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हीरा ज़रूरी या जंगल: 55,000 करोड़ वाली हीरे की ख़दानों की पड़ताल

-बीबीसी,

एक डरावना सा जंगल कैसा होता है, सिर्फ़ किताबों में पढ़ा था और डिस्कवरी चैनल पर ही देखा था.

कहानियाँ भी सुनी थीं, उनकी- जिनकी ज़िंदगी में इस जंगल के सिवा कुछ नहीं होता.

एक दोपहर सन्नाटे को चीरते हुए उस घने जंगल में सागौन के दरख़्तों से निकलकर थोड़ी रोशनी में पहुँचे तो फटे-पुराने कपड़े पहने हुए एक व्यक्ति को कुछ पत्तियाँ और टहनियाँ बीनते हुए पाया.

पता चला वो भगवान दास हैं जिनके पास जंगल और इर्द-गिर्द बसे गाँवों के लोग इलाज के लिए आते हैं क्योंकि वो जड़ी-बूटियाँ इकट्ठी कर बीमार लोगों को देते हैं.

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मैंने पूछा, ''अगर इस जंगल में खनन होने लगेगा तो उसके बाद क्या होगा?''

जंगल में खनन?
जिस जंगल की बात हो रही है, उसे बक्सवाहा का जंगल कहा जाता है जो मध्य प्रदेश के छतरपुर ज़िले के बीचोंबीच मौजूद है.

इस कहानी की शुरुआत 2002 में हुई. ऑस्ट्रेलिया की नामचीन रियो-टिंटो कंपनी को बक्सवाहा जंगल के नीचे हीरे ढूँढने का काम मिला. इस सिलसिले में कंपनी ने यहाँ अपना प्लांट लगाया.

सालों की खोज के बाद पता चला कि ज़मीन के नीचे 55 हज़ार करोड़ रुपये तक के हीरे दबे हो सकते हैं.

शुरुआत में 950 हेक्टेयर जंगल को माइनिंग के लिए छाँटा गया था जिसके तहत तमाम गाँव आते थे. मगर स्थानीय विरोध और पर्यावरण मामलों के चलते 2016 में रियो टिंटो ने प्रोजेक्ट छोड़ दिया.

उस समय भी इस पर कई सवाल उठे थे कि आख़िर सैकड़ों करोड़ लगाने के बाद कंपनी ने एकाएक इस प्रोजेक्ट से 'पल्ला क्यों झाड़ लिया.'

जानकारों का यही मत है कि एक विदेशी कंपनी ने लिए "स्थानीय अड़चनें ज़्यादा होती जा रहीं थीं.''

बहरहाल, एक नए ऑक्शन के बाद 2019 में हीरों की खदान का नया लाइसेंस मिला- आदित्य बिड़ला ग्रुप की एसेल माइनिंग कंपनी को. इस बार 382 हेक्टेयर में डायमंड माइनिंग होनी थी.

दिलचस्प यह भी है कि इलाक़े में रियो टिंटो के समय में कुछ स्थानीय लोगों को रोज़गार भी मिला था और वो आज भी इन्हीं जंगलों के बीच बसे गाँवों में रहते हैं.

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गणेश यादव ने कई साल उस विदेशी माइनिंग कंपनी के लिए काम किया.

आमदनी पर ख़तरा
गणेश यादव ने कई साल उस विदेशी माइनिंग कंपनी के लिए काम किया लेकिन आज भी उनके दिल में एक मलाल है.

उन्होंने बताया, "चाहिए था कि 2004-2005 से ही हमारे बच्चों को सरकार और कंपनियाँ तैयारी करवातीं कि उस काम को करने के लायक बन सकें लेकिन उस पर तो काम किया नहीं. तब से अब तक जो बच्चे 18 साल के हो चुके होत, उनकी कोई डिग्री होती या टेक्निकल काम सीख कर इस क्षेत्र के बच्चे उसके अंदर काम कर सकते थे. अब अगर यहाँ नया प्लांट लग भी जाएगा तो हमारे बच्चे उसमें नौकरी करने के लिए सक्षम ही नहीं हैं".

बीड़ी के पत्ते हों या महुवा और आँवले के फल, इन्हें बीन और बेचकर जंगल और इर्द-गिर्द, क़रीब 10,000 लोग पेट भरते हैं. गाँव वालों से पता चला कि महुवा-आँवला मिलाकर बाज़ार में बेचने पर एक साधारण परिवार भी सालाना 60,000-70,000 रुपये कमा लेता है.

जंगल किनारे एक गाँव शहपुरा पहुँचे तो मिट्टी से पुते अपने घरों से मोहब्बत और गहरी मिली लेकिन ज़्यादातर चेहरों की रौनक़ फीकी है क्योंकि आमदनी का सिलसिला बंद भी हो सकता है.

'हमें सिर्फ़ धूल मिलेगी, हीरे नहीं'
तीन बच्चों की माँ पार्वती अपनी खपड़ैल वाली कुटिया की साफ़-सफ़ाई में तो लगीं थी, लेकिन उनके मन के भीतर जैसे एक समुद्र-मंथन जारी था.

नम आँखों के साथ उन्होंने कहा, "हम सभी जाते हैं जंगल में बीनने के लिए तभी ख़र्च चलता है. कट जाएगा तो फिर हम लोग क्या करेंगे? हमारे पास कोई खेती-बाड़ी तो है नहीं कि उसमें धंधा चलाकर बच्चे पाल सकें. हम तो जंगल के भरोसे पर हैं.

बक्सवाहा में कुछ ऐसे भी लोग मिले जिन्हें हीरों में न पहले दिलचस्पी थी, न आज है.

हमारी मुलाक़ात कीर्ति ठाकुर से हुई जो अपने जंगल की सीमा पर बने एक मंदिर पर दान-पुण्य के लिए पहुँची थीं.

उन्होंने कहा, "जंगल खुदेगा तो जो धूल उड़ेगी, वो ही मिलेगी हमें. हीरे थोड़ी मिलने वाले हैं हमें. जितने इस इलाक़े के लोग हैं, उन्हें वहाँ नौकरी थोड़ी मिलने वाली है. हमें तो सिर्फ़ उसकी धूल मिलेगी"

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