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सेवानिवृत्ति के बाद--- क्षमा शर्मा

अट्ठावन साल पर रिटायरमेंट क्या हुआ, सलाह देने वालों की बाढ़ आ गई। किसी ने कहा- अब तो आप बेटे के पास जाकर अपने पोते को खिलाइए। फिर पूछा- बहू तो अच्छी है न! मन में कहीं यह सुनने-जाने की जिज्ञासा थी कि बेटे-बहू से बनती है कि नहीं। फिर अगर उम्रदराज औरत हो तो उसका स्टीरियो टाइप भी नहीं बदला है कि उसका एकमात्र काम बुढ़ापे में अपने बच्चों के बाल-बच्चों को पालना-पोसना और खाली वक्त भगवत भजन में लगना है। वह इसके अलावा भी और कुछ कर सकती है, यह बात सोच में आती ही नहीं है।


एक और मित्र ने कहा कि अब तो आपके पास टाइम ही टाइम होगा। जाकर वर्ल्ड टूर कर आइए। एक और परिचित बोला- अब आपको करना क्या है। मौज काटिए। खूब पार्टी करिए, पार्टी दीजिए। एक घोषित फेमिनिस्ट बोली- कब तक काम करती रहेंगी। निकलिए, दुनिया को देखिए। घूमिए-फिरिए। जो दिल करता है अब तो बस वह करिए। दिल की सुनिए। दिल की करिए।


कोई-कोई वास्तविक चिंता करता पूछता- आप जिंदगी भर बाहर काम करती रही हैं। अब घर में समय कैसे कटेगा। उसे हंसकर इतना ही जवाब दिया था- अरे भाई, काम की कोई कमी नहीं है। वैसे भी औरतों को घर कभी खाली नहीं बैठने देता। चौबीस घंटे भी घर संभालते कम पड़ जाते हैं। और मेरे पास घर के अलावा भी और बहुत-से काम हैं। खैर, जितने मुंह उतनी ही बातें। और कुल मिलाकर सबका निचोड़ यह कि अब तक जो जिया, जहां जीवन बिताया, जिस दफ्तर को अपना मान कर लगातार रटा था- मेरा दफ्तर, मेरा दफ्तर, मेरा आफिस, उसने देखो, कितने आराम से पल्ला छुड़ा लिया। पलट कर देखा तक नहीं। थोड़े दिनों बाद कभी जाओगी तो वहां के लोग तो क्या, दीवारें भी नहीं पहचानेंगी। बल्कि दूर से आते देख, लोग अपनी-अपनी जगह से गायब हो जाएंगे। कौन मुसीबत मोल ले। आखिर मान ही लिया गया है कि रिटायरमेंट के बाद आदमी के पास आगे देखने के लिए कुछ नहीं होता। सिर्फ अतीत की सौ बार सुनाई गई गाथाएं होती हैं। और अतीत में डुबकी लगाने की दिलचस्पी किसी की नहीं होती। आखिर किसी

दूसरे के अतीत रूपी भूत को अपने सिर पर बिठाने की चाहत किसी और को क्यों हो। हर एक के पास अपनी चिंताएं और दुख क्या कम होते हैं जो दूसरों और खासतौर से बूढ़ों के उधार ले लिये जाएं।


सचमुच जिस जगह जीवन गुजारा, रात-दिन, चौबीस प्रहर जो दफ्तर दिमाग पर तारी रहा, उसका एकाएक पैदा हुआ बेगानापन प्राय: बर्दाश्त नहीं होता। वे लोग जो रात-दिन के साथी थे, ऐसा महसूस कराते हैं कि जैसे कभी मिले नहीं, जान-पहचान नहीं। अकसर रिटायरमेंट के बाद अपनों के द्वारा दूसरों की उपेक्षा होते देख, आदमी अपने मन को तसल्ली देता है कि उसके साथ ऐसा नहीं होगा, क्योंकि लोग उसके पद के कारण नहीं, उसके मित्र और परिचित होने के कारण उसे पहचानते हैं। लेकिन जब असलियत सामने आती है तो आसपास के वातावरण, जान-पहचान वालों का दिया बोझ, मन से उतारे नहीं उतरता। बहुत-से लोग इस उपेक्षा को झेल नहीं पाते। डिप्रेशन के शिकार हो जाते हैं। या गंभीर रोग उन्हें अपनी चपेट में ले लेते हैं।इसके अलावा एक आम धारणा यह भी है कि रिटायरमेंट के बाद आदमी खाली हो जाता है। रिटायरमेंट का अर्थ है बुढ़ापा और बुढ़ापे का अर्थ है नई पीढ़ी के लिए जगह खाली करके दुनिया से जल्दी से जल्दी विदा हो जाना। क्योंक समझा जाता है कि बूढ़े अर्थव्यवस्था पर बोझ होते हैं। कई बार नेता तथा अर्थव्यवस्था की अपनी-अपनी तरह से परिभाषा गढ़ने वाले लोग ऐसी बयानबाजी करते भी रहते हैं।


फिर कुछ लोगों में दूसरे की उम्र को लेकर कटाक्ष-कमेंट करने की भी आदत होती है। जब वे ऐसा कर रहे होते हैं, तो भूल जाते हैं कि वे अपनी उम्र को चाहे जितनी कड़ी मुट्ठी बांध कर पकड़ने की कोशिश करें, उम्र उनकी हर कोशिश को पछाड़ती, उन तक आ ही पहुंचेगी। आज वे जिन्हें बूढ़ा, बुढ़ऊ, धरती पर बोझ कह कर संबोधित कर रहे हैं, कल उन्हें ऐसा ही या इससे भी कुछ अधिक कड़वा सच सुनना है। बालों को रंगने या चेहरे पर लिपाई-पुताई करने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। सच तो यह है कि रिटायरमेंट नौकरीपेशा शहरी मध्यवर्ग की आफत है। वरना अगर कृषि जीवन को देखें, तो वहां किसान कभी रिटायर नहीं होता। अपने पके बालों और हाथ-पांव पर पड़ी झुर्रियों का बहाना बना, वह कभी काम से मुंह चुराने की कोशिश नहीं करता। मजदूर के हाथ-पांवों में जब तक दम है, तब तक उम्र की परवाह किए बिना, दो जून की रोटी के लिए वह मेहनत करता है। इसी तरह औरतें भी कभी रिटायर नहीं होतीं। घर के काम की चलने वाली चक्की को पीसते-पीसते कब वे उम्र के चौथेपन में पहुंच जाती हैं, पता ही नहीं चलता।