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‘पहुंच’ की अर्थव्यवस्था- सुनील खिलनानी

कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया के टेप और विकिलीक्स के खुलासे पिछले एक दशक में मजबूती से सामने आए दो बुनियादी और परस्पर संबंधित राजनीतिक नजरिये की पुष्टि करते हैं। इनमें एक वैश्विक है और दूसरा स्थानीय। इनमें से पहला सत्ता की प्रकृति के बारे में है। आधुनिक विश्व में अमेरिकी सैन्य शक्ति और उसकी व्यापारिक ताकत के अतिरिक्त सत्ता सूचनाओं पर ज्यादा टिकी है, जो हथियार या खजाने पर नियंत्रण रखती है। साइबरस्पेस में मजबूती से स्थापित यह सूचना तंत्र ही शक्ति का भंडार है। दूसरे का रिश्ता हमारी अपनी राजनीतिक और आर्थिक प्रवृत्तियों से है। आज से लगभग 20 वर्ष पहले भारत ने आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत की थी। ऐसा निजी शक्तियों को बढ़ाने और राज्य के एकाधिकार को खत्म करने के लिए किया गया था। आर्थिक उदारीकरण को देश में लंबे समय से चल रहे राजनीतिक लोकतंत्र पर थोपा गया, और इन दोनों ने ही देश के संभ्रांत वर्ग की सामाजिक पृष्ठभूमि को महत्वपूर्ण तरीके से बदला। लेकिन ये प्रक्रियाएं देश के ढांचे में बहुत कम ही बदलाव कर पाई हैं।
आज हम द्वारपालों का समाज बनकर रह गए हैं। नई समाज-व्यवस्था में शीर्ष पर वे हैं, जिनके पास राजनीतिक दरबारों, नौकारशाहों के कार्यालयों, सीईओ के बोर्डरूमों व सैलूनों तथा मीडिया तंत्र तक पहुंच बनाने की क्षमता है। हाल के दशकों में हुए ऐसे बदलावों ने केवल भ्रष्टाचार के दांव, उसकी ताकत और जरूरत में ही बढ़ोतरी की है।
ऐसे में, अब हम राडिया के टेप के ब्योरों और राजा द्वारा राष्ट्रीय खजाने की लूट के विवरणों को हैरानी से देख रहे हैं, तो इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। बड़ी मछलियों को दंडित करना ज्यादा महत्वपूर्ण है। पर यह भ्रष्टाचार किसी खास राजनीतिक दल या सरकार से भी नहीं जुड़ा है। इस लिहाज से संसद को ठप करने के बजाय विपक्ष अगर थोड़ा आत्मविश्लेषण करता, कि कैसे भ्रष्टाचार का यह रोग राजनीतिक क्षितिज से परे पसर गया है, कि कैसे यह तमाम पार्टियों के बीच एक साझा विषय, अखिल भारतीय समझौता बन चुका है, तो ज्यादा अच्छा होता।
भारतीय पूंजीवाद और लोकतंत्र के कामकाज के बारे में सूचनाएं जो कह रही हैं, उसके विश्लेषण के लिए हमें गहरे झांकना होगा और यह देखना होगा कि लोकतंत्र को ईमानदारी से चलाने के लिए जो औजार हैं, वे कितने दुरुस्त हैं। राजा और राडिया प्रकरण ने हमारे संभ्रांत वर्ग के दो दुष्प्रचारों की हवा निकाल दी है। इनमें से एक यह है कि राज्य से आजाद होकर यह देश उद्यमी पूंजीवाद के एक नए युग में प्रवेश कर चुका है। दूसरा यह कि ऊर्जावान और आलोचनात्मक स्वतंत्र प्रेस के साथ हम एक जीवंत लोकतंत्र हैं।
हमारे यहां अब पीआर व कॉरपोरेट लॉबिस्ट तथा कारोबारी नेता तो हैं ही, ऐसे पेशेवर मीडियाकर्मी भी हैं, जो इससे पहले नहीं देखे गए। ‘पहुंच’ की यह सचाई हमारी स्वतंत्र मीडिया को नष्ट कर रही है और अंततः यह हमारे लोकतंत्र को विकलांग बना देगी।
भारत की नई अर्थव्यवस्था भी दरअसल ‘पहुंच की अर्थव्यवस्था’ है। इसमें जमीन, जल, वायु तरंगों और ज्ञान जैसे राष्ट्रीय संसाधनों का दोहन वही कर सकता है, जिसकी द्वारपालों तक पहुंच है, जो राज्य के कार्यालयों पर पकड़ रखता है और उन्हें प्रभावित कर सकता है।