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सूचना अधिकार की नजर- कनक तिवारी

जनसत्ता 17 जून, 2013: केंद्रीय सूचना आयोग के ताजा निर्णय के कारण राजनीतिक पार्टियों में खलबली मच गई है। आयोग का फैसला राजनीतिक पार्टियों की पीठ पर कोड़ा मारता दिखा, लेकिन उसे दलों ने पेट पर लात मारने की शक्ल में माना और अपनी जगहंसाई कराई। आयोग के सामने प्रश्न था कि क्या सूचनाधिकार अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी (पब्लिक अथॉरिटी) माना जा सकता है? इस अधिनियम की धारा 2 (ज) के अनुसार ‘लोक प्राधिकारी' से- (क) संविधान द्वारा या उसके अधीन; (ख) संसद द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा; (ग) राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई किसी अन्य विधि द्वारा; (घ) समुचित सरकार द्वारा जारी की गई अधिसूचना या किए गए आदेश द्वारा, स्थापित या गठित कोई प्राधिकारी या निकाय या स्वायत्त सरकारी संस्था अभिप्रेत है, और इसके अंतर्गत समुचित सरकार के स्वामित्वाधीन, नियंत्रणाधीन या उसके द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उपलब्ध कराई गई निधियों द्वारा,- (पर्याप्त वित्त-पोषित कोई गैर-सरकारी संगठन); कोई अन्य निकाय भी है;' आयोग ने उपरोक्त पर विचार करते हुए यही फैसला किया कि देश के प्रत्येक नागरिक को सूचना अधिकार के तहत राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी समझने का अधिकार है। लिहाजा, उन पर सूचना अधिनियम के सभी प्रावधान लागू होंगे।
फैसला इतना क्रांतिकारी भी नहीं है जिससे पार्टियों को आशंकित या उत्तेजित होकर अभियुक्त-मुद्रा में घबराने की जरूरत हो। कांग्रेस के प्रवक्ता वरिष्ठ वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने तो तल्ख स्वर में कहा कि उनकी पार्टी न केवल निर्णय को न्यायालय में चुनौती देगी, बल्कि खारिज भी कराएगी। पार्टियां सूचना आयोग पर हमला करने के बहाने नागरिकों के सार्वभौम अधिकार को ही चुनौती दे रही हैं। यह भी विरोधाभासी है कि निर्णय की विरोधी कम्युनिस्ट पार्टियों ने अपने आय-व्यय का ब्योरा देने में आयोग के सामने सहमति दी थी। सूचनाधिकार अधिनियम, 2005 की उद्देशिका कहती है ‘भारत के संविधान ने लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की है; और लोकतंत्र शिक्षित नागरिक वर्ग तथा ऐसी सूचना की पारदर्शिता की अपेक्षा करता है, जो उसके कार्यकरण और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी और सरकारों और उनके परिकरणों को शासन के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए अनिवार्य है।'
किस्सा क्या था? आरटीआइ कार्यकर्ता सुभाषचंद्र अग्रवाल और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स के अनिल बेरवाल ने आयोग के सामने दो याचिकाएं प्रस्तुत कीं। इनके जरिए उन्होंने देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टियों से उनके चुनाव घोषणापत्रों और उन पर किए गए अमल, आय-व्यय के विस्तृत विवरणों और पार्टी सदस्यों और अन्य स्रोतों द्वारा मिलने वाली आर्थिक सहायताओं की जानकारियां मांगीं थी। नोटिस मिलने पर कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा और भाजपा के शांतिलाल अग्रवाल ने लिख कर दिया कि उनके संगठन सूचना अधिनियम के अनुसार ‘लोक प्राधिकारी' की परिभाषा में नहीं आते।
ऐसा ही तर्क राकांपा के प्रतिनिधि चंदन बोस ने भी दिया। उन्होंने यह भी अतिरिक्त सूचना दी कि उनकी पार्टी आय-व्यय के सभी ब्योरे चुनाव आयोग को देती है। वही पर्याप्त है। इसके विपरीत भाकपा के केसी बंसल ने वर्ष 2004-05 से 2009-10 तक के विवरण प्रस्तुत कर दिए। बाकी प्रमुख राजनीतिक दलों ने कोई ब्योरा नहीं दिया। सुभाषचंद्र अग्रवाल ने पुन: शिकायत की कि कांग्रेस और भाजपा को राष्ट्रीय पार्टी होने के कारण दिल्ली और नई दिल्ली में नाममात्र की दरों पर भूमि आबंटित की गई है। इस तरह सरकार से आर्थिक सहायता मिलने के कारण उन्हें लोक प्राधिकारी मानना चाहिए।
सुभाष अग्रवाल के वकील प्रशांत भूषण ने भी प्राप्त जानकारी के आधार पर उन्हीं कानूनी मुद्दों को विस्तारित और व्याख्यायित किया। उन्होंने कहा कि राजनीतिक दल लोकतांत्रिक गणराज्य में उसकी नसों में प्रवाहित रक्तकी तरह हैं। फिर, उन्हें राज्य से अप्रत्यक्ष रूप में आर्थिक सहायता मिलती है। इसलिए उन्हें लोक प्राधिकारी घोषित करना चाहिए। एके अनेजा ने भी आयकर अधिनियम की धारा 80 जी.जी.बी. का हवाला दिया जिसके तहत सहूलियत केवल राजनीतिक पार्टियों को मिलती है। अनिल बेरवाल ने भी उन्हीं कानूनी मुद्दों को फोकस करके तर्क दिया कि जवाबदेही और पारदर्शिता के बिना राजनीतिक पार्टियों का कोई अर्थ नहीं है।
विधि आयोग की 170वीं रिपोर्ट के संबंधित अंश में यही सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। बेरवाल ने आयोग के एक पुराने फैसले का हवाला देते हुए कहा कि आयोग पांच वर्ष पूर्व ही यह आदेश पारित कर चुका है कि उसके द्वारा आयकर रिटर्न आदि की दी गई जानकारियों को जानने का अधिकार आम जनता को है। बेरवाल ने एक महत्त्वपूर्ण बात कही कि सूचना अधिनियम के तहत ‘लोक प्राधिकारी' भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 में वर्णित ‘राज्य' शब्द से ज्यादा व्यापक समझा जाना चाहिए।
ऐसा हो सकता है कि कोई इकाई राज्य-व्यवस्था का हिस्सा न हो लेकिन उसे लोक प्राधिकारी समझा जाए। बेरवाल का यह कथन पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक निर्णय पर आधारित था। उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में चले इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन बनाम वीरेश मलिक प्रकरण का उल्लेख करते हुए किसी विशेष अधिनियम के सही मकसद को समझने की जिरह की। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 102 (2), 191 (2) और दसवीं अनुसूची को एक साथ पढ़ने से राजनीतिक पार्टियों की संवैधानिकता स्पष्ट होती है। राजनीतिक दलों को व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं कहा जा सकता, उन्हें लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 29 (क) के अंतर्गत पंजीबद्ध किया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत बने चुनाव नियमों के तहत राजनीतिक दलों को चुनाव चिह्न आबंटित किए जाते हैं, जिन्हें नियमों का उल्लंघन होने पर रद््द भी किया जा सकता है।

आयोग ने यह तो माना कि राजनीतिक पार्टियां सूचना अधिनियम की धारा 2 (क) (ख) (ग) (घ) के अंतर्गत लोक प्राधिकारी नहीं हैं। देखना यही होगा कि राजनीतिक दलों को अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायता मिलती हैं? उस दृष्टि से क्या उन्हें लोक प्राधिकारी कहा जा सकता है? राजनीतिक दलों ने कहा कि उन्हें पर्याप्त वित्त पोषित गैर-सरकारी संगठन नहीं माना जा सकता क्योंकि सरकार से मिलने वाली अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायता बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं होती। इस सिलसिले में आयोग ने दिल्ली उच्च न्यायालय में चले कृषक भारती कोआॅपरेटिव लिमिटेड बनाम रमेशचंद्र बावा के प्रकरण का लोक प्राधिकारी की परिभाषा को समझने के लिए सहारा लिया। आयोग ने दिल्ली हाइकोर्ट के एक अन्य फैसले- इंडियन ओलंपिक एसोसिएशन बनाम वीरेश मलिक- का भी उद्धरण दिया। आयोग ने यह भी पाया कि खुद उसने अपने पूर्व आदेश अमरदीप वालिया बनाम चंडीगढ़ लॉन टेनिस एसोसिएशन में एसोसिएशन को लोक प्राधिकारी माना है।
अन्य प्रकरण प्रदीप भानोट में भी चंडीगढ़ क्लब को आयोग ने ही लोक प्राधिकारी करार दिया है। अमृत मेहता बनाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के प्रकरण में भी सस्ती दरों पर सरकारी भूमि पाने के कारण सेंटर को लोक प्राधिकारी माना गया था। अपने एक और आदेश में आयोग ने देहली पब्लिक स्कूल, रोहिणी को इन्हीं आधारों पर लोक प्राधिकारी घोषित किया है। आयोग ने शिकायतकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत तथ्यात्मक और वैधानिक आधारों, दस्तावेजों और अनेक अदालती फैसलों में वर्णित सूक्ष्म कानूनी उपपत्तियों की अवधारणाओं से सहमत होते हुए यही पाया कि राजनीतिक दलों को लोक प्राधिकारी की परिभाषा में रखा जाना जनहित में आवश्यक है। आयोग ने उन्हें आयकर में मिलने वाली छूट और बेहद रियायती दर पर जमीन, भवन के आबंटन के मद््देनजर पाया कि वे पर्याप्त रूप से वित्त पोषित माने जाएंगे।
आयोग का निर्णय इसलिए भी अहम है क्योंकि सरकारी नीतियों और फैसलों के धन-बल से प्रभावित होने के आरोप बढ़ते गए हैं। आयोग को कर्नाटक हाइकोर्ट के एक फैसले (बंगलोर इंटरनेशनल एयरपोर्ट लिमिटेड बनाम कर्नाटक सूचना आयोग) से भी मदद मिली। हाइकोर्ट ने पूरे वित्तीय विवरण के अभाव में कंपनी अधिनियम के उस प्रावधान पर भरोसा किया जो छब्बीस प्रतिशत शेयर रखने पर शेयरधारक को कंपनी में पर्याप्त अधिकार सौंपता है। ऐसी वित्तीय सहायता अनुदान या छूट के रूप में भी हो सकती है।
इस ममाले की गंभीरता, व्यापकता, उपादेयता और भविष्य में पड़ने वाले असर को देख कर आयोग ने दूरगामी और सार्थक निर्णय सुनाया। आयोग ने कहा कि सांगठनिक दृष्टि से राजनीतिक दल एक तरह का नागरिक समाज हैं, साथ ही चुनाव और विधायिका के जरिए वे सरकारों का नियंत्रण करते हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही जुड़े हुए हैं। इस युग्म को सुप्रीम कोर्ट ने टीएन शेषन बनाम भारत संघ के मुकदमे में सैद्धांतिक निरूपण के जरिए व्याख्यायित किया है। पीयूसीएल बनाम भारत सरकार के मशहूर फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि चुनाव ढकोसला होेंगे अगर मतदाताओं को अपने उम्मीदवारों के चरित्र और सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक स्थिति आदि के बारे में प्रामाणिक जानकारी नहीं होगी।
संविधान समीक्षा आयोग ने भी मार्च 2002 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि उम्मीदवारों और राजनीतिक पार्टियों को आय-व्यय के कानूनी आॅडिट के तहत लाया जाए। साफ तौर पर आयोग ने कहा कि उसके सामने उपस्थित पक्षकार (कांग्रेस, भाजपा, माकपा, भाकपा, राकांपा और बसपा) सूचनाधिकार अधिनियम के अंतर्गत लोक प्राधिकारी की परिभाषा में आते हैं। एकल पीठों द्वारा दिए गए विपरीत निर्णयों को पूर्णपीठ ने रद््द कर दिया। राजनीतिक दलों को निर्देश दिए गए कि वे छह सप्ताह के अंदर सूचनाधिकारियों की नियुक्तिकरें। नियुक्त सूचना अधिकारी अगले चार सप्ताह के भीतर आवश्यक वैधानिक कार्रवाई करें। राजनीतिक दलों को धारा 4 (1) (ख) का भी पालन करना होगा, यानी उन्हें आवश्यक जानकारियों को प्रकाशित करना होगा और प्रतिवर्ष उन्हें संशोधित करते रहना होगा।
आयोग के निर्णय में राजनीतिक पार्टियों को लोक प्राधिकारी की संज्ञा या विशेषण देना तय हुआ है। दूरदर्शन के चैनलों पर राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधियों ने खुद को लोक प्राधिकारी बताए जाने पर हायतौबा मचाई। राजनीतिक पार्टियों की अन्य तमाम गतिविधियों- जिनमें पार्टी की बैठकें और अन्य विवरण शामिल हैं- को लेकर भी आयोग के आदेश में अनावश्यक उल्लेख नहीं है। राजनीतिक पार्टियों को आयकर से छूट मिलती है जो अन्यथा जनता का धन है। उन्हें अपने कार्यालय के लिए सस्ती दरों पर सरकारी जमीन मिलती हैं। उन्हें आय के सभी स्रोतों को बताने और किसी सक्षम एजेंसी द्वारा उनकी जांच किए जाने का प्रावधान नहीं है। इसके बावजूद अगर राजनीतिक पार्टियों की आपत्तियों को देश की संविधान अदालतें मान लेंगी, तो खुद उनके सामने अपने ही पूर्व निर्णयों से मुठभेड़ करने के सैद्धांतिक अवसर प्रतीक्षा कर रहे होंगे।