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हितकारी नहीं संरक्षणवादी नीति-- आशुतोष त्रिपाठी

साल के पहले दिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के एक ट्वीट ने हमारे पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं. इस ट्वीट को भारत-अमेरिका संबंधों की मजबूती की बानगी भी माना गया. लेकिन, बीते कुछ दिनों से वाशिंगटन से कुछ ऐसी खबरें आ रही हैं, जो भारत के लिए भी परेशानी का सबब बन सकती हैं.

ये खबरें अमेरिकी आंतरिक सुरक्षा विभाग के एच1-बी वीजा से जुड़े एक प्रस्ताव से संबंधित हैं. दरअसल, तीन साल की अवधि के ​लिए जारी किये जाने वाले एच1-बी वीजा की समयावधि को तीन वर्ष के लिए बढ़ाया जा सकता है और अगर वीजाधारक ने स्थायी नागरिकता यानी ग्रीन कार्ड के लिए आवेदन किया है, तो वीजा की अवधि टलती रहती है. इसी प्रावधान का लाभ उठाते हुए भारतीय वीजाधारक ग्रीन कार्ड के लिए आवेदन कर अमेरिका में टिके रहते हैं.

लेकिन, मौजूदा प्रस्ताव के तहत ग्रीन कार्ड आवेदन लंबित होने तक वीजा अवधि में मिलनेवाली छूट पर रोक लगाने का प्रावधान है. दरअसल, बात यह है कि ट्रंप प्रशासन चुनाव के दौरान किये गये अधिक से अधिक अमेरिकी नागरिकों को रोजगार मुहैया कराने के वादे को पूरा करने में लगा हुआ है, जिसके चलते भारत को बार-बार इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है.

इस समस्या के बारे में जानने के लिए सबसे पहले भारत के सदंर्भ में एच1-बी वीजा के महत्व को समझना जरूरी है. असल में अमेरिका हर वर्ष 65,000 एच1-बी वीजा जारी करता है, जिनमें से करीब 50 फीसदी वीजा भारतीय कामगारों के लिए जारी किये जाते हैं.

चीन और भारत को मिला लिया जाये, तो एच1-बी वीजा में इन दोनों देशों के कामगारों की हिस्सेदारी करीब 82 फीसदी है. ऐसे में वीजा के प्रावधानों में किये जानेवाले बदलावों का असर दुनिया के किसी अन्य देश के मुकाबले सबसे अधिक भारत पर पड़ेगा. पिछले छह वर्षों के ही आंकड़ों पर गौर करें, तो पता चलता है कि इस वक्त अमेरिका में करीब 2,55,000 भारतीय ऐसे हैं, जो एच1-बी वीजा पर काम कर रहे हैं. अब यदि प्रावधानों में बदलाव किये जाते हैं, तो उन्हें तत्काल वापस अपने देश लौटना होगा, जिनके ग्रीन कार्ड आवेदन लंबित हैं.

ऐसा नहीं है कि इन बदलावों का असर सिर्फ भारत की अर्थव्यवस्था और भारतीयों पर ही पड़ेगा. न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, एच1-बी वीजाधारकों को नौकरी देने के मामले में आईबीएम और कॉग्निजेंट जैसी कंपनियां सबसे आगे हैं. यही नहीं, दुनिया की जानी-मानी टेक कंपनियों माइक्रोसॉफ्ट, गूगल, एप्पल के लिए भी बड़े पैमाने पर भारतीय काम करते हैं.

सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक के करीब 15 फीसदी कर्मचारी भारतीय हैं. वीजा नियमों में प्रस्तावित बदलावों से इन कंपनियों के प्रदर्शन और मुनाफे पर भी भारी असर पड़ना तय है. अधिक से अधिक संख्या में अमेरिकी नागरिकों को नौकरी देने के वादे ने भले ही ट्रंप को व्हाॅइट हाउस पर कब्जा करने में मदद की हो, लेकिन इस वादे को पूरा करने का असर अमेरिकी अर्थव्यवस्था और कंपनियों की वित्तीय सेहत पर पड़ना लाजिमी है.

अमेरिकी नागरिकों को नौकरी देने से देश में बेरोजगारी दर में कमी तो आ सकती है, लेकिन इस प्रक्रिया में आनेवाली लागत का सीधा असर कंपनी की माली हालत पर पड़ेगा, जिसे वहन करना उनके लिए भारी पड़ सकता है. शोध बताते हैं कि एक अकुशल अमेरिकी नागरिक को नौकरी देने और प्रशिक्षण देने की औसत लागत कुशल विदेशी नागरिक को नौकरी देने के मुकाबले अधिक होती है.

हफिंगटन पोस्ट में छपी खबर के अनुसार, सेंटर फॉर अमेरिकन प्रोग्रेस द्वारा किये गये अध्ययन में बताया गया था कि घंटों के आधार पर काम करनेवाले अवैतनिक कर्मचारी के जाने से उसके वेतन का 16 फीसदी नुकसान होता है, जबकि उच्च प्रशिक्षित व्यक्ति के मामले में यह नुकसान उसके वेतन का 213 फीसदी तक हो सकता है. हालांकि, सिर्फ कम लागत में उपलब्ध होना ही एच1-बी वीजाधारकों की एकमात्र खूबी नहीं है. उन्हें अमेरिका में मिलनेवाली नौकरियों की एक वजह उनकी कुशलता भी है.

यही वजह है कि टेक्नोलॉजी क्षेत्र की कई दिग्गज कंपनियां सिर्फ सस्ते होने की वजह से वीजाधारकों को नौकरी देने की बात नकार चुकी हैं. गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियों का कहना है कि तेजी से वृद्धि करते स्टार्टअप एच1-बी वीजाधारकों के योगदान के आधार पर आगे बढ़ रहे हैं और अमेरिकी नागरिकों के लिए रोजगार सृजन कर रहे हैं. इसके अलावा वे अमेरिकी नागरिकों के मुकाबले वीजाधारकों को अधिक भुगतान कर रही हैं.

ऐसे में कहा जा सकता है कि चाहे दिग्गज अमेरिकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला हों या फिर गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई, सभी किसी जमाने में एच1-बी वीजा का लाभ उठाकर अमेरिका पहुंचे और अपनी बुद्धिमत्ता और कुशलता के दम पर अमेरिकी टेक जगत में अपनी धाक जमायी, जिसका लाभ आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था को भी मिल रहा है.

इसलिए, भूमंडलीकरण के इस दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ऐसी संरक्षणवादी नीतियां न ​अमेरिका के हित में है, न भारत के और न ही दुनिया के. उम्मीद की जानी चाहिए कि हमारी सरकार भी ऐसे प्रावधानों को टालने के लिए कूटनीतिक तरीकों का इस्तेमाल करेगी.