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हर तरफ से टूट रहे तटबंध - प्रताप सोमवंशी

पानी के रास्ते में दजर्नों अड़ंगे हैं, इसलिए वह बांध तोड़ रहा है। बाढ़ के प्रबंधन में कुव्यवस्था और कमीशनखोरी इतनी है कि राज्य और केंद्र की योजनाओं में जगह-जगह पर रिसाव देखा जा सकता है। डूब क्षेत्रों में लगातार रिहाइश बढ़ती जा रही है। ऐसे में, बाढ़ और उससे होने वाली तबाही का संकट घटे तो कैसे? जून से सितंबर के बीच बाढ़ का शोर सुनाई पड़ता है। जैसे-जैसे पानी वापस जाता है, हम अगले साल तक के लिए सब भूल जाते हैं। तबाही के निशान तो हम पूरे साल समेटते और सहेजते रहते हैं, मगर संजीदगी से समाधान का तटबंध बांधता कोई नजर नहीं आता।बाढ़ का कोप इस बार थोड़ा अधिक भयावह है। सात राज्यों के कई दजर्न इलाके जलमग्न हो चुके हैं। गंगा 1978 की महाबाढ़ के स्तर को छूने वाली है। दो महीने पहले उत्तराखंड की जलप्रलय का जख्म अभी हरा है। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में सेना की मदद लेनी पड़ी है। पूरे देश में तीन करोड़, 35 लाख, 16 हजार हेक्टेयर क्षेत्रफल बाढ़ की आशंका वाले क्षेत्र के तौर पर जाना जाता है। उत्तर प्रदेश में यह क्षेत्र सबसे बड़ा है, बिहार में कम है, लेकिन वहां बाढ़ की आवृत्ति और विभीषिका बहुत बड़ी है।

देश में हर साल बाढ़ से करीब 1,600 लोग मारे जाते हैं। औसतन 1,805 करोड़ की आर्थिक क्षति होती है। इस साल उत्तर प्रदेश में ही अब तक 283 लोगों की मौत हो चुकी है। पूरे देश में मरने वालों की संख्या 1,370 तक पहुंच चुकी है। जून में आई उत्तराखंड की जलप्रलय में मारे गए 5,525 लोगों की सरकारी सूची पानी के कोप का बरसों तक हवाला बनी ही रहेगी। समाधान की ओर चलें, तो बाढ़ को लेकर हमारी सरकारी समझ और प्रशासनिक इकाइयों का कार्य-व्यवहार ही सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने आता है। बाढ़ में आपदा प्रबंधन और बाढ़ का प्रबंधन, दोनों अलग अस्तित्व रखते हैं। सरकारों की प्राथमिकता सिर्फ बाढ़ के आपदा प्रबंधन की होती है। बाढ़ किसी राज्य की सीमा नहीं देखती। उत्तराखंड से उफनाई नदी कई मैदानी राज्यों को तबाही सौंपती है। यहां सबसे बड़ी जरूरत राज्य और केंद्र के बीच बेहतर तालमेल के साथ अंतरराज्यीय स्तर पर पारदर्शी और सहयोगी भूमिका की है। लेकिन हाल क्या है, इसका एक उदाहरण देखिए।

योजना आयोग ने अक्तूबर 2011 में एक बैठक की, इसके आधार पर ‘रिपोर्ट ऑफ वर्किग ग्रुप ऑन फ्लड मैनेजमेंट ऐंड रीजन स्पेसिफिक इश्यूज’ नाम से एक रपट जारी की। समस्या-सवाल-समाधान की बात करें, तो बहुत ही बेहतर सूचनाएं और कार्य-योजनाएं इसमें शामिल हैं। इस रिपोर्ट में 2012 से 2017 तक के एक्शन प्लान का भी जिक्र है। बाढ़ प्रबंधन के सवाल पर बरसों से काम कर रहे बिहार के दिनेशचंद्र मिश्र की इस बैठक और रिपोर्ट तैयार करने में बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वह कहते हैं कि रिपोर्ट के बारे में तो यदा-कदा लोगों के फोन  भी आते हैं, लेकिन कहां क्या प्रगति हुई, इसके बारे में बताने वाला कोई नहीं मिलता।

रिपोर्ट में कहा गया है कि राज्य समय से अपने अपडेट्स तक नहीं भेजते। कई राज्यों ने 2003 से जरूरी सूचनाएं तक साझा नहीं की हैं। केंद्र सरकार पर बजट में भेदभाव का आरोप भी लगता रहा है। देखिए, सरकार की 11वीं कार्ययोजना में जम्मू-कश्मीर को 298 करोड़ रुपये केंद्रीय मदद आवंटित करने और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश को 494 करोड़ रुपये देने के मतलब को समझते चलें। उत्तर प्रदेश में बाढ़ आशंकित क्षेत्रफल लगभग 73 लाख, 36 हजार  हेक्टेयर है, जबकि जम्मू-कश्मीर में ऐसा भूभाग महज 80 हजार हेक्टेयर है।

राज्यों का हाल यह है कि उनके अधिकारी खाने के पैकेट पहुंचाने, रिस रहे बांधों की मरम्मत करने और फसल बर्बाद होने के मुआवजे के तौर पर तीन से तीस रुपये तक के चैक बांटने में ही मशरूफ नजर आते हैं। शहरी इलाकों में बाढ़ की सबसे बड़ी वजह डूब क्षेत्रों में अवैध निर्माण है। कोई शहर या कस्बा ऐसा नहीं है, जहां इस पर अंकुश लगाने की कोई सूरत बन पा रही हो। हकीकत यह है कि कर्मचारियों-अधिकारियों की रिश्वत का बड़ा जरिया इन क्षेत्रों में अवैध निर्माण है। घनी आबादी वाले ये इलाके बड़े वोट बैंक बन जाते हैं। दृश्य यह होता है कि सियासी पार्टियों के कई नेता इन इलाकों में प्लॉटिंग करते हुए और बाकी सब बचाव करते नजर आते हैं।

लोगों को सस्ती जमीन मिल जाती है, इसलिए वे हर खतरा ङोलते हुए वहां बस जाते हैं। एक ऐसी व्यवस्था, जहां सबके मजे हों, तो सवाल कौन करे? सर्वोच्च न्यायालय और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के इस संबंध में दिए गए आदेश धरे रह जाते हैं। बाढ़ से बचाव के उपायों का हाल इससे भी खराब है। बांधों की मरम्मत और नए बांध बनाने में पास की रेतीली मिट्टी न इस्तेमाल करने की पूरी लिखित व्यवस्था होती है। होता यह है कि ज्यादा मुनाफा और कमीशनखोरी के बीच बांधों में रेत पाट दी जाती है। जो बाढ़ के दिनों में दरकने और टूटने की स्थिति में पहुंच जाते हैं। इलाहाबाद की ताजा बाढ़ में सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट के मिनी बांध के टूटने के पीछे ऐसी ही वजहें गिनाई जा रही हैं।

उत्तराखंड की तबाही में एक जो बड़ी बात देखने में आई, वह यह कि हर साल भू-स्खलन के बाद जो मलबा इकट्ठा होता रहा, उसे वहीं खींचकर किनारे लगा दिया जाता था। उस मलबे  को ठोस बनाने के लिए जो पेड़ लगाए जाने थे, उसमें बड़े स्तर पर गड़बड़ियां हुईं। नतीजा यह हुआ कि बादल फटने से जो पानी का रेला चला, उसमें जो मलबे का हिस्सा मिला, उससे जनहानि कई गुना बढ़ गई। सवाल सिर्फ बाढ़ के पानी के आने और वापस जाने का होता, तो भी इतनी आफत नहीं होती। सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि बाढ़ का पानी अगर एक बार घुसा, तो कई इलाकों में स्थिति सामान्य होने में हफ्तों और महीनों लग जाते हैं। जल निकासी का बुरा हाल, नालियों पर अतिक्रमण, सीवरेज सिस्टम का न होना या चोक होना कारणों के तौर पर सामने आता है। बाढ़ जाने के बाद फैलने वाली संक्रामक बीमारियां दूसरी बड़ी चुनौती बनकर दरवाजे से दाखिल हो जाती हैं।

सन 1956 से लेकर अब तक 22 कोशिशें केंद्र के स्तर पर बाढ़ प्रबंधन के लिए की जा चुकी हैं। विशेष संसदीय समिति, नदी प्राधिकरण, वाटर कमीशन, टास्क फोर्स आदि सबको एक-एक कर गिना जा सकता है। समाधान के लिए सरकारों का ईमानदार और सख्त होना जरूरी है। यह लिखना जितना आसान है, व्यवहार में उतना ही दुर्लभ। लोगों को यह समझना होगा कि बाढ़ उनके घर नहीं आती, आदमी पानी के आड़े आता है, डूब क्षेत्र कब्जा करता है। शहरों के विकास व विस्तार की दृष्टि विकसित करनी होगी कि निचले हिस्सों में कॉलोनियां बसने देना ही एकमात्र विकल्प नहीं है। ये रास्ते कठिन तो हैं, लेकिन मंजिल की तरफ जाने के लिए मुझे कोई दूसरी राह नजर नहीं आती।