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'स्मार्ट' शहरों से हम क्या समझें? - अनुराग चतुर्वेदी

इन दिनों 'स्मार्ट" शब्द का खासा हल्ला मचा हुआ है। देखते-देखते 'स्मार्टफोन" पूरे भारत में छा गए। फोन की तकनीकों ने पूरा नजारा, पूरा बिजनेस ही बदल डाला। अब 'स्मार्ट सिटी" की बातें कही जा रही हैं। 100 स्मार्ट सिटी के मार्फत भारत के शहरों का नक्शा बदलने की तैयारी की जा रही है। मौजूदा वित्त वर्ष स्मार्ट सिटी क्रांति की शुरुआत का वर्ष होगा। देश में इस साल 20 स्मार्ट सिटी बसाने का सरकारी इरादा है। इसके बाद के दो वित्त-विर्षों में 40-40 और स्मार्ट सिटी बसाने का लक्ष्य है। इन स्मार्ट सिटी पर 6000 करोड़ रुपया तो एकमुश्त खर्च होगा और 5 वर्ष तक हर शहर पर 100 करोड़ रुपया खर्च किया जाता रहेगा। बताया जा रहा है कि स्मार्ट शहरों में पुख्ता बुनियादी ढांचा होगा, पर्याप्त संसाधन होंगे और वहां की आबोहवा भी एकदम साफ होगी।

आइए, स्मार्ट सिटी के दिवास्वप्न के परिप्रेक्ष्य में जमीनी हालात को समझने की कोशिश करते हैं। मुंबई में शहर से 30 किलोमीटर दूर स्थित किसी बहुमंजिला इमारत के फ्लैट भी 2 करोड़ रुपए में बिकते हैं। कुल मिलाकर वह इमारत 200 करोड़ रुपए की होती है। इस बहुमंजिली इमारत का अपना संसार होता है : अपना द्वीप, अमीरी, फूहड़पन, खुशबू! सबकुछ भला-भला लगता है। लेकिन बाहर निकलते ही पता चलता है कि अस्पताल 15 किलोमीटर दूरी पर है, पेट्रोल पंप 5 किलोमीटर दूर है। सबसे भीषण समस्या ट्रैफिक की है। हाईवे की वास्तविक दुनिया से आरामदायक दुनिया तक पहुंचने में कितना समय लगेगा, कोई नहीं जानता, लेकिन बीमार व्यक्ति के पास समय की ऐसी कोई सीमा नहीं होती। यह भारत के लक्ष्मीपुत्रों के सर्वश्रेष्ठ शहर का हाल है।

पहले भारत को गांवों का देश कहते थे, लेकिन अब वह शहरों का देश बनता जा रहा है। बेकाबू शहरीकरण ने कई नक्शों को बदल दिया है। मुंबई जैसे शहर में जमीन की किल्लत इस हद तक पहुंच चुकी है कि अब वहां नए निर्माण बहुत कम होते हैं, केवल पुरानी इमारतों को तोड़कर नई इमारत बनाने का कार्य हो रहा है। भारत में सेक्टरों में विभाजित करके चंडीगढ़ जैसा शहर बसाया गया, जो कि एक नहीं, दो-दो प्रदेशों की राजधानी बना हुआ है। गुड़गांव और नोएडा भी नए शहर बनकर उभरे हैं, जहां पेशेवर युवाओं की बड़ी आबादी बसी है। नवी मुंबई को भी इसी आधार पर विकसित किया गया था। ज्यादातर शहर अपनी नदी या खाड़ी के छोर के कारण ही अमीर शहर या गरीब शहर की श्रेणियों में विभाजित होते हैं। लंदन की टेम्स से लेकर अहमदाबाद की साबरमती तक यही कहानी है। दिल्ली के बारे में भी पहले कहा जाता था : 'सब दुखियारे जमना पार।" लेकिन जिस तरह से दिल्ली में रोहिणी, पीतमपुरा या द्वारिका जैसी टाउनशिप बसाई गई हैं, उनसे मध्यवर्ग को तो आवास मिल गया, लेकिन इनमें बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि सेवाओं की स्थिति आज भी खराब बनी हुई है। महिला सुरक्षा, सार्वजनिक परिवहन के अहम मुद्दे हैं। दिल्ली में पंद्रह साल तक शासन करने वाली शीला दीक्षित के कार्यकाल में जिस तरह से बाग-बगीचों को बसाया गया, उससे कम से कम इतना तो हुआ कि आज दिल्ली का पर्यावरण मुंबई जैसे शहरों से अलग है, लेकिन सीएनजी की अनिवार्यता (ऑटो-बसों के लिए) के बावजूद दिल्ली की हवा आज पूरे देश में सबसे प्रदूषित मानी जाती है।

मुंबई-पुणे के बीच रसूखदार लोगों ने अपनी सुख-सुविधा के लिए ग्रामीणों-आदिवासियों की जमीनों-तालाबों पर कब्जा करके लवासा और ऐम्बी वैली जैसी टाउनशिप बसाई हैं, जो कि अब 'आयरन गेट" (लोहे के दरवाजों के भीतर कांक्रीट का जंगल) में बदल गई हैं। मुंबई में भी बिल्डरों के प्रताप से (अमूमन उन्हीं के नाम पर) महंगी टाउनशिप बनी हैं, जैसे मुंबई के पास हीरानंदानी या अंधेरी पश्चिम और कांदिवली पूर्व में लोखंडवाला। हरियाणा के गुड़गांव में भी डीएलएफ टाउनशिप है। खुलापन, सुनियोजन, एकरूपता और स्कूल-कॉलेज-अस्पतालों से निकटता इन टाउनशिप की विशेषता रही है। इनमें हुए निवेश के बारे में दबी जुबान से कहा गया कि सोवियत संघ के बिखरने के बाद वहां से भारी निवेश निर्माण और संचार क्षेत्र में आया है। दक्षिण अफ्रीका, जहां आज भी रंगभेद की स्थिति है, में यह हालत है कि वहां स्मार्ट सिटीज के चारों तरफ बिजली के जिंदा तारों की बाड़ लगाई जाती है, ताकि 'अवांछित तत्व" उनके भीतर प्रवेश न कर सकें। सिंगापुर में हवाई अड्डे से बाहर आते ही गोल्फ मैदानों की लंबी कतार नजर आती है, क्योंकि गोल्फ खेलना वहां की स्मार्ट सिटी में रहने वाले बाशिंदों का शगल है।

सरकार जिन स्मार्ट सिटी के बारे में परिकल्पना कर रही है, वे इन बसाहटों से किन मायनों में भिन्न् होंगी? क्या ये कंप्यूटर डेटा के आधार पर निर्मित होंगी? क्या इनके स्मार्ट होने के मायने यह होंगे कि इनमें कंप्यूटरीकृत सेवाओं के माध्यम से जरूरी सुविधाओं की तुरंत आपूर्ति की जाएगी? सरकार की मंशा से यह तो स्पष्ट ही है कि ये स्मार्ट सिटी तकनीक पर आधारित होंगी। बहुत हद तक ये सेज (स्पेशल इकोनॉमिक जोन) जैसी हो सकती हैं, जहां बिजनेस हाउस ज्यादा होंगे। चीन में हांगकांग के पास स्थित ग्वांगजाऊ को दुनिया का पहला स्पेशल इकोनॉमिक जोन माना जा सकता है, जहां इंटरनेट और वाई-फाई के जरिए दुनिया के व्यावसायिक संगठन एक जगह पर आए थे। इस स्थान के एक बंदरगाह से ही माल की ढुलाई और चढ़ाई इतनी होती है, जितनी कि पूरे भारत के बंदरगाहों पर होती है। लेकिन दुर्भाग्यवश भारत में स्पेशल इकोनॉमिक जोन का प्रयोग विफल हो गया, क्योंकि ये जमीन पर कब्जा करने के प्रयासों का मुख्य हिस्सा बनकर रह गए थे।

वास्तव में सरकारी स्मार्ट सिटीज को लेकर बहुत सारे प्रश्न अभी अनुत्तरित हैं। सरकारी मानकों के अनुसार भारत में पूर्वोत्तर के क्षेत्रों में सबसे ज्यादा स्मार्ट सिटी बनाई जाने की संभावना है। यह भी सच है कि कोई भी नया शहर उस जमीन पर बनेगा, जहां कुछ लोग अभी भी रहते होंगे। उन लोगों का क्या होगा? कुछ वर्तमान शहरों को सुधारकर उन्हें 'स्मार्टीकृत" किया जाएगा या नए सिरे से ये शहर बसाए जाएंगे? और अगर हां, तो इतनी कम राशि में यह कैसे होगा? फिर सवाल यह भी है कि क्या किसी शहर के लिए गोल्फ के मैदानों और वाई-फाई जोन से अधिक आवश्यक शुद्ध पेयजल की उपलब्धता नहीं है? तीव्र शहरीकरण के दौर में भारत के शहरों को लेकर सरकार का विजन क्या है? उसकी प्राथमिकताएं क्या हैं? मुंबई जैसे शहर में जहां एक-एक फ्लाईओवर पर चढ़ने-उतरने में 20 मिनट लग जाते हैं, वहां 'स्मार्ट" के क्या मायने होने चाहिए? यदि दो करोड़ रुपए के फ्लैट के सामने भी बरसात के दिनों में घुटनों-घुटनों तक पानी भर जाता है और सड़कों पर गड्ढे हो जाते हैं, तो यह किस नगर नियोजन प्रणाली की विफलता है?

बहुत संभव है कि सरकार की स्मार्ट सिटीज नौकरियां मुहैया कराने वाले औद्योगिक कॉरिडोरों के आसपास ही बसाई जाएं। नोएडा, गुड़गांव, बीकेसी की बदहाली आज किसी से छिपी नहीं है, फिर भी नए स्मार्ट शहर अगर पुरानी बसाहटों को ही अधिक सुनियोजित करते हुए बसाए जाएं तो यह ज्यादा सार्थक होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व 'महानगर" (मुंबई) के पूर्व संपादक हैं। ये उनके निजी विचार हैं)