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स्मार्ट सिटी एक सौ, और गांव?- कृष्ण प्रताप सिंंह

नयी सरकार को समझना चाहिए कि गांवों ने पिछली सरकार को अपनी क्रूर नासमझी में समझने से मना कर दिया था कि जस के तस पड़े बदहाली पर रोते गांव यदि स्मार्ट नहीं होंगे, तो वे शहरों को भी स्मार्ट नहीं ही होने देंगे. गांवों के इस देश के नये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को फिलहाल देश में सौ स्मार्ट सिटी चाहिए! इस बात को वे आजकल विभिन्न अवसरों पर बार-बार दोहरा रहे और कह रहे हैं कि हमें शहरीकरण को समस्या नहीं, बल्कि अवसर की तरह लेना चाहिए. इतना ही नहीं, ‘जैसे पहले शहरों को नदियों व राजमार्गो के किनारे बसाया जाता था, आप्टिकल फाइबर नेटवर्क और भव्य आधुनिक आधारभूत ढांचे वाले क्षेत्र में उनका भरपूर विकास करना चाहिए.’

देश को जलसा-घर में बदलना हो, तो दुनिया को भारत की तथाकथित शक्ति दिखाने में बड़े शहरों की शेष देश को सौतियाडाह से भर देनेवाली भव्यता की भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता. 

लेकिन पदभार संभालते ही प्रधानमंत्री स्मार्ट सिटी का रट्टा लगाने लगें और गांवों का नाम उनकी जुबान पर औपचारिक तौर पर ही आये, तो क्या यह समझना गलत होगा कि पुरानी सरकार की जिन दुर्नीतियों का विकल्प मान कर हमने नयी सरकार को चुना है, उन्हीं के बुखार से पीड़ित होकर इसने भी गांवों को उपेक्षणीय मान लिया है? क्या इस सरकार का भी मानना है कि भूमंडलीकृत दुनिया में बिना गांवों के भी वह भारत की शक्ति की दुंदुभी बजा सकती है? क्या सरकार को स्पष्ट नहीं करना चाहिए कि सौ स्मार्ट सिटी के मुकाबले कितने स्मार्ट गांव चाहिए? 

अगर समझ यह है कि शहर स्मार्ट होते जायें और गांवों को वैसा ही बना रहने दिया जाये, तो इससे तो समस्या और बढ़ेगी. जैसे दुनिया का एक चौधरी है और वह उसे जैसे चाहता है, हांकता रहता है, भूमंडलीकरण की शक्तियों ने हमारे गांवों के जनतंत्रीकरण की तमाम कोशिशों को धता बता कर वहां ऐसे नये चौधरियों (सामंतों) की सत्ता स्थापित कर दी है, जो ग्रामीणों के वोटों के साथ ही उनके सपने, सोच, सामाजिकता, नैतिकताओं व सरोकारों आदि की भी निरंतर सौदागरी करते रहते हैं.

नागरिक चेतना के विकास के लिए व्यक्ति की जिस गरिमा को बढ़ाने पर हमारे संविधान की प्रस्तावना में जोर दिया गया है, उससे इन चौधरियों का पुराना वैर है. वे शहरों की तरह गांवों में भी ऐसे उपभोक्ताओं का रिकार्डतोड़ अंबार लगाना चाहते हैं, जो आत्मनिर्भर इकाइयों के रूप में गांवों का विकास चाहनेवाले पंच-परमेश्वरों को उनकी औकात बता कर ग्रामीणों को रियायतों के टुकड़ों पर गुजर-बसर की आदत डालने को मजबूर कर सकें. 

ये चौधरी मानते हैं, और ठीक ही मानते हैं, कि एक बार ऐसा हो जाये और कभी शहर की जरूरत की चीजें उत्पादित करनेवाले गांवों पर नयी जीवन शैली थोप कर बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा उत्पादित माल के उपभोग की लत लगा दी जाये, तो मुनाफाखोर कंपनियों व उनकी शुभचिंतक व्यवस्था की बल्ले-बल्ले हो जाये! फिर तो वहां अछूतों, दलितों, विस्थापितों, स्त्रियों, भूमिचोरों व भूमिहीनों के साथ गैरबराबरी, गरीबी, बेरोजगारी, भूख, शोषण, दमन आदि इसी प्रकार बने और भूपतियों, भूमाफियाओं, बिल्डरों व कॉरपोरेटों के हित साधनेवाली दमनकारी विकास नीतियों की चक्कियों में पिसते रहें! किसी सामाजिक या सांस्कृतिक सुधार की जरूरत ही न रह जाये!

गांवों को लेकर नयी सरकार का नया रवैया इस अर्थ में चिंताजनक है कि नयी अर्थनीति, जो अब उतनी नयी भी नहीं रही, डंकल व गैट के करार और रोजगारहीन विकास के मॉडलों ने गांवों की तबाही के बांध को पहले से खोल रखा है! वहां कृषि भूमि की अंधाधुंध सरकारी, औद्योगिक व कॉरपोरेटी लूट जारी है और खेती-किसानी के लाभकारी न रह जाने के कारण उसका रकबा न सिर्फ निरंतर घटता बल्कि गरीबों के कब्जे से फिसलता भी जा रहा है. नयी सरकार का एजेंडा निर्धारित करनेवाले राष्ट्रपति के अभिभाषण में दिखे इस सरकार के रोडमैप में भी गांवों के लिए सिर्फ इतना कहा गया है कि वहां शक्तिसंपन्न पंचायतीराज की मार्फत लोगों का जीवनस्तर ऊंचा उठाया जायेगा, कृषि में निवेश बढ़ाया जायेगा और लंबित सिंचाई परियोजनाएं पूरी की जायेंगी. लेकिन क्या इतने भर से गांव स्मार्ट बन सकेंगे? तब क्या इस अंदेशे को सही मान लिया जाये कि 31 प्रतिशत मतदाताओं द्वारा चुनी हुई सरकार बाकी 69 प्रतिशत की उपेक्षा कर रही है?

अगर हां, तो उसे समझ लेना चाहिए कि जिस मनमोहन सरकार की जगह वह चुन कर आयी है, उसने भी शहरों में आयी चमक-दमक को ही भारत निर्माण या देशवासियों के सुख-समृद्घि का प्रतीक समझने की गलती की थी! गांवों ने अपनी क्रूर नासमझी में समझने से मना कर दिया था कि जस के तस पड़े बदहाली पर रोते गांव यदि स्मार्ट नहीं होंगे, तो वे शहरों को भी स्मार्ट नहीं ही होने देंगे. आज जितना बड़ा शहर, उससे सटी उतनी ही बड़ी झोंपड़पट्टी है, तो सिर्फ इसलिए कि हम गांवों को अंदर-बाहर दोनों से धुनने व उनकी कीमत पर फ्लाइओवरों वाले शहरों को बसाने में लगे हैं. इसके नतीजे बहुत खतरनाक हो सकते हैं!