज्ञान और तकनीकी मंत्रालय के भी लगभग देश में 50 से ऊपर संस्थान हैं, पर ग्रामीण तकनीक की प्रभावी झलक कहीं दिखाई नहीं देती। इन संस्थानों की मंशा पर कोई प्रश्न चिन्ह नहीं लग सकता, परंतु इनके पास ऐसी किसी व्यवस्था का अभाव होता है, जिससे ये अपने शोध को गांव तक ले जा सकें। अक्सर ऐसी सोच का भी अभाव दिखता है, जिससे इनके शोध गांवों के किसी काम आ सकें।

इन संगठनों के पास एक समस्या संवाद की भी होती है। जिस तरह से विज्ञान व तकनीक एक विषय है और इसे विकसित करने के लिए विशिष्ट योग्यताएं चाहिए, वैसे ही गांवों में इनका प्रचार -प्रसार व प्रदर्शन भी एक कला है। इस कला में गांवों से जुड़े संगठन ही पारंगत होते हैं। स्वयंसेवी संस्थाओं की एक अहम भूमिका यह भी रही है कि उसने विज्ञान को गांव तक पहुंचाया है। आज भी देश में ऐसे कई स्वंयसेवी संगठन हैं, जिन्होंने गांवों के स्वरूप को विज्ञान के माध्यम से बदल डाला है। ये प्रयोग देश भर में चर्चित भी रहे हैं।

आज सबसे ज्यादा जरूरत गांवों की आर्थिकी को बेहतर करने की है। इसलिए वैज्ञानिक संस्थानों व सामाजिक संगठनों के संयुक्त प्रयास की आवश्यकता है। ऐसे कुछ प्रयास बड़े सफल भी हुए हैं। जैसे ग्रामीण तकनीक एक्शन ग्रुप के कई कार्यक्रम काफी सफल रहे हैं। इसी तरह, भाभा परमाणु शोध केंद्र, मुंबई का हिमालयन एनवायर्नमेंट स्टडीज ऐंड कंजरवेशन ऑर्गेनाइजेशन यानी हैस्को के साथ किया गया सूखती पर्वतीय जल धाराओं को फिर से जीवित करने का प्रयोग एक बड़ा उदाहरण है। ऐसे कुछ और भी उदाहरण हैं, लेकिन ये सब उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। ऐसे प्रयासों के दायरे को ज्यादा बढ़ाने की जरूरत है। गांवों से जुड़े किसी भी शोध को तब तक पूरा नहीं माना जाना चाहिए, जब तक कि गांवों में उनका प्रदर्शन हो जाने के बाद उन्हें पूरी तरह लागू नहीं कर दिया जाता। विज्ञान को गांवों तक पहुंचाने और सफल बनाने का काम पंचवर्षीय योजना का हिस्सा होना चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)