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हाशिमपुरा- इकतीस साल बाद-- विभूति नारायण राय

बुधवार को जब उच्च न्यायालय ने हाशिमपुरा नरसंहार के सभी आरोपियों को दोषी करार देते हुए सजा सुनाई, तो 31 साल पुरानी इस दुखद घटना के सारे दृश्य एक के बाद एक मेरी आंखों के सामने से गुजरने लगे।

 

कुछ अनुभव ऐसे होते हैं, जो जिंदगी भर आपका पीछा नहीं छोड़ते। दु:स्वप्न की तरह वे हमेशा आपके साथ चलते हैं। कई बार तो कर्ज की तरह आपके सीने पर सवार रहते हैं। हाशिमपुरा भी मेरे लिए कुछ ऐसा ही अनुभव है। 22-23 मई, 1987 की आधी रात दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकंडों के बीच टॉर्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच जीवन के सूत्र तलाशना और हर अगला कदम उठाने के पहले यह सुनिश्चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पड़े- सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है। रात लगभग साढ़े दस बजे मुझे इस घटना की जानकारी हुई। शुरू में तो मुझे सूचना पर यकीन ही नहीं हुआ, लेकिन जब कलक्टर और दूसरे अधिकारियों के साथ मैं पहले मकनपुर गांव की हिंडन नहर पर पहुंचा, तब मुझे एहसास हुआ कि मैं धर्मनिरपेक्ष भारतीय गणराज्य के सबसे शर्मनाक हादसे का साक्षी बनने जा रहा हूं। मैं गाजियाबाद का पुलिस कप्तान था और उत्तर प्रदेश पीएसी ने मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से उठाकर कई दर्जन मुसलमानों को मेरे इलाके में लाकर मार दिया था। इस घटनास्थल पर पहला जीवित बच निकलने वाला बाबूदीन हमारे हाथ लगा और उससे पूरी जानकारी मिली। उसी से हमें पता चला कि मकनपुर के पहले 35-40 मिनट के फासले पर एक दूसरी नहर के किनारे भी कुछ लोगों को उतारकर मारा गया है। यह गंग नहर थी, जो मुरादनगर से होकर बहती थी।

 

तब से आज तक भारतीय समाज में बहुत कुछ बदला है। राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक परिदृश्य में जो बदलाव आए हैं, उन्होंने समाज का पूरा चेहरा बदलकर रख दिया है। इसी बदलाव के बीच घिसट-घिसटकर एक मुकदमा गाजियाबाद और दिल्ली की अदालतों में चलता रहा और निचली अदालत के बाद अब उच्च न्यायालय से इसका फैसला आया है। भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते अभी भी बहुत कुछ वैसे ही हैं, जैसे 1987 में थे या उससे भी पहले 1950 या 1960 के दशकों में थे। आज भी वैसा ही अविश्वास, उतनी ही घृणा, वही पूर्वाग्रह और खुद को देशभक्त भारतीय साबित करने-कराने की वही जिद।

 

तब हाशिमपुरा के साथ ही मेरठ के मलियाना में भी इतनी ही बुरी घटना हुई थी। फर्क यह था कि मलियाना में मुसलमानों को हिरासत में लेकर नहीं, बल्कि हिंदुओं की भीड़ और पीएसी ने सम्मिलित रूप से मारा था। 1987 के इन दंगों में मलियाना ज्यादा चर्चित हुआ। दोनों जगहों पर जो कुछ घटा, वह बहुत ही खराब था, पर हाशिमपुरा मेरे विचार से तुलनात्मक रूप से कहीं अधिक गंभीर है, क्योंकि यहां मरने वाले राज्य की हिरासत में थे।

 

हाशिमपुरा के निहितार्थ क्या हैं? क्या यह एक छोटा सा एकाकी विचलन है, जिसे ज्यादा से ज्यादा स्वतंत्रता बाद की सबसे बड़ी हिरासती हत्या के रूप में याद किया जाएगा? मुझे लगता है कि हाशिमपुरा होना भारतीय समाज के लिए किस कदर महत्वपूर्ण है, यह समझना बहुत जरूरी है। इसका सीधा रिश्ता देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे से है। 1947 में देश का विभाजन इस आधार पर हुआ था कि हिंदू और मुसलमान, दो अलग राष्ट्र हैं और वे एक साथ नहीं रह सकते। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू और संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने इसे मानने से इनकार कर दिया था और लंबे विमर्श के बाद भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना। धर्मनिरपेक्षता के पक्ष में संविधान में निहित सारे प्रावधानों के बावजूद भारतीय राज्य की अंतरसंरचना में कुछ न कुछ ऐसा जरूर है, जो इसे सही अर्थों में एक धर्मनिरपेक्ष समाज बनने से रोकता है। इस कुछ न कुछ का सबसे महत्वपूर्ण भाग सांप्रदायिक हिंसा है, जो 1961 में आजादी के बाद हुए पहले बड़े जबलपुर दंगे के बाद हर दूसरे-तीसरे साल देश के किसी न किसी हिस्से में भड़कती रहती है और लगभग हर दंगे में एक जैसी कहानी दोहराई जाती है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, लगभग हर बड़े दंगे में मरने वालों में अधिकांश मुसलमान होते हैं और हिंसा के दौरान राज्य की सबसे दृश्यमान संस्था पुलिस की कार्रवाइयों की मार भी वही झेलते हैं। हर बार मुसलमानों को लगता है कि भारतीय राज्य ने वह सब नहीं किया, जो उसे करना चाहिए था या बहुत से मामलों में वह सब कर दिया, जो उसे नहीं करना चाहिए था। एक सभ्य समाज में राज्य से न्यूनतम अपेक्षा यही की जा सकती है कि वह बिना भेदभाव अपने सभी नागरिकों के जानमाल की हिफाजत करेगा। दुर्भाग्य से एक शानदार संविधान के बावजूद भारतीय राज्य बार-बार इस कसौटी पर असफल सिद्ध होता रहा है।

 

 

 

हाशिमपुरा के निहितार्थ बहुत बड़े हैं। निचली अदालत के फैसले के बाद, जिसमें सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया था, जैसी प्रतिक्रियाएं आई थीं, उन्हें गंभीरता से लिया जाना चाहिए। तब देश भर में हाशिमपुरा को लेकर आयोजन किए गए और उनमें से कुछ में मुझे भी भाग लेने का मौका मिला। इन कार्यक्रमों में कट्टरपंथी मुस्लिम संगठनों से जुड़े युवाओं की बड़ी संख्या मौजूद दिखी। पोशाक, हाव-भाव और उनके द्वारा पूछे गए सवालों से वे साफ पहचाने भी जा सकते थे। हाशिमपुरा के बहाने वे नौजवान धर्मनिरपेक्षता की अप्रासंगिकता पर जोर देने की कोशिश कर रहे थे। उनके समक्ष एक अजीब द्वैध था- विचारधारा से वे एक इस्लामी हुकूमत के पक्षधर थे, पर भारत में अल्पमत होने के कारण ऐसी हुकूमत ला भी नहीं सकते। मुझे इतिहासकार मुशीरुल हसन का यह कथन याद आया कि भारत के अधिकांश मुसलमान एक धर्मनिरपेक्ष राज्य चाहते हैं, इसलिए नहीं कि वे धर्मनिरपेक्षता में यकीन करते हैं, बल्कि इसलिए कि धर्मनिरपेक्ष राज्य का उलट हिंदू राज होगा। तब उस फैसले ने हिन्दुस्तानी मुसलमानों के उस तबके को रक्षात्मक कर दिया था, जो उदार और रोशन ख्याल है और उनके बीच के कट्टरपंथियों को इससे खाद मिली। 
क्या उम्मीद की जाए कि उच्च न्यायालय के ताजा फैसले के बाद सोच कुछ बदलेगी?

 

(ये लेखक के अपने विचार हैं