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सूखे का साया

आखिरकार भारतीय मौसम विभाग की भविष्यवाणी सही निकली। उसने इस साल मानसून के कमजोर रहने का अंदेशा जताया था। तब वित्तमंत्री ने कहा था कि घबराने की बात नहीं है, हो सकता है मानसून संबंधी पूर्वानुमान गलत निकले। दरअसल, वित्तमंत्री को बाजार की चिंता सता रही थी और वे निवेशकों को आश्वस्त करना चाहते थे कि सब कुछ ठीकठाक रहेगा। पर अब मौसम संबंधी पूर्वानुमान पहले से कहीं अधिक वैज्ञानिक विधि से निकाले जाते हैं। भारतीय मौसम विभाग ने भी अपनी आकलन पद्धति को बेहतर बनाया है। उसने जैसी चेतावनी दी थी, अब वैसी ही स्थिति सामने है। खुद केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने स्वीकार किया है कि सामान्य से पंद्रह-सोलह फीसद कम बारिश दर्ज हुई है और इसके चलते खरीफ की पैदावार में करीब दो फीसद की कमी आएगी। जाहिर है, सबसे ज्यादा असर चावल, दलहन और मोटे अनाजों की पैदावार पर पड़ेगा। सबसे खराब हालत महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में है। यह लगातार दूसरा साल है जब देश मानसून की कमी का दंश झेल रहा है। पिछले साल मानसून में बारह फीसद की कमी दर्ज हुई थी। इस साल उससे अधिक शोचनीय स्थिति है। पर इधर के सालों में सबसे बुरी दशा 2009 में थी। तब देश को सूखे के अलावा विश्वव्यापी मंदी की भी मार झेलनी पड़ी थी। बहरहाल, इस साल बारिश में पंद्रह फीसद की कमी ने सरकार के माथे पर चिंता की लकीर खींच दी है। प्रधानमंत्री मनरेगा को यूपीए की विफलता का स्मारक कह चुके हैं। पर सूखाग्रस्त इलाकों में राहत के तौर पर सरकार को यह जरूरी जान पड़ा कि मनरेगा के तहत सौ दिन के बजाय डेढ़ सौ दिन काम मुहैया कराए जाएं। यह अच्छी पहल है। मगर सूखे से जुड़ी चुनौतियां और भी हैं। कृषि पैदावार में आने वाली कमी के कारण खाद्य पदार्थों की कीमतें चढ़ सकती हैं। ग्रामीण भारत की आय में कमी आएगी, जिसके फलस्वरूप बाजार में मांग घटेगी और इसका असर विकास दर पर भी पड़ सकता है। इन सब नतीजों को एक अनिवार्य नियति की तरह देखा जाए, या इनकी चुभन कम की जा सकती है? दरअसल, जैसी स्थिति है उसे बहुत असामान्य नहीं कहा जा सकता। फिर भी ऐसी हालत डराती है तो इसलिए कि कुछ व्यवस्थागत और नीतिगत खामियां पहले से मौजूद हैं। भंडारण और आपूर्ति की बदइंतजामी के कारण हर साल बड़ी मात्रा में अनाज सड़ जाता है। फलों और सब्जियों की भी काफी बर्बादी होती है। दूसरी बड़ी समस्या यह है कि कृषि क्षेत्र पहले से संकट में है और कृषि पर निर्भर लोग, चाहे वे किसान हों या श्रमिक, गुजारे लायक आमदनी से वंचित रहते हैं। सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आंकड़ों से भी इसकी पुष्टि होती है। तीसरी प्रमुख बात यह है कि भूजल के अंधाधुंध दोहन के चलते देश के बहुत-से इलाके पहले से ही पानी की समस्या झेल रहे हैं। रही-सही कसर जल प्रदूषण और पानी के इस्तेमाल में होने वाली बर्बादी पूरी कर देती है। अगर पानी को सहेजने का अभियान चले और ऐसी कृषि प्रणाली को बढ़ावा दिया जाए जिसमें सिंचाई के लिए पानी की कम जरूरत पड़े, तो सूखे से निपटना उतना मुश्किल नहीं रहेगा। सरकार को फौरी राहत के अलावा जल संरक्षण और कृषि को पुसाने लायक बनाने के भी कदम उठाने होंगे।
(जनसत्ता से साभार)