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सोना कितना सोना है-- सुधा सिंह

कौन स्त्री कितना गहना पहन या रख सकती है, यह स्त्री या उसका परिवार नहीं, सरकार तय कर चुकी है। भारत सरकार ने नोटबंदी की प्रक्रिया के दौरान घबराई हुई जनता का डर दूर करने के लिए सन 1994 से स्वर्ण और आभूषण रखने को लेकर चले आ रहे नियमों को पुन: पुष्ट कर इस ओर नई बहस की शुरुआत कर दी है। इस घोषणा की जरूरत नहीं थी, लोग काले धन पर हमले के रूप में सरकार के अगले कदम का इंतजार कर रहे थे। पर अगला कदम पुन: पुष्टि और सफाई का होगा, इसका अंदाजा न था। जो चीज पहले से चली आ रही है, वह वैसी ही रहेगी, इस पर सफाई देकर नया विवाद खड़ा करने की जरूरत नहीं थी। फिर, सरकार ने सोने के संसार के ठहरे हुए जल में कंकड़ क्यों फेंका? और जब पानी हिलोर ले ही रहा है तो इस बहस को अन्य कोणों से भी देखने की जरूरत है।

आपद-विपद के समय में स्त्री के पास रखा धन परिवार की मदद करता है, राष्ट्रीय आपदा और आर्थिक संकट काल में स्त्री का धन राष्ट्र की मदद कर सकता है, सामान्य रूप में स्त्री के आभूषण स्त्री के श्रृंगार हैं और किसी तरह के पारिवारिक आर्थिक संकट में उसके भी काम आ सकते हैं। सोने को संपदा, श्रृंगार और आर्थिक सुरक्षा के रूप में देखे जाने की परंपरा रही है। सोना और स्त्री का स्थापित संबंध मान लिया गया है। इसे स्त्री के श्रृंगारप्रिय स्वभाव से जोड़ा गया है। यानी स्त्री का धन सोना है, वह इसे चल संपत्ति की तरह अपने मायके से ससुराल ले जा सकती है, इसकी स्वीकृति है। चूंकि स्त्री का अस्तित्व स्वयं भी गतिशील माना गया है, वह जिस घर में पैदा होती है वहां रहती नहीं, विवाह करके दूसरे घर चली जाती है। जो सामाजिक चलन है उसमें स्त्री को पिता के घर की संपत्ति में भाइयों के साथ हिस्सा नहीं दिया जाता, विवाह में पितृकुल द्वारा किया गया खर्च ही पर्याप्त मान लिया जाता है। विवाह में बारातियों, नाते-रिश्तों, खान- पान, बैंड-बाजा, शामियाना, स्वागत-सत्कार के अलावा एक हिस्सा स्त्री के आभूषण पर होने वाले खर्चों का होता है।

विवाह के अंतर्गत स्त्री को आभूषण देने-लेने के पीछे यह धारणा काम करती है कि यह स्त्री की चल संपत्ति है, उसकी शोभा का कारण है और आड़े मौकों पर उसके सुरक्षित जीवन यापन में मददगार हो सकता है। इस पूरी प्रक्रिया के पीछे यह दृष्टिकोण काम करता है कि स्त्री जो एक अनजाने माहौल में जा रही है, उसे आर्थिक संबल के रूप में गहना दिया जाए। अनजाना माहौल होने के कारण कहीं न कहीं स्त्री के भविष्य को लेकर जो चिंता होती है, उसमें स्वाभाविक रूप से अंतर्निहित असुरक्षा-बोध को कम करने के लिए गहनों का आश्रय होता है। सोने के संबंध में इन सभी मान्यताओं में एक खास किस्म की दृष्टि काम कर रही है जिसका संबंध स्त्री-पुरुष के परस्पर रिश्तों और स्त्री या पुरुष की सामाजिक हैसियत से है। स्त्री बिना आभूषण अच्छी नहीं लगती, स्त्री गहनों और श्रृंगार के बिना रुक्ष लगती है, आदि सामान्य वक्तव्य हैं। इसके पीछे की सोच है कि स्त्री गहनों के बिना मर्द को आकर्षित नहीं करती। गहने अपने वजन और शरीर पर पहने जाने वाले स्थान के कारण स्त्री को मर्द के लिए आकर्षक बनाते हैं। यह मान लिया गया कि स्त्री का पुरुष की तुलना में बिना गहनों के रहना एक प्रकार का दूषण है।

स्त्री की आर्थिक सुरक्षा को गहनों से नत्थी करना और अन्य किसी प्रकार के विकल्प के बारे में न सोचना, एक तरह से समाज में सदियों से बनाई जा रही स्त्री की मूर्ति को पुनर्स्थापित करना है। स्त्री सचेतनता के इस दौर में भी अगर हम गहनों को स्त्री का संकटमोचक मानें तो यह एक रूढ़िवादी और पिछड़ी चेतना का प्रदर्शन है। भारतीय समाज की विडंबना यह है कि स्त्री के संबंध में यह आधुनिक विकल्पों का इस्तेमाल करने से आज भी हिचकता है। स्त्री को किसी भी प्रकार की सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा से दूर रखने के लिए केवल इतना हो जाए कि संपत्ति संबंधी कानून को सख्ती से लागू कर दिया जाए तो स्त्री को समाज में देखने, उसे समाज के भीतर अपना विकास करने, विवाह संबंध आदि का नजरिया बदल जाए। गहनों को विवाहित स्त्री के सामाजिकीकरण से भी जोड़ कर देखा जाता है। विवाहित स्त्री का गहने पहनना श्वसुरकुल की शक्ति और वैभव का प्रदर्शन माना जाता है। शादी-ब्याह में जो स्त्री जितने ज्यादा गहने पहनती है, वह उतने ही समृद्धशाली कुल की मानी जाती है।

पैतृक संपत्ति में स्त्री बराबर की अधिकारिणी हो, दहेज को सख्ती से रोका जाए, व्यक्तित्व के विकास और आत्मनिर्भर होने के समान अवसर हों, माता-पिता के दायित्व का बराबर वहन करे, विवाह बिना किसी लेन-देन के साहचर्य की इच्छा के कारण हो- इन सारी कानून में लिखी बातों को व्यवहार में उतारने की जरूरत है। इनके लिए क्यों नहीं मुहिम चलाई जाती। जब एक कानून बना कर सोने को कितनी मात्रा में रखना वैध या अवैध बनाया जा सकता है, कुछ दिन की मोहलत के साथ नोटबंदी की जा सकती है, तो इच्छाशक्ति हो और सरकारी तंत्र गतिशील हो तो स्त्री के पक्ष में संपत्ति के कानून को भी सख्ती से लागू करवाया जा सकता है। तब पिता के घर में स्त्री बोझ नहीं होगी बल्कि बोझ उठा सकने वाली बनेगी। स्त्री को सुरक्षा और सौंदर्य गहनों से नहीं मिल सकता, वह आत्मनिर्भरता, स्त्री-चेतना और नागरिक के कर्तव्यों के निर्वहन से ही मिल सकता है। गहना रखने के अधिकार के तहत विवाहित स्त्रियों को ज्यादा, अविवाहित को उनसे आधा और पुरुषों में बिना विवाहित-अविवाहित का फर्क किए, सौ ग्राम रखने का जो प्रावधान 1994 से चला आ रहा है, जिसकी 1 दिसंबर 2016 को पुन: पुष्टि की गई; इस बात का संकेत करता है कि सरकार विवाहित स्त्री की सुरक्षा और सामाजिकता को गहनों से जोड़ कर देखती है। यह स्त्री के प्रति एक आधुनिक राज्य का रवैया नहीं होना चाहिए।

आजादी की लड़ाई में गांधीजी ने स्त्रियों से अपने गहने दान करने को कहा था और भारत की स्त्रियों ने जी खोल कर ऐसा किया। आजादी की लड़ाई की बात स्त्रियों के अनगिनत बलिदानों के बिना नहीं की जा सकती। देश के सामने आर्थिक संकट की स्थिति में मोरारजी सरकार ने सोने के व्यापार और सोना रखने पर नियंत्रण लगाया, लेकिन सफल नहीं हुई। मई, 1994 में सोने पर नियंत्रण और सोने के रूप में टैक्सचोरी पर नियंत्रण के लिए नियम बनाया गया कि विवाहित स्त्रियां 500 ग्राम, अविवाहित स्त्रियां 250 ग्राम, पुरुष 100 ग्राम रख सकते हैं। वही नियम आज भी मान्य है। अमेरिका समेत दुनिया के कई देशों में समय-समय पर विदेशी मुद्रा भंडार की कमी और आर्थिक संकट से उबरने के लिए सोने पर नियंत्रण का फार्मूला अपनाया जाता रहा है। भारत में ऐसा किया जाना कोई अनोखी चीज नहीं है। जो चीज अनोखी है, वह है भारतीय स्त्रियों के सामाजिकीकरण, अस्तित्व और सुरक्षा की भावना के आधार पर सोना रखने की अनुमति, उसमें निहित दृष्टिकोण। स्त्रियों की तरफ से यह कहा जाना चाहिए कि आप सारा सोना ले लो, हमें नहीं चाहिए इनसे श्रृंगार, सुरक्षा और सामाजिकीकरण! हमें केवल हमारी चेतना, व्यक्तित्व और नागरिक अधिकार दे दो। संपत्ति में अधिकार दे दो। दहेज मत दो। इन सबके लिए कटिबद्ध प्रचार करो, योजनाओं का कार्यान्वयन करो। हम तैयार हैं।