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स्त्री, सेहत और शौचालय--- नसीरुद्दीन

इसे स्वच्छता का प्रचार मान कर न पढ़ें, वरना नाउम्मीदी हाथ लगेगी! सवाल नजरिये का है. यही वजह है कि खबर की दुनिया में मौलानाओं का समुदाय गलत वजहों से सुर्खियों में ज्यादा जगह पाता है. जब वे कोई समाजी बदलाव की बात करते हैं, तो आम तौर पर उसे कम तवज्जो मिलती है. ऐसी ही एक खबर पिछले दिनों आयी और गुम हो गयी.

हरियाणा के नूह इलाके में 12 सौ इमामों ने फैसला किया कि अगर किसी लड़के वाले के घर में शौचालय नहीं होगा, तो वे उसका निकाह नहीं पढ़ायेंगे. इसी तरह का फैसला हरियाणा, पंजाब और हिमाचल में जमियतुल उलमा से जुड़े इमामों ने भी लिया है. इस फैसले को कई नजर से देखा जा सकता है. खालिस राजनीतिक नजर से. आर्थिक नजर से. समाजी नजरिये से. आम तौर पर हम सब मर्द की नजर से ही चीजों को देखते और तौलते हैं. इसलिए एक नजर स्त्रियों की भी है.


घर में शौचालय या गुस्लखाने की जगह होने न होने से मर्दों को बहुत फर्क नहीं पड़ता है. घर में पानी का इंतजाम भी उनका सिर दर्द नहीं है. ये मर्दों की रोज की जिंदगी से जुड़े मसले नहीं हैं. इसलिए उन्हें इनसे होनीवाली तकलीफ का अंदाजा शायद नहीं है. अगर कुछ को है, तो वह उनका रोज का भोगा सच नहीं है. इसकी झलक इस मुद्दे पर आनेवाले विज्ञापनों में देखा जा सकता है.


इ‍सीलिए शौचालय और पानी का होना स्त्री जाति की सेहत का अहम हिस्सा है. बिना इसके वे सशक्त होना तो दूर की बात है, बीमार और कमजोर हो जाती हैं. फर्ज कीजिये, हम सब स्त्री हैं. हमारे घर में शौचालय भी नहीं है. पानी का घर के अंदर इंतजाम भी नहीं है. अब अपने पेशाब या शौच जाने और साफ-सफाई के बारे में सोचें. क्या बतौर स्त्री हम जब चाहें, जहां चाहें अपनी इस कुदरती जरूरत को खारिज कर सकते हैं? इस जवाब में ही स्त्री होने की पीड़ा और बीमारियों की जड़ छिपी हुई है. है न!

स्त्री के लिए इस कर्म के लिए आम तौर पर समय तय है. पौ फटने से पहले या सूरज डूबने के बाद- यानी अंधेरा ही उसकी जिंदगी के इस कर्म का सच है. इस अंधेरे का इंतजार शर्म और जिल्लत से बचने का है, जो समाज ने उसके हिस्से तय कर दिया है. यही अंधेरा, उसे हमेशा हिंसक मर्दों के आतंक में भी रखता है. खैर यह तो हुई एक बात.

 


इससे बड़ी बात है कि इन दो अंधेरों के दरम्यान दिन के उजाले में अगर किसी को जरूरत आ पड़ी, तो वह क्या करेगी/करती होगी. इसलिए कई महिलाएं कम खाना खाती हैं और कम पानी पीती हैं. वे पहले से ही कमजोर होती हैं और इस वजह से अपने को और कमजोर रखने पर मजबूर होती हैं. यही नहीं, स्त्री के जिस्म की बनावट खासतौर पर साफ-सफाई की मांग करता है. खुले में शौच और साफ पानी का न मिलना, उन्हें कई तरह के रोग दे सकता है. जैसे- पेशाब का संक्रमण, पेट में कीड़ा होना, कब्जीयत, आंत की बीमारी, चिड़चिड़ापन, पानी की कमी, खून की कमी, कीडनी में समस्या, कमर दर्द, चक्कर आना वगैरह.

 

 


महिलाओं की जिंदगी का बड़ा हिस्सा एक कुदरती प्रक्रिया के साथ हर महीने गुजरता है. इसे हम-आप माहवारी या महीना के नाम से जानते हैं. हर महीने के ये चंद दिन खास तौर पर साफ-सफाई की मांग करते हैं.

 

 


एक ऐसी जगह की मांग करते हैं, जिसका इस्तेमाल जरूरत पड़ने पर स्त्री दिन में कई बार कर सके. अब अगर उसकी पहुंच में हर वक्त ऐसी जगह नहीं है, तो हम उसकी जिंदगी का अंदाजा लगायें. घरों में वह किसी तरह कोने में अपने को समेटे रहती है.


इस वजह से लड़कियों के स्कूल छूटते हैं, क्योंकि वहां सुरक्षित और साफ जगह नहीं है. महिलाएं काम पर नहीं जा पाती हैं, क्योंकि काम की जगह और बाजारों को हमने महिलाओं की नजर से न देखा और न ही सोचा.

 

 


अब किसी गर्भवती या जच्चा-बच्चा के बारे सोचिये. बीमार या बुजुर्ग महिला को ध्यान कीजिये. किसी नयी-नवेली दुल्हन की पीड़ा का अंदाजा लगाइये. घर में पानी या शौचालय न होने की वजह से उसे हम किस दयनीय हालत में पहुंचा देते हैं. क्या यह हालत उन्हें बीमारी नहीं देगी? अध्ययन बताते हैं कि संक्रमण से बचाव, मां के साथ नवजात की जिंदगी के लिए भी जरूरी है. नवजात में बीमारियों और मौतों की बड़ी वजह गंदगी या पानी का संक्रमण है, जो मां और बच्चे दोनों को बाहर से ज्यादा मिलता है.

 

 


ऐसे माहौल में रहनेवाली महिलाएं लगातार मानसिक तनाव में भी जीती हैं. सुरक्षित जगह की तलाश इनका रोज का तनाव है. हिंसा की खौफ का साया भी रोज का ही है. हम मर्दों की तुलना में सोचें, तो सिर्फ इन कुदरती जरूरतों को पूरा करने के लिए औरत का रोजाना कितना वक्त बरबाद होता है.

 

 


घर में शौच की जगह का होना सिर्फ शौचालय बनाने का नाम नहीं है. यह स्त्री को सेहतमंद रखने का जरिया है. सेहतमंद होने का अर्थ निरोग और बेखौफ रहना है. यह स्त्री के संसाधन पर नियंत्रण का मुद्दा है. इसलिए यह स्त्री का बड़ा मुद्दा है.

 

 


वैसे, शौचालय होना न होना संसाधनों से भी जुड़ा है. इसलिए यह महज व्यक्तिगत साफ-सफाई का सवाल नहीं है. दो जून की रोटी की जद्दोजेहद करनेवालों की पहली जरूरत शौचालय हो, यह मुश्किल है. इसलिए राज्य या देश को सेहतमंद रहना है, तो एक सामाजिक जिम्मेवारी मान कर इसे पूरा करना चाहिए. सिर्फ लोगों पर छोड़ना सरकार का खुद की जिम्मेवारी से मुंह मोड़ना है. क्योंकि अगर यह शर्म या जिल्लत की बात है, तो स्त्री के लिए तो कतई नहीं है. और हमने कितनी चीजें स्त्री के हाथ में दी हैं, जो इस कर्म का शर्म उसके सिर जाना चाहिए. यह तो सामाजिक शर्म है.

 

 


तीन राज्यों के मौलानाओं ने जो फैसला किया है, इसके असर दिखने चाहिए. इससे शौचालय और पानी का इंतजाम घरों के अंदर हर वक्त महिलाओं की पहुंच में होगा. लेकिन, ऐसा न हो कि यह महिलाओं को घर के अंदर बंद करने का जरिया बना लिया जाये. वे जब बाहर निकलती हैं, तो झुंड में निकलती हैं. दुख-दर्द साझा करती हैं. खुली हवा में सांस लेती हैं. इसलिए, शौचालय के जरिये जिल्लत और खौफ का साया खत्म होना चाहिए. उनके लिए खुली हवा का दायरा बंद नहीं होना चाहिए. स्त्रियों को सेहतमंद रहने के लिए खिली धूप और खुली हवा भी चाहिए.