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सेहत का बीमा या मुनाफे का- अरविन्द कुमार सेन

जनसत्ता 24 दिसंबर, 2012: राजीव गांधी एक मर्तबा राजस्थान के दौरे पर गए थे और अपनी सभा खत्म होने के बाद पंडाल से निकलते समय स्थानीय लोगों से उनकी दिक्कतों के बारे में पूछ रहे थे।

कुछ किसानों ने कहा कि साहब पिछले साल हरी मिर्च के दाम आसमान पर चल रहे थे तो नफे की आस में हम लोगों ने इस बार पूरे खेत में मिर्च बोई थी। हरी मिर्च की कटाई का मौसम आते ही भाव जमीन पर आ गए हैं और बीज-बुआई पर लगाई गई लागत भी नहीं मिल पा रही है। किसानों का कहना था कि कारोबारी जान-बूझ कर हरी मिर्च कम दामों पर खरीद रहे हैं, क्योंकि इसका लंबे वक्त तक भंडारण नहीं किया जा सकता, वहीं लाल मिर्च महंगे दामों पर बिक रही है। राजीव गांधी ने तपाक से कहा कि जब लाल मिर्च महंगे दामों पर बिक रही है तो इसी की खेती करनी चाहिए थी, हरी मिर्च क्यों उगाया है। देश के गरीब-गुरबों की भलाई के नाम पर आज भी ऐसी ही हवाई नीतियां बनाई जा रही हैं और ताजा मिसाल यूपीए सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना है।
निजी अस्पतालों में गरीबों को बिना पैसे इलाज मुहैया कराने के दावे के साथ राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाइ) अप्रैल 2008 में शुरू की गई थी। इसे लागू करने के लिए सरकार ने देश भर में ग्यारह हजार अस्पतालों के साथ करार किया है और गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोग इन अस्पतालों में तीस हजार रुपए तक का इलाज मुफ्त करवा सकते हैं। अस्पताल अपने खर्चे का बिल बना कर बीमा कंपनियों के पास क्षतिपूर्ति का दावा करते हैं और बदले में बीमा कंपनियों को सरकार पैसा देती है।
परिभाषा में आरएसबीआई बेहद लुभावनी लग रही है, लेकिन बीते चार सालों से बीमा कंपनियों और अस्पतालों ने गरीबों के नाम पर इस योजना को नोट छापने की मशीन में तब्दील कर रखा है। गरीबों को चिकित्सा-सुविधा मिल रही है या नहीं, यह जानने की जहमत किसी ने नहीं उठाई, मगर सरकार ने इस योजना का बजट तीन सौ साठ करोड़ से बढ़ा कर 2012-13 में एक हजार पांच सौ करोड़ कर दिया है।
सबसे पहला सवाल तो इस योजना के दायरे पर ही उठता है, क्योंकि इसमें केवल बीपीएल परिवारों यानी देश की आबादी के छब्बीस फीसद हिस्से को ही शामिल किया गया है। क्या सरकार यह मानती है कि बीपीएल परिवारों को छोड़ कर बाकी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच रखती है? दूसरी बात, हमारा देश चिकित्सकों-नर्सों की उपलब्धता के वैश्विक पैमानों पर बुरी तरह पिछड़ा हुआ है और हालत यह है कि दो हजार लोगों पर एक चिकित्सक है। यह आंकड़ा पूरे देश के औसत के आधार पर निकाला गया है और इसका मतलब है कि नई दिल्ली में सौ लोगों पर पांच डॉक्टर हो सकते हैं वहीं बिहार के सीतामढ़ी जिले में पांच हजार लोगों पर एक डॉक्टर ही उपलब्ध हो।
नर्सों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की उपलब्धता के आंकड़े तो इससे भी ज्यादा डरावने हैं। अगर बुनियादी चिकित्सा संसाधन ही न हों तो स्वास्थ्य बीमा की बात करना घर बनाए बिना चारपाई लाने जैसा है। देश की हकीकत जाने बगैर स्वास्थ्य बीमा का विचार उसी अमेरिका और यूरोप से आयात किया गया है, जहां से हमारे नीति-निर्माता आर्थिक विकास का मॉडल लेकर आए हैं।
स्वास्थ्य बीमा से गरीबों को सहूलियत देने के नारे की हकीकत जानने के लिए निजी अस्पतालों की ओर से दायर किए जा रहे बीमा दावों को इंटरनेट पर जाकर खंगालिए। छत्तीसगढ़ के एक अस्पताल की मानें तो वहां छह साल की एक लड़की ने बच्चे को जन्म दिया, वहीं बिहार में एक अस्पताल ने तीन माह के बच्चे की आंखों में कॉन्टैक्ट लैंस लगाने का कारनामा कर डाला है। देश भर में ऐसे सैकड़ों मामले सामने आए हैं जिनमें कहा गया है कि निजी अस्पताल इलाज के फर्जी बिल बना कर बीमा योजना का पैसा उठा रहे हैं। बात यहीं तक सीमित नहीं है। कुछ निजी अस्पताल और एक कदम आगे निकल गए हैं।
झारखंड से आई खबरों के मुताबिक निजी अस्पतालों ने बीमा की रकम के लिए जबर्दस्ती शल्य चिकित्सा कर डाली और कई जगह गरीब लोगों की किडनी निकाल ली गई। महिलाओं के प्रसव में सबसे ज्यादा गोरखधंधा किया जा रहा है। चिकित्सा विशेषज्ञ एकमत हैं कि बच्चा होने से पहले साधारण प्रसव पीड़ा होती है और महिला की सीजेरियन शल्य चिकित्सा विशेष हालत में ही की जानी चाहिए। निजी अस्पताल बीमा के लालच में गर्भवती गरीब महिलाओं की ताबड़तोड़ सीजेरियन शल्य चिकित्सा कर रहे हैं और साधारण प्रसव होने की संभावना वाली महिला का पेट भी मुनाफे के लालच में काट कर रख दिया जाता है। ऐसी महिला को दुबारा मां बनने पर परेशानी का सामना करना पड़ता है।
आरएसबीवाइ की एक सबसे बड़ी खामी यह है कि इसमें इलाज की अधिकतम सीमा तीस

हजार रुपए रखी गई है। कहने का मतलब यह है कि बीमारी कैसी भी हो, सरकार तीस हजार रुपए तक के इलाज का ही खर्च उठाएगी। ऐसे में तीस हजार रुपए की सीमा पूरी होते ही निजी अस्पताल गरीब मरीजों को दुत्कार देते हैं और वे अधर में लटक जाते हैं। यह बात हर कोई जानता है कि हृदय रोग या गुर्दा नाकाम हो जाने जैसी गंभीर बीमारियों का इलाज तीस हजार रुपए में नहीं हो सकता और भारत के निजी अस्पतालों में इलाज पर आने वाले खर्च के बारे में ज्यादा कुछ कहने की गुंजाइश ही नहीं है।
हमारे देश में निजी अस्पतालों में स्वास्थ्य सेवाओं पर वसूली जाने वाली रकम के बारे में कोई एकरूपता नहीं है। मसलन, दिल्ली में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाला कोई आदमी अपोलो, गंगाराम और फोर्टिस जैसे कथित पांच सितारा अस्पतालों में तीस हजार रुपए से जुकाम का इलाज भी नहीं करा सकता। यह हाल पूरे देश का है, क्योंकि इस बीमा योजना की खामियों के कारण मरीज का इलाज करने के बजाय निजी अस्पतालों का जोर तीस हजार रुपए का आंकड़ा छूने पर होता है।
अब आरएसबीआइ के एकदूसरे पहलू पर गौर फरमाते हैं। भारत में बीमा कारोबार का नियमन करने वाली संस्था भारतीय बीमा नियमन संस्थान (इरडा) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक बीमा कंपनियों के पास आने वाले दावों की संख्या पचास फीसद से भी कम है। एक नामी बीमा कंपनी का दावा अनुपात (क्लेम रेश्यो) तो महज इकतीस फीसद रहा है। मतलब सरकार ने सौ लोगों के इलाज के लिए बीमा की राशि (पॉलिसी प्रीमियम) चुकाई, लेकिन उनमें से महज इकतीस लोगों ने ही बीमा कंपनी के पास क्षतिपूर्ति रकम हासिल करने के लिए दावा किया।
पूरे देश में गरीबों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के नाम पर चल रही लूट में चांदी कूटने के लिए चौदह बड़ी देशी-विदेशी बीमा कंपनियां कूद पड़ी हैं। सरकार पैसा फूंक रही है, मगर जनता को पता ही नहीं है कि उसके नाम पर कोई स्वास्थ्य बीमा योजना भी चल रही है। लोगों की तरफ से दावा नहीं होने के कारण सारा पैसा बीमा कंपनियों की जेब में जा रहा है। अगर गलती से किसी गरीब आदमी को पता चल गया तो इस बीमा योजना के नाम पर निजी अस्पतालों के रूप में बीमा कंपनियों से बड़े लुटेरे बैठे हुए हैं। कोई किडनी निकाल रहा है, कोई दो साल की बच्ची को मां बना रहा है, लेकिन सरकार कान में रूई डाल कर गरीबों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाने की इस नौटंकी का जश्न मना रही है।
आम आदमी के साथ होने का दम भरने वाली यूपीए सरकार के नुमाइंदे भी यह बात जानते हैं कि स्वास्थ्य बीमा योजना के नाम पर गरीबों के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, मगर नवउदारवादी तंत्र में अपनी जिम्मेदारियों से भागने का यह भी एक तरीका है। वास्तव में गरीबों को इलाज मिला या नहीं, यह एक अलग बहस है, लेकिन सरकार कागजों में कह रही है कि उसने गरीबों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए स्वास्थ्य बीमा योजना पर 2012-13 में एक हजार पांच सौ करोड़ रुपए खर्च किए हैं।
यहां एक तीर से दो निशाने लगाए गए हैं। एक तरफ सस्ती स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाने का नाटक रचा गया है, वहीं मनमोहन-मोंटेक समूह ने सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं को दुरुस्त करने की पुरजोर मांग को खतरनाक तरीके से किनारे खिसका दिया है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया की अगुआई में तैयार की गई बारहवीं पंचवर्षीय योजना इस बात का सबूत है कि स्वास्थ्य इस दफा भी सरकार की प्राथमिकता में नहीं है।
कैसी विडंबना है कि हमारे देश के कुछ लोग टीवी चैनलों और अखबारों में गरजते हैं कि अब वैश्विक स्तर पर भारत के उदय को कोई रोक नहीं सकता, मगर देश की राजधानी में डेंगू बुखार जैसी साधारण बीमारी से सौ लोग दम तोड़ देते हैं। अपने नागरिकों के जीवन के लिए सजग देश में डेंगू बुखार या मलेरिया जैसी बीमारियां किसी भी कीमत पर मौत का कारण हो ही नहीं सकतीं; इन मौसमी बीमारियों की माकूल आबोहवा वाला द्वीपीय देश जापान इसका जीता-जागता उदाहरण है। अगर कांग्रेस की अगुआई वाली यूपीए सरकार वाकई गरीबों को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए सजग है तो बीमा के झुनझुने के बजाय सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार किया जाना चाहिए।
गोरखपुर में जापानी बुखार से दम तोड़ते बच्चों को किसी मैक्स न्यूयार्क कंपनी की स्वास्थ्य बीमा की जगह एम्स जैसे अस्पताल की ज्यादा जरूरत है। दिल्ली के सुश्रुत ट्रॉमा सेंटर की सघन चिकित्सा इकाई में आॅक्सीजन गैस की आपूर्ति बंद होने से मरे मरीजों की जिंदगियां बचाने के लिए सरकारी अस्पतालों की सेहत सुधारने की जरूरत थी, किसी स्वास्थ्य बीमा की नहीं। अगर सरकार यह काम नहीं कर सकती तो कम से कम गरीबों के नाम पर स्वास्थ्य बीमा की खोह में चल रहा यह बेहूदा मजाक बंद किया जाना चाहिए।