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हादसों के सफर में-- संजीव पांडेय

एक बार फिर देश ने एक भीषण रेल दुर्घटना देखी है। उत्तर प्रदेश में कानपुर के पास इंदौर से पटना जा रही इंदौर-पटना एक्सप्रेस पटरी से उतर गई। यह इतनी भीषण दुर्घटना थी कि अभी तक इसमें एक सौ बयालीस लोग मरे हैं। यह दुर्घटना ऐसे समय हुई है जब हरियाणा के सूरजकुंड में रेलवे द्वारा आयोजित एक शिविर में खुद प्रधानमंत्री ‘शून्य दुर्घटना' के लक्ष्य पर जोर दे रहे थे। ‘शून्य दुघर्टना नीति' के बावजूद एक रेल दुर्घटना में सौ से ज्यादा लोग मरते हैं तो यह भारतीय रेल की कार्यशैली पर सवालिया निशान है। वर्ष 2000 से पहले भी देश में कई भीषण रेल दुर्घटनाएं हुई थीं। लेकिन उस समय तकनीक का अभाव कह कर रेलवे बच जाता था। आज तमाम तकनीकी विकास के बाद, रेलवे इतनी भीषण दुर्घटना की जिम्मेवारी से बच नहीं सकता। दिलचस्प बात है कि यात्रा के हिसाब से जो ट्रेनें सुरक्षित हैं उनमें आम लोग सफर नहीं करते। राजधानी और शताब्दी जैसी ट्रेनों में एलएचबी कोच लगे हैं। लेकिन इनका किराया इतना महंगा है कि आम आदमी इनमें सवारी करने सोच नहीं सकता है। हाल ही में रेल मंत्रालय द्वारा राजधानी और शताब्दी एक्सप्रेस की सर्ज प्राइजिंस घोषणा ने इन ट्रेनों में सफर करना और भी महंगा बना दिया है। ये पूरी तरह से कुलीन वर्ग ट्रेनें हो गई हैं, जिनमें सफर करना मध्यवर्ग को भी पुसा नहीं सकता। रेलवे ने दावा किया था कि रेल दुर्घटना की स्थिति में कम से कम नुकसान के लिए राजधानी एक्सप्रेस की तरह सारी रेलगाड़ियों में एलएचबी (लिंक हाफ्फमैन बूश) कोच लगाए जाएंगे।
 

फिलहाल ज्यादातर रेल गाड़ियों में आईसीएफ (इंटीग्रल कोच फैक्ट्री) कोच लगे हुए हैं। रेलवे ने आईसीएफ की जगह एलएचबी कोच लगाने तो शुरू कर दिए हैं, लेकिन इसकी गति काफी धीमी है। हालांकि रेलवे ने इसके लिए एक समय सीमा तय की है। रेलवे के अनुसार 2020 तक सारी रेलगाड़ियों में एलएचबी डिब्बे होंगे। एलएचबी कोच भारत में बनाए जा रहे हैं और इनमें लगाए जाने वाला स्प्रिंग भी अब विदेशों से मंगाए जाने के बजाय भारत में ही बनाए जा रहे हैं। लेकिन एक दूसरी सच्चाई भी है, जो रेलवे के दावों की पोल खोलती है। भारत में फिलहाल एलएचबी कोचों की संख्या सिर्फ पांच से छह हजार के करीब है। जबकि आईसीएफ कोच की संख्या पचास हजार से ऊपर है। इसलिए इसे इतना जल्दी बदलना आसान नहीं होगा, जितना रेलवे दावा कर रहा है। पुरानी तकनीक से बने आईसीएफ कोच अगर पटरियों से नीचे उतरते हैं तो इसमें मरने वालों की संख्या काफी ज्यादा होती है। क्योंकि पटरियों से उतरने के बाद ये कोच काफी दूर गिरते हैं और एक कोच के दूसरे कोच के ऊपर गिरने की आशंका काफी रहती है।

 

तकनीक में काफी विकास के बाद भी भारतीय रेल आईसीएफ कोच से छुटकारा नहीं पा सका है। मंत्री और अधिकारी संवेदना व्यक्त कर सुधार की बात भूल जाते हैं। ऊपर से झूठे दावे किए जाते हैं। रेल मंत्रालय इस सच्चाई को छिपा जाता है कि भारत में रेल कोच फैक्ट्रियों की कोच बनाने की क्षमता फिलहाल इतनी नहीं है कि वे अगले तीन साल में पचास हजार आईसीएफ कोच को एलएचबी कोच से बदल दें। वर्ष 1990 के बाद भारत में कई बार भीषण रेल दुर्घटनाएं हुर्इं। रेल दुर्घटनाओं की जांच के लिए समितियां बनीं। उनकी रिपोर्ट भी आई। जांच के दौरान रेलवे बोर्ड के अधिकारियों कोकोशिश रही कि समितियां रेलवे की खामियों को उजागर न करें। आज रेल मंत्रालय का मुख्य उद््देश्य रेलवे का निजीकरण रह गया है, रेलवे की महत्त्वपूर्ण संपत्तियों को निजी क्षेत्र के हवाले कर उनके मुनाफे का बंदोबस्त करना। पिछले सौ सालों में जिस आधारभूत संरचना का विकास भारतीय रेल में हुआ है, उसके रखरखाव में भी रेल मंत्रालय विफल साबित हो रहा है। सिर्फ स्टेशनों को सुंदर बनाने की बात हो रही है। ट्विटर पर संदेश के माध्यम से खाना पहुंचा रेल मंत्रालय अपना महिमामंडन कर रहा है। लेकिन रेल कोचों के अंदर की गंदगी, उनके रखरखाव की हालत कितनी खराब हो गई है, न तो इस पर रेलवे का ध्यान है न कमजोर हो रही रेल पटरियों को मजबूत करने पर।

 

पिछले एक साल से रेल मंत्रालय हाई स्पीड ट्रेन चलाने की बात कर रहा है। दिल्ली और आगरा के बीच हाई स्पीड ट्रेन चलाई गई। दिल्ली-मुंबई के बीच हाईस्पीड ट्रेन का ट्रायल किया गया। लेकिन खुद रेलवे के इंजीनियर बताते हैं कि रेल पटरियां काफी कमजोर हैं, पुरानी हो चुकी हैं और दुर्घटना की आशंका हमेशा बनी रहती है। इन पटरियों पर डेढ़ सौ किलोमीटर प्रतिघंटे की गति से भी रेलगाड़ी चलाना खतरे से खाली नहीं है। कानपुर के पास जो इंदौर-पटना एक्सप्रेस दुर्घटनाग्रस्त हुई, उसकी गति एक सौ दस किलोमीटर प्रतिघंटा थी। रेलवे के अधिकारी खुद स्वीकार करते हैं कि जिस पटरी पर रेलगाड़ी आ रही थी वह इतनी तेज गति के लायक नहीं थी।1980 के बाद कई भीषण रेल दुर्घटनाओं के मद््देनजर रेलवे ने सुधार को लेकर कुछ ठोस कदम उठाने का भरोसा दिलाया था। वर्ष 1981 में बिहार में तूफान के कारण ट्रेन नदी में जा गिरी थी, जिससे आठ सौ लोगों की मौत हो गई थी। इसके बाद एक और भीषण रेल दुर्घटना उत्तर प्रदेश के फिरोजाबाद के पास हुई जिसमें पुरुषोत्तम एक्सप्रेस का टकराव कालिंदी एक्सप्रेस से हो गया था। इसमें ढाई लोगों की मौत हुई थी। जबकि 26 नवंबर 1998 को लुधियाना के पास खन्ना में फ्रंटियर मेल और सियालदह एक्सप्रेस की टक्कर में 108 लोगों की मौत हुई थी। खन्ना रेल दुर्घटना के बाद रेलवे ने एक जांच आयोग गठित किया। हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त जज न्यायमूर्ति जीसी गर्ग की अध्यक्षता वाले जांच आयोग ने 2004 में रेलवे को अपनी रिपोर्ट दे दी।

 

रिपोर्ट में रेलवे के सुरक्षा के दावों पर सवाल उठाए गए थे। आयोग ने कई सिफारिशें भी की थीं। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में रेलवे को निर्देश दिया था कि पटरियों की जांच हर महीने पर की जाए। साथ ही इस जांच को अल्ट्रासोनिक फ्लॉ डिटेक्टर (यूएसएफडी) की तकनीक से करने के लिए कहा गया था। ये सिफारिशें कागजों में बेशक लागू हो गर्इं, लेकिन जमीन पर? खन्ना जांच आयोग ने ठंड के मौसम में पटरियों पर गश्त बढ़ाने के निर्देश दिए थे। साथ ही कहा था कि गश्त के जिम्मेवार गैंगमैनों की निगरानी की जाए क्योंकि ठंड के मौसम में पटरियों में परिवर्तन होता है। इसलिए यह जरूरी है कि गैंगमैन ईमानदारी से ड्यूटी करें। लेकिन रेलवे के ये आदेश भी कागजों में रहे। यही नहीं, आयोग ने पटरियों की गुणवत्ता पर बराबर निगरानी रखने के लिए भी कहा था। कानपुर के पास हुई रेल दुर्घटना की जांच फिलहाल जारी है। लेकिन आरंभिक जांच में पटरियों की खामियों की तरफ भी इशारा है।

 

आज भारतीय रेलवे दुनिया के बड़े रेल नेटवर्कों में से एक है, जिसके पास एक लाख पंद्रह हजार किलोमीटर रेल लाइन का नेटवर्क है। रोजाना ढाई करोड़ मुसाफिर इसकी सेवा लेते हैं, लेकिन सुरक्षा-व्यवस्था भगवान भरोसे है। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि भर्ती से लेकर तबादलों तक में पैसे लिए जाते हैं। हालांकि रेलवे की कमाई में कोई कमी नहीं आई है, भले रेल मत्रांलय लगातार घाटे की दुहाई दे। तमाम विपरीत परिस्थितियों में भी दो लाख करोड़ का राजस्व प्राप्त करने वाले रेलवे में यात्री की सुरक्षा के नाम पर सिर्फ घोषणाएं होती हैं। यात्रियों से सुरक्षा के नाम पर टिकटों में पैसे वसूले जाते हैं, लेकिन उनकी सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है।