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स्त्री अधिकार और आंबेडकर- सुजाता पारमिता

जनसत्ता 14 अप्रैल, 2014 : आंबेडकर ने कहा था, ‘मैं नहीं जानता कि इस दुनिया का क्या होगा, जब बेटियों का जन्म ही नहीं होगा।

’ स्त्री सरोकारों के प्रति डॉ भीमराव आंबेडकर का सर्मपण किसी जुनून से कम नहीं था। छियासी साल पहले, अट्ठाईस जुलाई 1928 के दिन, उन्होंने बंबई विधान परिषद में स्त्रियों के लिए प्रसूति से जुड़े पहलुओं से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण विधेयक पेश किया गया था। उसका जोरदार समर्थन करते हुए उन्होंने कहा था कि यह देश के हित में है कि मां को बच्चे के जन्म के दौरान आराम मिले। सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों के अंतर्गत आने वाले तमाम कारखाने, खदान या ऐसे सभी उपक्रम जहां भारी संख्या में स्त्रियां मजदूरी करती हैं और जो खतरनाक हैं और जिनमें काम करना उनके लिए जानलेवा भी सिद्ध हो सकता है, यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे इस खर्च का वहन करें, क्योंकि वे स्त्री श्रमिकों को तभी काम पर रखते हैं, जब उन्हें इससे ज्यादा फायदा होता है। इस विधेयक का मुख्य आधार अन्य सुविधाओं के साथ ही महिला श्रमिकों के लिए वेतन समेत छुट््िटयों का प्रावधान था। आंबेडकर ने ब्रिटेन सरकार से इस विधेयक को केवल बंबई विधान परिषद क्षेत्र तक सीमित न रख कर देश भर में लागू किए जाने की अपील की। जबकि भारतीय सामाजिक परंपरा में दलितों और स्त्रियों के लिए अपने श्रम के एवज में किसी सहूलियत की उम्मीद करना लगभग अपराध माना जाता था।

इसके बाद आंबेडकर ने बंबई विधान परिषद में पीजे रोहम द्वारा नवंबर, 1938 में जनसंख्या नियंत्रण विधेयक के रूप में एक ऐतिहासिक विधेयक पारित करवाया। उस विधेयक ने मनु के सदियों से चले आ रहे उस दर्शन को ध्वस्त कर दिया, जिसमें स्त्री को एक ऐसे गुलाम के रूप में जीने को कहा गया था जिसका अपनी ही देह और कोख पर अधिकार न हो। उस दर्शन के मुताबिक उसका जन्म स्त्री के रूप में इसीलिए हुआ है कि वह पुरुष की सेवा करे, उसे तृप्त करे और बच्चे पैदा करने का साधन बनी रहे। यह सिद्धांत सदियों से भारतीय स्त्रियों की भयानक स्थिति के लिए जिम्मेदार रहा और आज भी उसके खिलाफ कई रूपों में संघर्ष जारी है। भारत के इतिहास में पहली बार इस विधेयक ने स्त्रियों को यह अधिकार दिया कि अनचाहे गर्भ से मुक्ति उनका अपना निर्णय होगा और अपनी देह और कोख पर उनका अधिकार। साथ ही आंबेडकर ने तत्कालीन सरकार से ऐसी व्यवस्था करने की अपील की कि हर भारतीय स्त्री को अनचाहे गर्भ से मुक्ति उसकी मर्जी से और आसानी से मिले।

आंबेडकर को वायसराय की काउंसिल में बीस जुलाई 1942 को बतौर श्रम-सदस्य शामिल किया गया। वहां अपने चार साल (1942-46) के कार्यकाल में उन्होंने कई महत्त्वपूर्ण कानून बनाए और कई पुराने कानूनों में बदलाव किए। यह उन्हीं की देन है कि भारतीय श्रम कानून का स्वरूप न केवल बदला, बल्कि कहीं ज्यादा मानवीय हुआ और महिला श्रमिकों के लिए विशेष सुविधाएं लागू की गर्इं। कारखानों और खदानों में काम के घंटे घटा कर फिर से निर्धारित किए गए। स्त्री और पुरुष श्रमिकों के लिए समान वेतन के अधिकार का भी प्रावधान किया गया। छोटे बच्चों के लिए काम की जगह के आसपास ही पालनाघर बनाए गए। स्वास्थ्य और जीवन बीमा की शुरुआत की गई, सामाजिक सुरक्षा अधिनियम बनाया गया।

आज देश भर में जो कर्मचारी राज्य बीमा निगम के अस्पताल चलाए जा रहे हैं, इस नीति को भी आंबेडकर ने ही मूर्त रूप दिया था। निश्चित तौर पर उनका योगदान श्रम कानून के क्षेत्र में बहुत व्यापक और सराहनीय था। अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उस समय पूंजीपति वर्ग द्वारा चलाए जा रहे कारखानों में पीने के पानी तक की व्यवस्था नहीं थी और वह आंबेडकर के प्रयासों से ही संभव हो सकी। यों भी, पानी का अधिकार दलितों के लिए हमेशा ही संघर्ष का कारण रहा। खुद आंबेडकर इस दर्द के साथ ही जन्मे और इस समस्या का सामना किया।

अप्रैल 1947 में डॉ आंबेडकर ने हिंदू कोड बिल का मसविदा तैयार कर संविधान सभा में रखा, जिस पर बहस होनी थी। यह बिल मुख्य रूप से संयुक्त या अविभाजित  हिंदू परिवार में संपत्ति के अधिकार से संबंधित था। यह अगर उस वक्त पारित हो गया होता तो स्त्रियों को स्वतंत्र और आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हो सकता था। यह सिर्फ स्त्री अधिकारों पर आधारित था और यही इस बिल की खासियत थी। इसमें स्त्रियों को अपनी मर्जी से विवाह और तलाक, पति से अलग रहने पर गुजारा भत्ता, गोद लेने (बच्ची को भी गोद लिए जाने) और बच्चों के संरक्षण का भी अधिकार दिया गया था। संपत्ति का विभाजन होने पर उसमें घर की स्त्रियों के रूप में मां, पत्नी और बेटी, सभी का हिस्सा निर्धारित किया गया। इस क्रांतिकारी बिल से उस वक्त तूफान आ गया था। जिस देश में स्त्री को इंसान होने के बुनियादी अधिकारों से भी वंचित किया गया था, उसे एक साथ इतने सारे हक दिए जाने वाले थे। लेकिन आखिरकार फिजूल की प्रक्रिया से जूझते रहने के बाद इस बिल को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। हालांकि इसमें सुझाए गए चार प्रावधानों को तब किसी तरह पारित किया गया।

स्वतंत्र भारत में जब आंबेडकर को संविधान निर्माण का जिम्मा दिया गया तो जैसी उनसे उम्मीद थी, उन्होंने जाति, धर्म और गोत्र के सारे बंधन तोड़ कर सभी भारतीयों के लिए समता के अधिकार को प्राथमिकता दी। आज भारतीय संविधान अपने सभी नागरिकों को समान अधिकार की

गारंटी देता है, चाहे वह अंबानी हों या घरों में बर्तन मांज कर परिवार का पेट भरती स्त्रियां या फिर भीख मांग कर गुजारा करते लोग। खासतौर पर स्त्रियों के साथ किसी भी आधार पर भेदभाव को कानूनी तौर पर जुर्म माना गया।

चार साल बाद कानूनमंत्री के रूप में आंबेडकर ने एक बार फिर हिंदू कोड बिल को संसद में रखा, लेकिन उनकी तमाम कोशिशें बेकार हो गर्इं जब यह बिल भारी मतों से पराजित हो गया। हिंदू कोड बिल का पराजित होना आंबेडकर की निगाह में उनकी निजी हार थी। स्त्री अधिकारों के प्रति वे कितने संवेदनशील थे, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस हार के बाद उन्होंने 27 नवंबर 1951 को कानूनमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। तब से आज तक इस बिल को कई टुकड़ों में पारित किया गया, लेकिन एक तरह से देखें तो 2006 में बने घरेलू हिंसा कानून ने उनके सपने को पूरा किया।

आंबेडकर महिलाओं और दलितों की शिक्षा, प्रगति और जागरूकता के लिए जिंदगी भर संघर्ष करते रहे। उनके सभी सामाजिक आंदोलनों में दलित स्त्रियां भारी संख्या में शामिल रहीं, चाहे वह पानी के सवाल पर हुआ ‘महाड सत्याग्रह’ हो या मंदिर प्रवेश के लिए ‘काला राम सत्याग्रह’ या फिर 1942 में नागपुर में आयोजित दलित महिला अधिवेशन, जिसमें पच्चीस हजार दलित महिलाओं ने शिरकत की थी। उस अधिवेशन में आठ महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव पारित किए गए, जिनमें से एक, भारतीय स्त्रियों के लिए तलाक के अधिकार से संबंधित था।

कमजोर सामाजिक तबकों की स्त्रियों की स्थिति बदलने का संघर्ष आंबेडकर के लिए एक ‘महायुद्ध’ था, जिससे वे एक योद्धा की तरह लड़े। उनका संघर्ष देश के उस तबके के लिए था जो सम्मान और न्याय के लिए सदियों से संघर्ष कर रहा था। आंबेडकर को दलितों और स्त्रियों के लिए हर उस स्थिति से लड़ना था जो उनके हालात के लिए जिम्मेदार थी। उन्होंने समय-समय पर ऐसे कई आंदोलन किए, जिन्होंने हिंदू धर्म की जड़ों पर चोट की। पच्चीस दिसंबर 1927 को उन्होंने महाड (महाराष्ट्र) में मनु-स्मृति को जलाया था, जिसे ‘हिंदू धार्मिक संविधान’ माना जाता रहा और जो दलितों और स्त्रियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार था। उस वक्त यह ऐसा ‘शॉक-ट्रीटमेंट’ साबित हुआ जिससे हिंदुत्व की जड़ें हिल गर्इं और जिसने भारतीय समाज को यह सोचने पर बाध्य कर दिया कि धर्म से भी विद्रोह किया जा सकता है; धर्म पत्थर पर लिखा फरमान नहीं है, जिसे बदला नहीं जा सकता। इन्हीं हालात में दलितों और स्त्रियों के बीच धार्मिक बेड़ियां टूटीं, अंधविश्वास के ‘उद्योग’ को भारी धक्का पहुंचा, शिक्षा और जागरूकता की शुरुआत हुई।

आंबेडकर जानते थे कि वे जिस वर्ग के लिए संघर्ष कर रहे हैं वह सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक, सब तरह से कमजोर है। उस स्थिति से लड़ना और जीतना कोई आसान काम नहीं। यह चौतरफा लड़ाई थी, जिसमें एक ओर ताकतवर हिंदू धर्म-रक्षक भी थे। लंबी चली लड़ाई में आंबेडकर ने कई आंदोलन किए। मंदिर प्रवेश के मुद््दे पर उन्होंने 1927-30 के बीच दलितों के साथ नाशिक के काला राम मंदिर, पूना के पर्वती और अमरावती के अंबादेवी मंदिर में प्रवेश किया, जहां उन्हें हिंसा का भी सामना करना पड़ा।

हिंदू धर्म से टक्कर आंबेडकर के लिए बेमानी था, लेकिन दलितों के बीच स्वाभिमान जगाने के लिए यह जरूरी था। 1929 में येऊला के अधिवेशन में यह प्रस्ताव पारित किया गया कि दलितों को हिंदू धर्म में अत्याचार सहते रहने की कोई आवश्यकता नहीं, वे चाहें तो किसी भी धर्म में प्रवेश कर सकते हैं।

इसी के बाद बारह महारों (दलित) ने हिंदू धर्म त्याग कर इस्लाम को अपना लिया। इस घटना से हिंदू धर्माधीशों के होश उड़ गए। आंबेडकर ने अपने अंतिम दिनों तक आंदोलन को जिंदा रखा। अपनी मृत्यु से महज दो महीने पहले उन्होंने हिंदू धर्म त्याग कर चौदह अक्तूबर 1956 को नागपुर की दीक्षा भूमि में लगभग चार लाख दलितों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उसे आज तक दुनिया का सबसे बड़ा धर्म परिवर्तन माना जाता है। बौद्ध धर्म में प्रवेश की प्रक्रिया भारत में आज भी जारी है।

आजादी के अड़सठ सालों बाद भारत में सवर्ण स्त्रियों की दशा में काफी बदलाव आया है। लेकिन दलित स्त्रियां आमतौर पर आज भी लगभग उसी स्थिति में हैं। आधुनिक स्त्रीवादी आंदोलन भारत में सत्तर के दशक में शुरू हुआ, लेकिन उसका नेतृत्व अब तक सवर्ण महिलाओं के ही पास है और उनके इर्दगिर्द घूमता है। कुछ दलित स्त्रियों ने इस मुद््दे पर जरूर आंदोलन किया, लेकिन उसका फायदा इस समूचे आंदोलन के नेतृत्व-वर्गों को ही मिला, उन्हें नहीं, जो वास्तव में ज्यादा शोषण का शिकार थीं।

भारत में स्त्रियों के अधिकार और सम्मान के लिए सबसे ज्यादा ज्योतिबा फुले, उनकी पत्नी सावित्री बाई फुले और डॉ आंबेडकर ने संघर्ष किया, लेकिन महाराष्ट्र के स्त्रीवादी आंदोलन को छोड़ शेष भारत में तो उनका नाम भी किसी स्त्रीवादी आंदोलन में नहीं लिया जाता। यह ब्राह्मणवादी मानसिकता जहां स्त्रीवादी आंदोलन को सीमित कर रही है, वहीं इससे दलित स्त्रीवादी आंदोलन को अलग विस्तार मिल रहा है। दलित स्त्रीवादी आंदोलन का इतिहास काफी पुराना है और उन्हें लड़ना आता है। लेकिन इस अलगाववादी सोच से आखिरकार किसका नुकसान होगा, यह जाहिर-सी बात है।