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हम जाति का ज़हर फिर क्यों पिएं?- वेद प्रताप वैदिक

मुझे आश्चर्य है कि भाजपा सरकार के मंत्रिमंडल ने ऐसा राष्ट्र-विरोधी निर्णय कैसे कर लिया? जातीय जनगणना को कांग्रेस सरकार ने अधबीच में बंद कर दिया था, लेकिन इस गणना के जो भी अधकचरे आंकड़े इकट्‌ठे हुए हैं, सरकार उन्हें प्रकट करने के लिए तैयार हो गई है। वह इन्हें अगले साल तक प्रकाशित करेगी। तब तक राज्य-सरकारों की रपट भी उसके पास आ जाएगी और जो आंकड़े उसके पास अभी हैं, उनका विश्लेषण भी हो जाएगा। लगता है कि भाजपा सरकार जातिवादी नेताओं के दबाव में आ गई है। राष्ट्रवाद पर जातिवाद अचानक कैसे सवार हो गया है? इसका कारण क्या हो सकता है?

कुछ अखबारों का अनुमान है कि यह घोषणा बिहार चुनावों को ध्यान में रखकर की गई है। बिहार में जातिवाद का बोलबाला है। प्रचार किया जाएगा कि भाजपा जातीय आंकड़ों को इसीलिए छिपा रही है कि यह ऊंची जातियों की पार्टी है। यह पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों का भला नहीं चाहती। इस आरोप को काटने के लिए ही नरेंद्र मोदी की जात का ढोल पीटा जा रहा है और जातीय गणना को प्रकट करने की बात कही गई है। यह तर्क ठीक हो सकता है, लेकिन इससे भी ज्यादा वजनदार एक तात्कालिक मुद्‌दा है। वह है, जातिवादी नेताओं को पटाना ताकि वे राज्यसभा में भूमि-अधिग्रहण बिल पास करवा सकें। यदि भाजपा सरकार का यह सिर्फ चुनावी और तात्कालिक पैंतरा है तो इसकी निंदा कोई कैसे कर सकता है? लेकिन जिस जातीय जनगणना को बंद करने की हिम्मत कांग्रेस सरकार ने दिखाई, यदि भाजपा सरकार ने उसे सिरे चढ़ा दिया तो उसके हाथों राष्ट्र का इतना भयंकर अहित हो जाएगा कि उसकी भरपाई यह देश कई दशकों तक नहीं कर पाएगा। यह भी माना जाएगा कि भाजपाई नेता कांग्रेसियों से भी ज्यादा दब्बू निकले।

क्या हमारे नेताओं को पता है कि यह जातीय जनगणना शुरू कैसे हुई? यह अंग्रेज सरकार ने 1857 के स्वाधीनता संग्राम से डर कर शुरू की। इस संग्राम में लगभग सभी जातियों और धर्मों के लोगों ने एकजुट होकर प्राण झोंक दिए थे। फिर भारत को जातियों और धर्मों में बांटने की साजिश शुरू हुई। 1871 में बनी हंटर रिपोर्ट ही 1905 में बंग-भंग का कारण बनी, जो 1947 में भारत-विभाजन की शुरुआत थी। यह जातीय जन-गणना इतनी राष्ट्र-विरोधी थी कि महात्मा गांधी की कांग्रेस ने 11 जनवरी 1931 को ‘जनगणना बहिष्कार दिवस' घोषित किया था। कांग्रेस के प्रचंड विरोध के कारण ही अंग्रेज सरकार ने 1931 के बाद जातीय जनगणना बंद कर दी थी, लेकिन सोनिया गांधी की कांग्रेस ने 2010 में उसे फिर शुरू कर दिया। 11 मई 2010 को ‘भास्कर' में छपे मेरे लेख ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी' से प्रेरित होकर जो आंदोलन चला, उसके कारण सोनियाजी ने इस गणना को स्थगित करवा दिया था। अब मोदी उसी गलती को फिर दोहरा रहे हैं।

इस जातीय जनगणना को तत्कालीन सेंसस कमिश्नर डॉ. जेएच हट्‌टन भी सर्वथा अवैज्ञानिक और अटकलपच्चू मानते थे। उन्होंने अपनी रपट में लिखा था कि हर जनगणना में जातियों की संख्या बढ़ती चली जाती है। दर्जनों से शुरू होकर 1931 तक आते-आते वह हजारों में चली गई है। ताजा आंकड़े के मुताबिक भारत में जातियों की संख्या 46 लाख हो गई है। डॉ. हट्‌टन ने 1931 में लिखा था कि हर जनगणना में हजारों-लाखों लोग अपनी जातियां बदल लेते हैं। जो पहले अपनी जाति बनिया लिखाते थे, अब वे राजपूत लिखाते हैं, जो राजपूत लिखाते थे, वे अब खुद को ब्राह्मण लिखाते हैं। जिन्होंने कभी खुद को ब्राह्मण लिखवाया, अब वे स्वयं को शूद्र घोषित कर रहे हैं और अनेक शूद्र जातियां अपने आप को ब्राह्मण लिखवा रही हैं और इसके लिए वे कारण यह बता रही हैं कि वे तो फलां-फलां ऋषि की संतान हैं। उन्होंने कई ठोस उदाहरण देकर बताया कि बिहार के एक जिले में जो जाति खुद को ब्राह्मण बताती है, वही जाति दूसरे जिले में शूद्र के तौर पर जानी जाती है। जाति को तय करने का कोई वस्तुनिष्ठ पैमाना नहीं है। व्यक्ति जो भी दावा करे, उसे मानने के लिए आप मजबूर हैं। एक ही गोत्र आपको राजपूतों, जाटों, गूजरों और अहीरों में मिल जाएगा। मेरे कई ब्राह्मण, जैन और सेन समाज के मित्रों के गोत्र समान हैं। डाॅ. हट्‌टन की राय के बाद अंग्रेज सरकार ने इसका परित्याग कर दिया। यह गांधी, नेहरू और सुभाष के लिए बड़े संतोष का विषय था।

आजादी के बाद सभी सरकारों ने इसी नीति को चलाया। उन्होंने किसी भी जनगणना में जाति को नहीं जोड़ा, लेकिन 2010 में कांग्रेस की मति फिर गई। सेंत-मेंत में नेता बने कांग्रेसियों के दिमाग में कुछ ‘विशेषज्ञों' ने यह बात बिठा दी कि जातीय गणना के आंकड़े इकट्‌ठे हो जाएं तो उनसे गरीबी दूर करने में मदद मिल जाएगी और कांग्रेस थोकबंद वोट भी कबाड़ लेगी। इस ताबीज़ ने नेताओं की बुद्धि हर ली। उन्होंने यह तर्क भी खुद से नहीं किया कि गरीबी मिटानी है तो गरीबी के आंकड़े इकट्‌ठे करो। गरीबी के कारण जानो। उसके निवारण जानो। यदि आप गरीबों के आंकड़े इकट्‌ठेे करेंगे तो उनमें से कौन छूट जाएगा? वे सभी पिछड़े, दलित, आदिवासी, मुसलमान, ईसाई आ जाएंगे, जो गरीब हैं। हां, उनमें वे जरूर नहीं आ पाएंगे, जो इन वर्गों की नेतागीरी कर रहे हैं। उन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने जातियों की ‘मलाईदार परतें' कहा है। मैं उन्हें मालदारों का मालदार, दबंगों का दबंग, भुजबलियों का भुजबली कहता हूं। वे ऐसे पिछड़े और दलित हैं, जिनके आगे बड़े-बड़े ब्राह्मण, राजपूत और बनिए पानी भरें। ये ही लोग बार-बार जातीय जनगणना की मांग करते हैं ताकि उन्हें थोकबंद वोट कबाड़ने में आसानी हो। उन्हें देश के करोड़ों वंचितों की उतनी ही चिंता है, जितनी सवर्ण नेताओं को है। यदि उनको सचमुच चिंता होती तो वे डॉ. राममनोहर लोहिया की तरह ‘जात तोड़ो' का नारा लगाते। रहन-सहन में निर्मम सवर्णों की नकल नहीं करते। भ्रष्टाचार मुक्त रहते। आरक्षण की अपमानजनक भीख को ठोकर लगाते और वंचितों के बच्चों के लिए ऐसी मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था बनवाते कि वे अपनी गुणवत्ता से बड़ी से बड़ी नौकरी पा जाते, लेकिन इनकी प्राथमिकता स्वार्थ-सिद्धि कहीं ज्यादा है।

 

मूल प्रश्न यह है कि जातीय आंकड़ों का असर क्या होगा? कोई हमें समझाए कि इन आंकड़ों से गरीबी दूर कैसे होगी? मुझे डर है कि जातीय आंकड़े जातिवादी जहर को भारत की नस-नस में फैला देंगे। व्यक्ति की अपनी पहचान नष्ट हो जाएगी। वह मवेशियों की तरह अपने जातीय झुंड के नाम से पहचाना जाएगा। यदि भारत को महान और शक्तिशाली राष्ट्र बनाना है तो इसका आधार जातिवाद कभी नहीं हो सकता। आंबेडकर ने ‘जातिप्रथा' का समूलनाश' ग्रंथ यूं ही नहीं लिखा था। आज जरूरत है, जन्मना जातियों की प्रथा का उन्मूलन करने की। हम अपने सत्ताकामी नेताओं से इतने बड़े काम की उम्मीद कतई न करें। उनकी मजबूरी समझें। इसकी पहल तो भारत के प्रत्येक नागरिक को स्वयं करनी होगी।
वेदप्रताप वैदिक
भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष