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सूखे की आपदा और हमारे कर्तव्य

जरा सोचिए, अगर आपकी गाड़ी के एक्सीडेंट में सामने का शीशा टूट जाए, लेकिन बीमा कंपनी यह कहकर आपको कुछ भी हर्जाना देने से मना कर दे कि पहिए और इंजन तो बच गए हैं। अगर किसी की दुकान जल जाए, लेकिन मुआवजा न मिले, क्योंकि बाकी पड़ोसियों की दुकानें नहीं जलीं। या फिर आप मकान खरीदने के लिए लोन लें और आपसे बिना पूछे ही आपके मकान का बीमा कर दिया जाए और उसका खर्च आपकी लोन अदायगी की किस्त में जोड़ दिया जाए।

आप कहेंगे यह क्या मजाक है? यह तो अंधेरगर्दी है! हमारे लोकतांत्रिक देश में यह सब नहीं चल सकता। लेकिन आप सही नहीं सोच रहे। यह सब मेरे-आपके देश में होता आ रहा है, आज भी चल रहा है। आज भी किसान को फसल मुआवजे के नाम पर इस मजाक को हर साल झेलना पड़ता है। अब जब देश भर में सूखा फैला है, तो यह मजाक आने वाले कई महीनों तक किया जाएगा। दफ्तरों में फाइल-फाइल का खेल होगा, मंत्री और अफसर दौरा करेंगे, घोषणाएं होंगी और फिर किसानों को 80 या 140 रुपये के चेक मिलने की खबरें छपेंगी। फिर अचानक कुछ किसानों की आत्महत्या की खबर आएगी। लेकिन किसानों को प्राकृतिक आपदा से बचाने या फिर उसका पर्याप्त मुआवजा देने की व्यवस्था नहीं बनेगी।

फसल को किसी भी आपदा से नुकसान होने पर उसकी भरपायी करने की सारी व्यवस्था आज भी दान खाते से चलती है। अंग्रेजों के जमाने की तरह आज भी सरकार माई-बाप वाले अंदाज में किसानों के कटोरे में चंद टुकड़े डाल देती है और उनसे उम्मीद रखती है कि वे अपना मुंह बंद रखें। ऐसे-ऐसे नियम हैं, जो किसी और तबके के बारे में नहीं चल सकते। एक नियम यह है कि प्राकृतिक या अन्य किसी आपदा से प्रभावित किसानों को तब तक मुआवजा नहीं मिलेगा, जब तक उसके आस-पास के एक बड़े इलाके में उस आपदा का असर न हुआ हो। यह इलाका कभी तहसील जितना बड़ा होता है, कभी पंचायत जितना। यह बात सूखे और बाढ़ के लिए तो लागू हो सकती है, लेकिन ओलावृष्टि या जंगली जानवरों का प्रकोप जैसी आपदाएं एक छोटे इलाके में भी आती हैं। किसान मारा जाता है, लेकिन सरकारी बाबू की फाइल उसे आपदा मानने से इनकार कर देती है।

नियम यह भी था कि जब तक फसल का कम से कम 50 फीसदी नुकसान न हो, तब तक एक पैसा भी मुआवजा नहीं मिलेगा। मोदी सरकार ने एक अच्छा काम यह किया है कि इस सीमा को घटाकर 33 फीसदी कर दिया है। फिर भी सवाल यह है कि ऐसी सीमा हो ही क्यों? यूं भी नुकसान को नापने का कोई ऐसा तरीका नहीं बना है, जिसमें सरकार की मनमानी न चलती हो। मान लिया गया है कि कम से कम 33 फीसदी नुकसान पर मुआवजा मिलेगा, लेकिन सरकार देना न चाहे, तो तहसीलदार और पटवारी को इशारा हो जाता है और वे 30 फीसदी से ज्यादा नुकसान दिखाते ही नहीं।

अगर इस नियम से पार पाकर किसान मुआवजे का हकदार हो भी जाए, तो भ्रष्टाचार और लालफीताशाही किसान का इंतजार करती है। नुकसान का मूल्यांकन करते वक्त पटवारी मनमानी करता है। कोई भी बड़ी आपदा हो, तो राज्य सरकारें हाथ खडे़ कर देती हैं। कहती हैं कि केंद्र सरकार पैसा दे। जिस तरह की मनमानी पटवारी गांव में करता है, केंद्र सरकार उसी तरह की मनमानी राज्य सरकारों को आपदा राहत कोष बांटने में करती है। कागज पर मुआवजे के रेट बारानी खेती में 2,700 रुपये प्रति एकड़ से लेकर सदाबहार खेती में 7,500 रुपये एकड़ तक हैं, लेकिन पैसे हों तो रेट मिलें। असलियत में हजारों का नुकसान खा चुके किसान को कुछ सौ रुपये एकड़ के हिसाब से चेक मिलता है। और उसके लिए भी दफ्तर के चक्कर लगते हैं, बाबू और पटवारी का कमीशन कटता है, महीनों का इंतजार होता है।

रही बात फसल बीमा की, तो उसमें भी अब तक किसानों को निराशा ही मिली है। आज से 30 साल पहले बड़े गाजे-बाजे के साथ सभी प्रमुख फसलों के समग्र बीमा की योजना की घोषणा हुई थी। तब से अब तक योजना के नाम बदले हैं, लेकिन न तो सरकार की भाषा बदली है, न ही बीमे की असफलता। पिछले वर्ष के सरकारी सर्वेक्षण के मुताबिक, 90 फीसदी से अधिक किसान फसल बीमा से अछूते हैं, अधिकांश ने तो इसके बारे में सुना भी नहीं है। पिछले कुछ साल से प्राइवेट कंपनियां फसल बीमा में घुसी हैं और इनमें से कई किसानों को ठगने में आगे हैं। इसी वर्ष छत्तीसगढ़ में फसल बीमा का घोटाला सामने आया है।

सरकारी ऋण लेने वाले हर किसान की फसल का बिना सहमति जबर्दस्ती बीमा करवा दिया गया, नियम से ज्यादा प्रीमियम वसूल लिया गया और अदायगी के नियम ऐसे कि बीमा की विज्ञापित अधिकतम राशि किसी किसान को मिल ही नहीं सकती। इस साल फिर सूखा है, फिर किसानों की दुर्दशा पर चर्चा होगी, सूखा राहत की योजनाओं की घोषणा होगी। क्या इस बार हम इस विषय पर नए तरीके से सोचने को तैयार होंगे या फिर प्रकृति के साथ-साथ विचारों का भी अकाल जारी रहेगा?

मन और मस्तिष्क के सूखे को समाप्त कराने का संकल्प लेकर हम कुछ साथी देश के सूखा प्रभावित जिलों में 'संवेदना यात्रा' पर निकल रहे हैं। गांधी जयंती के दिन कर्नाटक से शुरू होने वाली यह यात्रा दो हफ्ते तक देश के सात राज्यों के 25 जिलों में गांव-गांव जाएगी, सूखे के सच को समझने और समझाने की कोशिश करेगी। सूखे के मुआवजे को हम दान या खैरात की तरह देखने की बजाय अधिकार की भाषा में समझ सकते हैं। सबको मुआवजा, बिना शर्त मुआवजा, जितना नुकसान उतना मुआवजा जैसी बुनियादी मांग पर राष्ट्रीय सहमति बना सकते हैं। आधुनिक विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल कर ऐसी योजना बना सकते हैं कि फसल के नुकसान के मूल्यांकन और मुआवजे के भुगतान में किसान भ्रष्टाचार का शिकार न हो।

 

परंपरागत सूझ-बूझ का इस्तेमाल कर सकते हैं, जिससे बारिश की कमी से सूखे और अकाल की स्थिति न बने। सूखे की राष्ट्रीय आपदा हमारी संवेदना से सिर्फ करुणा नहीं, बल्कि संकल्प भी मांगती है, सिर्फ ईमानदारी ही नहीं, समझदारी भी मांगती है। सूखे के सामने यही हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)