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सेहत और शिक्षा को न बनाएं धंधा-- राजीव रंजन झा

हम भारतीय आम तौर पर कुछ भी खरीदते हैं, तो मोलभाव जरूर करते हैं. मसलन, सब्जी खरीदनी हो तो जरूर पूछते हैं कि भई 40 रुपये किलो क्यों, बगल में 35 का दे रहा है, 30 की देनी है तो दो. लेकिन अगर कोई आपसे पूछे कि आपकी दो बड़ी ऐसी खरीदारी कौन-सी हैं, जिसमें आपने कोई मोलभाव नहीं किया, तो क्या जवाब देंगे? शायद आप कहेंगे कि सिनेमा टिकट में मोलभाव नहीं हो पाता. रेलवे टिकट में भी.

लेकिन जरा बताइये, किसी भी स्कूल में नर्सरी के नामांकन में भी मोलभाव चलता है क्या? उल्टे डोनेशन का खेल चलता है. यह खेल पढ़ाई की सबसे ऊंची सीढ़ी तक चलता है. आज इंजीनियरिंग, मेडिकल या एमबीए जैसी पढ़ाई का जो खर्च है, उतने पैसे इस देश के ज्यादातर परिवार अपनी सारी संपत्ति बेच कर भी नहीं जुटा सकते. 

आप डॉक्टर से, अस्पताल से दवा दुकानदार से मोलभाव करते हैं क्या? अपवादों को छोड़ कर शायदही कोई करता हो. ऐसा नहीं है कि डॉक्टर साहब की ऊंची फीस लोगों को चुभती नहीं है.

किसी भी दवा दुकानदार से पूछ लें कि हर रोज कितने लोग आकर उसी से सलाह मांग लेते हैं कि ये तकलीफ है, दवा दे दो. मोहल्ले के डॉक्टर साहब के पास भी गये तो चार-पांच सौ रुपये की फीस तो लग ही जायेगी. इसलिए केमिस्ट से ही पूछ कर दवा ले लो. इतनी चुभती है, मगर उस फीस पर मोलभाव नहीं होता. छोटी-मोटी बीमारी में भी अगर किसी को चार-छह दिन किसी निजी अस्पताल में भर्ती रहना पड़ गया, तो बिल बड़े आराम से लाख रुपये पार कर सकता है. 

यहां उन भयावह किस्सों को तो छोड़ दीजिए, जहां सुनने को मिलता है कि मरीज की मौत हो गयी थी, पर लाश को ही एक-दो दिन और आइसीयू में भर्ती रख कर किसी ऑपरेशन के नाम पर लाखों का बिल बना दिया गया और उसके बाद कह दिया गया कि माफ करें, हम बचा नहीं सके. जिन मामलों में लोग इलाज से संतुष्ट रहते हैं, वहां भी यह बात कचोट जाती है कि खर्च कितना ज्यादा हो गया. लेकिन लोग यही सोच कर मन को तसल्ली देते हैं कि चलो, इंसान की जान के आगे पैसे की क्या कीमत. 

लोग कहेंगे कि निजी क्षेत्र में सेवा की कीमत तो देनी पड़ेगी. सरकार कहेगी कि हमने आम जनता के लिए सरकारी अस्पताल खोल तो रखे हैं. विशेषज्ञ बोलेंगे कि भई, इसीलिए तो हम बताते रहते हैं कि आजकल स्वास्थ्य बीमा कितना जरूरी हो गया है. लेकिन नहीं, यह केवल सेवा की कीमत का नहीं, बल्कि लालच की अति हो जाने का मामला है. 

दिल्ली में डेंगी के आतंक के बीच निजी अस्पतालों से लेकर पैथोलॉजिकल लैब तक की मुनाफाखोरी के समाचार मिल रहे हैं. देश के किसी भी हिस्से में डॉक्टर जब किसी इलाज के दौरान टेस्ट लिखते हैं, तो मरीज संशय में रहता है कि यह टेस्ट जरूरी था भी या बस कमीशन के चक्कर में लिख दिया गया. अलग-अलग कंपनियों की दवाएं सस्ती महंगी होती हैं. आरोप लगते रहे हैं कि डॉक्टर सस्ती दवा के बदले महंगी दवा लिखते हैं. माना जाता है कि इसका भी मकसद डॉक्टर को मिलनेवाला कमीशन होता है या दवा कंपनी की ओर मिलनेवाला कोई लाभ.

आप दवा की दुकान पर यह सोच कर संकोच कर सकते हैं कि अरे, अब दवा में क्या मोलभाव करना. मगर आप यह जान कर हैरान रह जायेंगे कि 2,700 रुपये से ज्यादा के एमआरपी वाला इंजेक्शन आपको दो-चार दुकानों में मोलभाव करने पर 1,000 रुपये से कम का भी मिल सकता है. जरूरी नहीं है कि यह बात हर दवा के साथ सच हो, पर यह भी सच है कि ऐसे उदाहरण आसानी से मिल जाते हैं. 

नीतिगत रूप से यह जान पड़ता है कि सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य, इन दोनों को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़ दिया है. निजी क्षेत्र पर बढ़ती निर्भरता ही इन दोनों जगह बढ़ती मुनाफाखोरी का मुख्य कारण है. शिक्षा को तो अभी कानूनन मुनाफेदार व्यवसाय के रूप में चलाने की अनुमति भी नहीं दी गयी है, तब यह हाल है. विपक्ष एनडीए सरकार की आलोचना में जुटा है कि इसने स्वास्थ्य बजट में कटौती कर दी है. यह आलोचना अपनी जगह जायज है. मगर सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली, निजीकरण पर जोर और कुल मिला कर स्वास्थ्य सेवाओं को बेहद कम बजट आवंटन का चलन बनाये रखने का श्रेय तो आज के मुख्य विपक्ष को ही जाता है. 
बीते अगस्त में जारी फिक्की-केपीएमजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च जीडीपी का 4.2 प्रतिशत है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र (यानी सरकारी) का खर्च केवल एक प्रतिशत है, जो विश्व में तुलनात्मक रूप से सबसे कम खर्च वाले देशों में गिना जा सकता है. हालांकि, एक बाजार के रूप में देखें, तो यह अच्छी गति से बढ़ रहा है. 

साल 2011 में भारत में स्वास्थ्य सेवाओं का बाजार 73.92 अरब डॉलर का था, जो सालाना औसतन 16 प्रतिशत की दर से बढ़ते हुए साल 2020 तक 280 अरब डॉलर का हो जाने का अनुमान है. 

एनडीए सरकार की स्वास्थ्य नीति कहती है कि वह स्वास्थ्य पर सरकारी निवेश को जीडीपी के एक प्रतिशत के वर्तमान स्तर से बढ़ा कर साल 2020 तक 2.5 प्रतिशत पर ले जायेगी और इस निवेश का 70 प्रतिशत भाग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च होगा. अगर ऐसा होता है तो स्वास्थ्य सेवाओं में काफी सुधार आ सकता है, बशर्ते खर्च सही तरीके से होने पर कारगर निगरानी रखी जा सके.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, आप हमेशा बताते रहते हैं कि आप चाय वाले के बेटे हैं और खुद भी बचपन में स्टेशन पर चाय बेचते थे. एक पल को जरा सोच कर बताइये कि आज एक चाय वाले का बेटा ठीक से पढ़ सकता है क्या? 

सरकारी स्कूल में चला गया, तो पढ़ाई नहीं मिलेगी, और निजी स्कूल की भारी फीस के चलते तो नामांकन ही नहीं मिलेगा. आज किसी चाय वाले से पूछ लीजिए कि उसे कोई बड़ी बीमारी हो गयी, तो वह कहां इलाज करा पायेगा? सरकारी अस्पतालों में इलाज नहीं मिलेगा और निजी अस्पतालों में वह जा ही नहीं पायेगा. 

कुछ कीजिए प्रधानमंत्री जी. कम-से-कम इतना कीजिए कि आज एक चाय वाले को किसी बीमारी में सही इलाज सुलभ हो सके और उसके बच्चे पढ़ सकें. कुछ कीजिए कि कम-से-कम स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी चीजें धंधेबाजी के चंगुल से बाहर निकल जायें. उसके बाद तो देश अपनी ऊर्जा से खुद विकास कर लेगा.