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स्त्री का मिथक गढ़ता टीवी-- सुजाता

एक वयस्क व्यक्ति से पूछा जानेवाला सबसे वाजिब सवाल है कि वह अपने जीवन का क्या करना चाहता है. लेकिन, भारतीय स्त्री को कभी इतना वयस्क समझा नहीं गया कि उससे यह सवाल पूछा जाये. बचपन से लेकर शादी के बाद तक उसे इस सवाल का जवाब खुद तलाशने की न इजाजत होती है न अवसर. उसे क्या बनना है और क्या करना है- यह परिवार, समाज, धर्म, स्कूल जैसी एजेंसियां तय करती हैं. सबसे प्रभावी आधुनिक माध्यमों में सामाजिक-सांस्कृतिक एजेंसी के रूप में टेलीविजन ने यह काम बखूबी निबाहा-घर-घर तक उस स्त्री को पहुंचा कर, जो वास्तव में नहीं है, लेकिन वैसा होने की तमाम बेकल कोशिशें जरूर हैं. 

एक ऐसी अधुनिक स्त्री का मिथक रचा जा रहा है, जिसके पास रसोई में सब आधुनिक उपकरण मौजूद हैं, जो पढ़ी-लिखी है, घर को सजाने-संवारने के तरीके इंटरनेट से तलाश सकती है, कार चलाती है और खुद को अप-टू-डेट रखती है. 

उसके पास चयन की आजादी है-आजादी वॉशिंग पाउडर चुनने की, अपने मन की क्रीम चुनने की, रसोई में कौन-सा तेल या नमक इस्तेमाल हो, यह चुनने की. वह खुशहाल दिखती हैं, जिसके समझदार चयन की पति दाद देता है और महिला दिवस पर उपहार भी. लेकिन जैसा दिखता है, वाकई यह सशक्त और आधुनिक स्त्रियां हैं? औरत की आजादी में बाजार और टीवी की भी अहम भूमिका है, लेकिन इस आजादी की शर्त यह है कि इसकी सीमाएं भी यही निर्धारित करता है. जितना बाजार के लिए मुफीद हो, बस उतनी आजादी. 

टीवी धारावाहिकों की स्त्री की युद्धभूमि उसका घर और रिश्ते हैं. दिन के 24 घंटे में से 25 घंटे घर को समर्पित स्त्रियां. देश-दुनिया-समाज से इनका कोई लेना-देना नहीं है. जो स्वचेतन और स्मार्ट हैं, वह सब नकारात्मक भूमिकाओं में हैं. उन्हें ऐसे चित्रित किया जाता है कि दर्शक उनके किरदार से नफरत करे. स्त्री का कैरियर उन्मुख होना टेलीविजन धारावाहिकों की दृष्टि में स्वार्थी होना है, जिसे हमारा पितृसत्तात्मक समाज किसी हाल स्वीकार करने को तैयार नहीं है. 

स्त्रियों में व्यावसायिकता (प्रोफेशनलिज्म) को स्वीकार न कर पाने की भारतीय समाज में जो मानसिकता है, उसके खिलाफ जाने का साहस अगर टीवी में नहीं है, तो उसकी वजह उस उदारीकरण में छिपी है, जिसके बाद केबल टीवी ब्रॉडकास्टिंग की दुनिया में अवतरित हुआ. केबल टीवी के आने के बाद से यह माध्यम पूंजीवाद के लिए एक टूल हो गया, जो आज एक सामाजिक-सांस्कृतिक एजेंट की तरह काम कर रहा है, पितृसत्ता उसकी साथी है. 

फैलते हुए नये बाजार को अपने अस्तित्व के लिए घर-परिवार और उसके मूल्यों को बचाये रखना बेहद जरूरी था. किस परिवार में यह चाहत नहीं होगी कि घर की स्त्री भले ही वह बड़ी से बड़ी अफसर हो जाये, लेकिन अपने हाथ से खाना बनाये, व्रत-तीज- त्योहार ठीक वैसे ही करे, जैसा कि धारावाहिकों दिखाया जाता है और परिवार का सवाल आने पर नौकरी छोड़ने को तैयार रहे. किस दफ्तर में लोग यह नहीं चाहेंगे कि किसी कार्यक्रम में खान-पान, सजावट और स्वागत का काम महिलाएं ही देखें. 

नब्बे के दशक के बाद केबल टीवी ने एक ऐसी मिथकीय स्त्री को गढ़ा, जिसके चलते असली स्त्री छोटे पर्दे से गायब हो गयीं. ‘बुनियाद' की लाजो, ‘हमलोग' की बड़की, ‘रजनी' की रजनी या ‘उड़ान' की तेजस्वी कल्याणी जैसी धारावाहिकों की संघर्षशील, साधारण घरों की नायिकाएं, जो हमारी जिंदगियों के करीब थीं, की जगह एक ऐसे स्त्री चरित्र ने ले ली, जिसका होना और बने रहना बाजार पर निर्भर हो गया. 

एक बेहद सशक्त माध्यम का इस्तेमाल किस तरह रूढ़ जेंडर छवियां बनाने के लिए किया जाने लगा, यह चिंता का विषय बनने की बजाये अनुकरणीय होने लगा. विचित्र है कि शहरी पृष्ठभूमि की कामकाजी औरत के जीवन की तमाम मुश्किलों और चुनौतियों को नहीं दिखाया जाता, ऐसी स्त्रियां सीरियलों से सिरे से गायब हैं, जबकि विज्ञापनों में वह एक हद तक मौजूद हैं क्योंकि वहां वह उपभोक्ता हैं. 

समाचार चैनलों ने सीरियलों को भी खबर बना दिया. हाल यह है कि दोपहर के वक्त कोई महिला टीवी पर देश-दुनिया की खबर जानना चाहे तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी. वह खबरों के नाम पर सास-बहू और साजिश देखने को मजबूर हैं. 24 घंटे चलनेवाले चैनलों के लिए जरूरी भी है कि स्त्रियों के रूप में बड़ा दर्शक-वर्ग हर वक्त मौजूद रहे, जो विवेकवान और जागरूक हो यह बाजार के हित में नहीं.

इसलिए स्त्री को मूर्ख बनाये रखने के लिए ज्ञान और विवेक को ‘सीरियलाई- स्त्री' के जीवन से तिलांजलि दे दी गयी. एक नकली औरत तैयार करके उसे घर-घर पहुंचाया गया. नकली औरत जो या तो देवी है या तितली. हमारे ही समय और समाज के सशक्त, संघर्षशील स्त्री किरदार- मेधा पाटकर, मायावती, ममता बनर्जी, जयललिता, चंदा कोचर, इंदिरा नूयी, मीरा नायर, सोनी सोरी जैसे व्यक्तित्व तो हैं ही, साथ ही आज स्त्रियां विविध व्यवसायों और भूमिकाओं में हैं, लैंगिक भेदभाव के कितने ही जीवंत उदाहरण आस-पास बिखरे हैं कि धारावाहिक बनाने के लिए कंटेंट की कमी न पड़े.

ग्रामीण पृष्ठभूमि से भी स्त्री के जीवन की वास्तविक चुनौतियों, समस्याओं को नहीं दिखाया जाता. ग्रामीण क्षेत्र जहां प्राइम टाइम की अवधारणा शहर से अलग है, वह टीवी के कंटेंट से भी बाहर है. लेकिन अब भी यह काम एक हद तक दूरदर्शन कर रहा है. मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास पर आधारित ग्रामीण सामंती व्यवस्था से टकरानेवाली किसान-पुत्री की कहानी ‘मंदा' डीडी किसान पर प्रसारित हो रही है. 

लैंगिक-असमानता से त्रस्त समाज में आज की स्त्री के जीवन में ऐसे बहुत गम है, मुहब्बत के सिवा जिस पर बात की जा सकती है, की जानी चाहिए. उसे जानने के लिए न कोई रिसर्च पेपर पढ़ता है, न किताबें. पितृसत्ता और बाजार दोनों के लिए एक आसान और सहूलियतमंद बात है. एक दर्शक के रूप में स्त्री को बेहद सावधान होना होगा.