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हिंसा झेलतीं महिलाओं का मौन- आकार पटेल

आठ मार्च पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर मुझे महिलाओं के विषय में कुछ लिखना उपयुक्त लगा, जो हमारी आबादी में सर्वाधिक कमजोर तथा भेदभाव की शिकार रही हैं. अपने भाषण में जेएनयू का बचाव करते हुए उसके छात्र नेता कन्हैया कुमार ने दो ऐसी बातें कहीं, जो मुझे मालूम न थीं.

पहली, यह एक ऐसा विश्वविद्यालय है, जिसके छात्र संगठन ने एकमत से आरक्षण को लागू करने पर जोर दिया था. दूसरी, जेएनयू में 60 फीसदी संख्या सिर्फ छात्राओं की है. मैंने यह भी गौर किया कि जेएनयू आंदोलन के लक्ष्यवर्गों के नाम गिनाते हुए उन्होंने दलितों, आदिवासियों, महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों के नाम गिनाये. वहां बुलंद किये जानेवाले आजादी के नारों में हमेशा ही पितृसत्ता से स्वतंत्रता की बात शामिल रहती है और यह एक ऐसी चीज है, जिसका हम सबके द्वारा समर्थन किया जाना चाहिए.

विश्व के सर्वाधिक गरीब हिस्सों में एक होने के बावजूद भारत के मध्यवर्ग में पुरुष होना एक विशेषाधिकार माना जाता है, मगर एक भारतीय महिला चाहे जिस वर्ग या जाति से आती हो, यहां की पितृसत्तात्मक संस्कृति में उसे पूर्वाग्रहों का शिकार होना ही पड़ता है. यह सही है कि स्थान, शिक्षा, रोजगार, संस्कृति के साथ-साथ कई अन्य आधारों पर इन पूर्वाग्रहों के स्वरूप और उनकी तीव्रताएं अलग-अलग होती हैं, मगर किसी न किसी रूप में ये सर्वव्यापी ढंग से मौजूद जरूर होते हैं. यौन हिंसा केवल भारत में ही नहीं होती, मगर यहां उसके शिकार को ‘इज्जत' और उसे पहुंची ‘क्षति' जैसी अन्य अवधारणाओं से भी जूझना पड़ता है.

आये दिन यह बतानेवाली खबरें आती हैं कि अपने साथ अपराध होने के बाद महिलाओं को कई अन्य अत्याचारों का भी शिकार होना पड़ता है. ये पंक्तियां लिखते वक्त भी एक समाचार आ रहा है कि अपने पिता द्वारा दुर्व्यवहार की शिकार बनी एक 13 वर्षीया बालिका को जाति पंचायत के फरमान पर सार्वजनिक रूप से कोड़े मारे गये. ऐसी स्थिति में यदि महिलाएं यौन हिंसा के मामले में राज्यव्यवस्था तथा समाज पर यकीन नहीं कर पातीं, तो इस पर अचरज नहीं होना चाहिए.

केंद्रीय सरकार का स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय कुछ वर्षों के अंतराल के बाद पूरे देश में बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण कराता है, जिससे स्वास्थ्य और परिवार कल्याण से संबद्ध आवश्यक नवीनतम आंकड़े हासिल किये जाते हैं, ताकि उनके आधार पर मंत्रालय के साथ-साथ इस क्षेत्र में कार्यरत अन्य एजेंसियों को अपनी नीतियां तथा कार्यक्रम तय करने में मदद मिल सके. इस सर्वेक्षण से स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण के क्षेत्र में उभरते मुद्दों की सूचना भी हासिल होती है. इसे देशव्यापी ढंग से सैंपल आधार पर पूर्णतः वैज्ञानिक प्रक्रिया से अंजाम दिया जाता है. इस सर्वेक्षण के अंतर्गत 15-49 वर्ष आयुवर्ग की 83,703 महिलाओं से ली गयी जानकारी से हासिल कई आंकड़े आंखें खोलनेवाले हैं:

यौन हिंसा का शिकार बनीं महिलाओं में सिर्फ 1 प्रतिशत ही पुलिस में रिपोर्ट लिखवाती हैं. यौनाचार के लिए पत्नी के इनकार करने पर 5.7 फीसदी पति उनके साथ जबरदस्ती करते हैं, 19.8 फीसदी क्रुद्ध हो जाते और फटकारते हैं, 6 प्रतिशत उनकी आर्थिक जरूरतें पूरी करने से इनकार कर देते हैं और 4.2 प्रतिशत पति अन्य महिलाओं के साथ यौन संबंध बना लेते हैं.

15 वर्षों से बड़ी 44 प्रतिशत अशिक्षित महिलाएं कभी न कभी हिंसा का शिकार बनीं और 26 प्रतिशत ने तो पिछले एक वर्ष के अंदर ही इसकी पीड़ा भोगी. महिलाओं की बढ़ती शिक्षा के साथ यह प्रतिशत लगातार घटता जाता है और 12 वर्षों अथवा उससे भी अधिक अवधि तक शिक्षा हासिल की हुई महिलाओं के लिए उपर्युक्त दोनों आंकड़े घट कर क्रमशः 14 प्रतिशत तथा 6 प्रतिशत ही रह जाते हैं.
हिंसा का शिकार बनीं प्रत्येक तीन महिलाओं में दो ने न केवल कभी मदद की गुहार नहीं लगायी, बल्कि कभी किसी से उसका जिक्र तक नहीं किया.

यौन हिंसा का शिकार हुई महिलाओं के 85 फीसदी ने किसी को भी उस संबंध में कुछ नहीं बताया तथा केवल 8 फीसदी ने ही कोई मदद मांगी.

इसके विपरीत, शारीरिक तथा यौन हिंसा दोनों की पीड़ा भोग चुकी 37 प्रतिशत महिलाओं ने और केवल शारीरिक हिंसा का शिकार हुई 22 प्रतिशत महिलाओं ने मदद मांगी, जो हिंसा करनेवाले व्यक्ति की किस्म पर निर्भर था. यह स्वाभाविक ही था कि हिंसा का शिकार बन बाद में तलाक प्राप्त कर चुकी महिलाओं ने सबसे ज्यादा मदद मांगी थी, क्योंकि यह अपने दुर्व्यवहारी पति से अलग होने तथा विवाह की समाप्ति की दिशा में उठाया गया पहला कदम था.

कुल मिला कर ये आंकड़े यह इंगित करते हैं कि हिंसा के विरुद्ध मदद मांगने का महिलाओं की शिक्षा तथा उनकी दौलत से कोई संबंध नहीं है. संकेत तो यहां तक हैं कि काफी ज्यादा पढ़ी-लिखी तथा अत्यंत समृद्ध श्रेणी की महिलाएं मदद मांगने की ओर कम उन्मुख होती हैं. दुर्व्यवहारों की पीड़ित महिलाएं अधिकतर अपने परिवारों में ही मदद मांगती हैं.

सिर्फ शारीरिक हिंसा झेली 72 प्रतिशत महिलाओं ने तथा केवल यौन हिंसा की शिकार बनी 58 प्रतिशत महिलाओं ने अपने परिवारों को ही उसका एक स्रोत बताया.

शहरी क्षेत्रों की ऐसी महिलाएं, जिन्होंने क्रमशः यौन हिंसा और शारीरिक हिंसा झेली हो, इन्हीं हिंसाओं का शिकार बनीं ग्रामीण महिलाओं की तुलना में अपने जख्मों की सूचना क्रमशः ज्यादा और कम दिया करती हैं.

बहुत कम पीड़ित महिलाएं पुलिस, मेडिकल पेशे से संबद्ध लोगों या सामाजिक सेवा संगठनों जैसे संस्थागत स्रोतों से मदद मांगा करती हैं. उपर्युक्त तथ्य अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर एक प्रासंगिक और शोचनीय तसवीर पेश करते हैं.

(अनुवाद : विजय नंदन)