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स्वतंत्र भारत की महानतम लेखिका-- रविभूषण

स्वतंत्र भारत के बांग्ला साहित्य में ही नहीं, भारतीय साहित्य में भी महाश्वेता देवी (14 जनवरी, 1926- 28 जुलाई, 2016) ने जो नयी जमीन और दिशा दी, उसे आज उर्वर और सार्थक बनाना जरूरी है. बहुत कम लेखकों की पारिवारिक पृष्ठभूमि साहित्यिक रूप से समृद्ध होती है. दिनेश रंजन दास और गोकुलचंद्र नाग ने बीसवीं सदी के आरंभिक दशक में जिस 'कल्लोल' पत्रिका का आरंभ किया था, उससे बांग्ला साहित्य के प्रभावशाली साहित्यिक आंदोलनों में से एक 'कल्लोल युग' का जन्म हुआ. प्रेमेंद्र मित्र, काजी नजरुल इस्लाम और बुद्धदेव बसु इससे जुड़े थे. महाश्वेता जी के पिता इसी युग के थे.

कवि और उपन्यासकार मनीष घटक (1902-1979), मां धरित्री देवी लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता थीं. चाचा ऋत्विक घटक महान फिल्मकार थे. पति विजन भट्टाचार्य सुप्रसिद्ध रंगकर्मी-अभिनेता थे. नवारुण भट्टाचार्य पुत्र थे. तीन पीढ़ियों का यह योगदान दुर्लभ है.

1857 की शतवार्षिकी (1957) के एक वर्ष पूर्व 1956 में 'झांसी की रानी' के प्रकाशन से महाश्वेता देवी की साहित्य-यात्रा आरंभ हुई. स्वतंत्र भारत में भी मुक्ति और वास्तविक स्वतंत्रता का सवाल हल नहीं हुआ है. लेखकों की एक बड़ी जमात जन-जीवन से कट चुकी है. एक इंटरव्यू में महाश्वेता जी ने यह कहा है- 'हम सभी लेखकों को रोजमर्रा की जिंदगी को नजदीक से देखे-सुने बिना लिखने का कोई अधिकार नहीं है.' कोई भी सच्चा-ईमानदार लेखक समय-समाज-निरपेक्ष नहीं हो सकता. महाश्वेता जी के लेखन में आंसू, पसीना, आग है. उनकी सही याद का मतलब है आंसू, पसीने और आग से लिखना. महत्वपूर्ण यह नहीं है कि उन्हें साहित्य अकादेमी, पद्मश्री, पद्म विभूषण, ज्ञानपीठ, मैगसेसे आदि पुरस्कार-सम्मान मिले. महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने शोषण, अन्याय, उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष किया. उन्हें दी गयी श्रद्धांजलियों और शोक-संदेशों में वैसों की पहचान की जा सकती है, जो संघर्ष-चेतना और शक्ति को कुचलने में अग्रणी हैं. महाश्वेता जी ने 'शोषण की जटिल प्रक्रिया और समाज के तमाम अंतर्विरोधों को समझने' की बात कही है. उनका लेखन सामाजिक संघर्ष से जुड़ा था. सामाजिक संघर्ष को कमजोर करनेवाली शक्तियों के वे खिलाफ थीं. आज जिस दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श की बात की जाती है, उसे खंडित रूप में न देख कर समग्र रूप में देखा जाना चाहिए. आदिवासी विमर्श में कई सक्रियतावादी भी हैं और बिना सामाजिक सक्रियता के आदिवासी प्रश्न नहीं सुलझ सकते. 'बुधन' में मार्च 2002 के महाश्वेता देवी का वह लेख पढ़ा जाना चाहिए, जिसमें उन्होंने आठ प्रतिशत आदिवासी पर प्रश्न उठाये थे. एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे में भारत में 635 जनजातियों का उल्लेख था, जबकि भारत सरकार ने 426 जनजातियों को ही मान्यता दी थी. दस उदाहरणों से उन्होंने यह प्रमाणित किया है कि भारत सरकार ने 1871 के अपराधी जनजातीय कानून (क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट) को जीवित रखा है. उनका शक्तिशाली लेखन शक्तिशाली तबकों के विरुद्ध था.

महाश्वेता देवी का लेखन और कार्य साठ वर्ष का है. लगभग सौ उपन्यास और बीस कहानी-संग्रह हैं. आनंद स्वरूप वर्मा, गोरख पांडेय और उर्मिलेश को दिये अपने पहले हिंदी इंटरव्यू में उन्होंने जनता तक जाने को जरूरी बताया था, जिससे उनके वास्तविक जीवन और उनसे जुड़ी कहानियों को समझा जा सके. गरीबों, पिछड़ों, वंचितों, असहायों, अभागों, अस्पृश्य जातियों और आदिवासियों की वे अपनी लेखिका थीं. वे शबरों की मां थीं और हम सब की दीदी.

प्रोफेसरी, पत्रकारिता, कविता के बाद उन्होंने कथा-संसार को समृद्ध किया. गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक ने उनकी कई कहानियों को चुना और अंगरेजी में अनुवाद किया. 'इमैजिनरी मैप्स', 'ब्रेस्ट स्टोरीज' और 'इन अदर वर्ल्ड्स : एस्सेज इन कल्चरल पॉलिटिक्स'. वे बेआवाजों की आवाज, संघर्षशील शक्तियों की सहयात्री, पीड़ितों-गरीबों की ललकार और बदमाशों-अन्यायियों के लिए चुनौती बन कर खड़ी हुईं. इतिहास-लेखकों ने, शासकों ने, राज्यसत्ता ने जिनकी उपेक्षा की, वे हमेशा उनके साथ खड़ी रहीं, डटी रहीं. अस्सी के दशक के अंतिम वर्षों से उन्होंने आदिवासियों की लड़ाई लड़ी. कलम की नोक को तीर बनाया. 'चोट्टिमुंडा और उसका तीर', 'हजार चौरासी की मां', 'अरण्य का अधिकार', 'मास्टर साहब', 'शालगिरह की पुकार' आदि अनेक पुस्तकों और कहानियों तथा उन पर बनी फिल्मों से यह समझा जा सकता है कि 'उलगुलान' अभी बाकी है. अनेक प्रतिरोधी स्वर, मुक्तिकामी संघर्ष का उनके निधन के साथ अंत नहीं हुआ है. वे अपने जीवन और रचना-कर्म से हमें जो मार्ग दिखा गयी हैं, उन पर चल कर ही कोई सच्ची शोक-संवेदना प्रकट की जा सकती है.